(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – बढ़त जात उजयारो…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 231 – बढ़त जात उजयारो… भाग-१
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “बहके बहके आँगन की...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 231 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “बहके बहके आँगन की...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “शिक्षाविद और सहकारिता मनीषी – स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता
☆ कहाँ गए वे लोग # ४९ ☆
☆ “शिक्षाविद और सहकारिता मनीषी – स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
कर्मवीर के आगे पथ का
हर पत्थर साधक बनता है
दीवारें भी दिशा बताती
तब मानव आगे बढ़ता है
हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि स्व. श्री ब्रजराज पांडव की इन पंक्तियों की सार्थकता सिद्ध की थी जबलपुर के चर्चित सहकारिता मनीषी और शिक्षा शास्त्री स्व. डा. सोहनलाल गुप्ता ने जिन्होंने अपनी कर्मठता और विद्वत्ता से शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा अर्जित की जिसके कारण आज भी जनमानस के स्मृति पटल डा. एस एल गुप्ता की छवि और प्रभाव अंकित है।
डा. सोहन लाल गुप्ता एक बहुआयामी व्यक्तित्व के रुप में समाज में प्रतिष्ठित और प्रेरक स्तंभ थे। शिक्षाविद और सहकारिता मनीषी के रुप में उन्होंने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। एक सबके लिए और सब एक के लिए के सिद्धांत के पोषक और प्रचारक डा, सोहनलाल गुप्ता सिर्फ सहकारिता चिंतक और लेखक ही नहीं थे बल्कि उन्होंने सहकारी आंदोलन को सशक्त नेतृत्व भी प्रदान किया था।
जबलपुर नागरिक सहकारी बैंक के प्रथम अध्यक्ष के रूप में उन्होंने सहकारी बैकिंग को कमजोर वर्ग के आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण माध्यम बनाने में सक्रिय योगदान भी दिया। वर्ष १९७०३ के दशक में मात्र दो लाख रुपए की पूंजी से शुरू किए गए इस नागरिक सहकारी बैंक में उस समय बैंक की प्रारंभिक स्थिति में डा. गुप्ता की लगभग ८० हजार रुपए की पूंजी शामिल थी। १९७९ तक उन्होंने बैठक के अध्यक्ष पद का सफलतापूर्वक निर्वाह किया। यह डा, एस. एल. गुप्ता का सहकारिता के प्रति गहरे लगाव और लगन का परिचायक था।
सहकारिता और ग्रामीण विकास के अंतर्गत कृषिगत गतिविधियों में शोध कार्यों के लिए भी डा. सोहनलाल गुप्ता के की प्रभावी सोच और योगदान को भी शासन ने स्वीकार करते हुए उन्हें पुरस्कृत किया था। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संदर्भ में डा. गुप्ता ने जो शोध कार्य किये, उसके लिए भी विश्व विद्यालय अनुदान आयोग द्वारा उनकी सराहना की गई। ५ अगस्त १९१८ को जन्मे डा. सोहनलाल गुप्ता की महाविद्यालयीन शिक्षा सेंट कालेज में हुई थी। बाद में उन्होंने वर्ष १९४२ में एम. ए. की परीक्षा और वर्ष १९४३ मं एल. एल. बी. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। शिक्षा के प्रति डा. गुप्ता का लगाव बड़ा गहरा था। उन्होंने १९४६ में एम. काम. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वर्ष १९५२ में डा. गुप्ता ने पी. एच. डी. की उपाधि अर्जित की और इसके बाद १९५३ में उन्होंने जबलपुर के जी. एस. कामर्स कालेज में सहायक प्राध्यापक के पद पर अपनी सेवाएं देना शुरू किया। डा. गुप्ता की सक्रिय और समर्पित सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए उन्हें १९६० में कालेज में प्राध्यापक के पद पर पदोन्नत किया गया। इसके बाद डा. सोहनलाल गुप्ता ने जब महाविद्यालय में प्राचार्य का दायित्व संभाला तो उनसे उस समय उनकी विद्वता और योग्यता को देखते हुए कालेज को काफी आशाएं थीं। डा. गुप्ता ने कुशलता और सफलता के साथ उन अपेक्षाओं को पूर्ण किया और कालेज के विकास की अद्भुत कहानी लिखते हुए १९७७ में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भी शिक्षा जगत के लिए जीवन पर्यंत पूरी तरह समर्पित डा. सोहनलाल गुप्ता शैक्षणिक क्षेत्र में नित नये लाभकारी और उपयोगी पाठ्यक्रमों के संचालन हेतु प्रयत्नशील रहे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अर्थ वाणिज्य उच्च अध्ययन एवं अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की और संचालक के रुप में अनेक वर्षों तक उस केंद्र को महाकोशल क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण और उपयोगी संस्थान बनने में सफलता अर्जित की। इस संस्थान की स्थापना के पीछे डा. गुप्ता की सार्थक सोच यह थी कि आज का शिक्षित युवा अपने आर्थिक भविष्य के निर्माण के लिए व्यावसायिक और औधौगिक प्रबंध में व्यापक प्रशिक्षण प्राप्त करे। अपने शिक्षकीय जीवन के दौरान डा. एस. एल. गुप्ता ने पाठ्यक्रमों से संबंधित अनेक पुस्तकें का लेखन किया जो कि अर्थ वाणिज्य के क्षेत्र में विभिन्न कालेजों में छात्रों के लिए अध्ययन हेतु सहायक सिद्ध हुई।
गांधीवादी विचारक डा. गुप्ता संत विनोबा भावे के वैचारिक दृष्टिकोण से भी काफी प्रभावित थे और यहीं कारण था कि उन्होंने जिला सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष पद पर काफी वर्षों तक सक्रियता पूर्वक अपने दायित्वों का का निर्वाह भी किया। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने कर्तव्यों और दायित्वों का ईमानदारी से निर्वाह करने वाले डा. सोहनलाल गुप्ता का स्वर्गवास दिनांक २२ अक्टूबर १९९६ को हुआ था लेकिन उनकी प्रेरक स्मृतियां सदा हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. राजकुमार सुमित्र जी के शब्दों में व्यक्ति बीत जाता है और समय भी किंतु स्मृतियां अशेष होती हैं। कुछ चित्र और कुछ स्मृतियां ऐसी होती हैं जिनके कारण स्मृति कोष सार्थक हो जाया करता है। श्रद्धेय डा. सोहनलाल गुप्ता जी की छवि और स्मृतियां ऐसी ही है।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
अब आप प्रत्येक सोमवार को श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी के साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “यहां सभी भिखारी हैं”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 1 ☆
☆ व्यंग्य ☆ “यहां सभी भिखारी हैं” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
यों तो मनुष्यों और अन्य प्राणियों की शारीरिक संरचना, आवास, खानपान, बल आदि में बहुत से अंतर हैं किंतु मुख्य अंतर है बुद्धि का। मनुष्य को बुद्धिमान प्राणी माना जाता है जबकि अन्य प्राणियों को बुद्धिहीन अथवा अल्पबुद्धि वाला। हां, एक प्रमुख अंतर और है भिक्षा मांगने का। मनुष्य के अतिरिक्त संसार का अन्य कोई प्राणी भिक्षा नहीं मांगता। कुत्ता, गाय, घोड़ा, तोता आदि वे प्राणी जिन्हें मनुष्य का सत्संग या कुसंग प्राप्त हुआ वे अवश्य ही भोजन की मूक भीख मांगना सीख गए हैं।
भीख मांगने की प्रवृत्ति संभवतः तब शुरू हुई जब मनुष्य ने ईश्वर रूपी परम शक्ति को खोजा अथवा गढ़ा। भीख पाने के लिए या अच्छे शब्दों में कहें तो वरदान, उपहार, मदद पाने के लिए मनुष्य ने भक्ति या स्तुति का मार्ग अपनाया। चतुर-चालक लोग भक्ति और स्तुति के द्वारा सम्पन्न लोगों के कृपा पात्र बनकर उनसे भी तरह-तरह की भीख प्राप्त करने लगे। कटोरा लेकर भीख मांगने को समाज में घृणित और शर्मनाक माना जाता है किंतु स्तुति करके मांगी गई भीख को वरदान अथवा कृपा कह कर सम्मान दिया जाता है यह बात अलग है कि कुछ लोग इसे चमचागिरी का प्रतिफल मानते हुए इसे हेय दृष्टि से देखते हैं, किंतु इसमें उनकी संख्या अधिक होती है जिनसे चमचागिरी नहीं बनती। आखिर चमचागिरी भी कठिन साधना है।
बात भीख की चल रही है तो बता दें कि किसी जमाने में नगरों की सीमा के बाहर रहकर जनकल्याण की भावना से ईश्वर की आराधना करने वाले और गुरुकुल वासी छात्र ही “भिक्षाम् देही” कहते हुए भीख मांगते थे। इन्हें लोग सहर्ष भिक्षा देते भी थे, किंतु भीख मांगना अब लाभ दायक व्यवसाय बन गया है। भिखारियों की गैंग/ यूनियन होती है इनका प्रमुख होता है। इनके कार्यक्षेत्रों का वितरण होता है। सफल भिखारियों के बैंक खातों में लाखों, करोड़ों रुपए जमा हैं। मंदिरों-मस्जिदों, नदी किनारों, बाजारों में बढ़ती भिखारियों की भीड़, बिना श्रम इनकी अच्छी आमदनी से ईर्ष्या और आमजन को होती तकलीफ के कारण मध्यप्रदेश के इंदौर और भोपाल शहर में भीख लेने-देने पर रोक लगा दी गई है। आश्चर्य है कि देश में अपनी मांग के लिए विरोध प्रदर्शन/आंदोलन करने की सुविधा होने के बाद भी इन शहरों के भिखारियों ने अब तक भिक्षावृत्ति बंद करने के खिलाफ कोई आंदोलन क्यों नहीं छेड़ा। हो सकता है कि राष्ट्रीय पार्टियों के प्रमुखों को उनके पार्टीजन इस मुद्दे को उनके संज्ञान में न ला पाये हों अथवा वे हमारे प्रदेश की सीमा पर अवश्य ही भिखारियों का आंदोलन खड़ा करवा देते।
भिक्षावृत्ति चाहे किसी भी स्वरूप में हो डायरेक्ट कटोरा लेकर अथवा स्तुति/आराधना या चमचागिरी करके यह हमारे देश की परम्परा है, हमारा अधिकार है और अधिकारों का हनन नहीं किया जाना चाहिए। कौन भिखारी नहीं है? कोई ईश्वर से धन दौलत, प्रतिष्ठा, प्रेमिका – पत्नी, पुत्र, स्वास्थ्य, सुख-शांति, ट्रांसफर, प्रमोशन, मुकदमे में जीत की भीख मांगता है तो कुछ लोग ईश्वर, खुदा, यीशु का नाम लेते हुए नेता/मंत्री बनने के लिए जनता से वोटों की भीख मांगते हैं। सभी भिखारी हैं। अलग – अलग नामों से भिक्षा पूरी दुनिया में मांगी जा रही है । भीख मांगने से मना नहीं किया जा सकता, हां भीख देना ऐच्छिक हो सकता है । कोई भी हो चाहे ईश्वर अथवा व्यक्ति, याचक को भीख देने में विलम्ब कर सकता है, पूरी तरह से इन्कार भी कर सकता है किंतु मांगने के अधिकार पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता । एक लोकप्रिय मंत्री ने भिन्न कामों को लेकर उनके पास अर्जी लगाने वालों को जो बोला उसका आशय भिखारी समझ कर लोगों ने बखेड़ा खड़ा कर दिया। कल जिन लोगों ने उनके करबद्ध आग्रह पर उन्हें अपना बहुमूल्य वोट दिया था वे उनके इस कथन से हतप्रभ हैं। विपक्षी उनके बयान के विरोध में जमीन आसमान एक कर रहे हैं। मंत्री जी को चाहिए कि वे मांगने वालों को मांगने दें। देना उनकी मर्जी पर है चाहें तो अन्य नेताओं/मंत्रियों की तरह चीन्ह – चीन्ह कर दें अथवा न दें। वैसे अब तो वोटों की भीख पाने चुनाव के पूर्व सरकार और सभी विपक्षी दल बिना भीख मांगे लोगों पर मोतियों की वर्षा करने लगे है। वोटरों को क्या-क्या फ्री मिल रहा है आप जानते ही हैं।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “हम कब बोलेंगे ?”।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘धड़कन…‘।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘कवि की भार्या’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 282 ☆
☆ व्यंग्य ☆ कवि की भार्या ☆
छोटेलाल ‘अनमने’ होलटाइम कवि हैं, 24 गुणा 7 वाले। वे सारे समय कविता में रसे-बसे रहते हैं। नींद में भी कविता उनके दिमाग में घुड़दौड़ मचाये रहती है। नींद खुलते ही सबसे पहले सपने में आयी कविताओं को रजिस्टर में उतारते हैं, उसके बाद ही बिस्तर छोड़ते हैं। सड़क पर चलते भी कविता में डूबे रहते हैं। कई बार एक्सीडेंट की चपेट में आ चुके हैं, लेकिन गनीमत रही कि कोई हड्डी नहीं टूटी।
‘अनमने’ जी कविता पढ़ते अपनी फोटू फेसबुक पर डालते रहते हैं— कभी नदी किनारे, कभी पहाड़ पर, कभी रेल की पटरी पर, कभी पुराने किलों और स्मारकों पर। कोई महत्वपूर्ण जगह उनके कविता-पाठ से अछूती नहीं रहती।
‘अनमने’ जी अपने झोले में अपने कविता-संग्रह की दो-तीन प्रतियां हमेशा रखते हैं। कोई परिचित मिलते ही उसके हाथ में अपनी किताब देकर फोटू खींच लेते हैं और फेसबुक पर डाल देते हैं। कैप्शन होता है— ‘अमुक जी मेरी कविताएं पढ़ते हुए।’ इस मामले में बच्चे भी नहीं बख्शे जाते। वे भी ‘अनमने’ जी के पाठक बन जाते हैं। ‘अनमने’ जी कई राजनीतिज्ञों को भी अपनी किताब पकड़ाकर फोटू डाल चुके हैं। राजनीतिज्ञ भी खुश हो जाते हैं क्योंकि मुफ्त में साहित्य-प्रेमी होने का प्रचार हो जाता है।
चौंतीस साल के ‘अनमने’ जी अभी तक कुंवारे हैं। लड़कियां तो कई देखीं, लेकिन सर्वगुण-संपन्न होने के बावजूद उनमें साहित्य-प्रेम का अभाव ‘अनमने’ जी को हर बार खटकता रहा। अन्ततः एक कन्या उन्हें भा गयी। हिन्दी में एम.ए.। ‘अनमने’ जी ने उससे पूछा, ‘कौन-कौन से कवि पढ़े हैं?’ कन्या ने निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल के नाम बताये तो ‘अनमने’ जी ने पूछा, ‘महाकवि अनमने को नहीं पढ़ा?’ कन्या ने भोलेपन से पूछा, ‘ये कौन हैं?’ ‘अनमने’ जी ने जवाब दिया, ‘पता चल जाएगा। इनको पढ़ोगी तो सब कवियों को भूल जाओगी।’
विवाह हो गया। पति-पत्नी के मिलन की पहली रात को नववधू पति की प्रतीक्षा में कमरे में बैठी थी। ‘अनमने’ जी ने कमरे में प्रवेश किया, हाथ में कविता की पोथी। थोड़ी देर की औपचारिक बातचीत के बाद पत्नी से बोले, ‘तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हारी शादी एक बड़े कवि से हुई। अब तुम्हें मेरी हर कविता की पहली श्रोता बनने का मौका मिलेगा। आज मैं बहुत प्रसन्न हूं। इस अवसर पर कुछ बेहतरीन कविताएं तुम्हारे सामने पेश करता हूं। उन्हें सुनकर तुम समझोगी कि तुम्हारा पति कितना बड़ा कवि है।’
वे पोथी खोलकर शुरू हो गये। एक के बाद दूसरी कविता। हर रस की कविता। पत्नी सुनते सुनते कब नींद में लुढ़क गयी कवि को पता ही नहीं चला।
भोर हो गयी। मुर्गे बांग देने लगे। घर में बातचीत और बर्तनों की खटर-पटर सुनायी देने लगी, लेकिन ‘अनमने’ जी की कविता बिना रुके प्रवाहित हो रही थी। अचानक नववधू उठी और तेज़ी से कमरे से बाहर हो गयी। ‘अनमने’ जी अकबकाये उसे देखते रह गये।
थोड़ी देर में पता चला कि नववधू सड़क से ऑटो पकड़कर कहीं चली गयी। उसका मायका लोकल था। घर में हल्ला मच गया। किसी की कुछ समझ में नहीं आया।
डेढ़ दो घंटे बाद वधू के बड़े भाई का फोन आया। बोले, ‘बहन यहां आ गयी है। उसकी तबीयत ठीक नहीं है। अनमने जी ने रात भर कविता सुना कर उसकी तबीयत बिगाड़ दी है। आगे के लिए उनसे बात करने के बाद ही बहन को भेजेंगे। हमने बहन को कविता सुनने के लिए नहीं ब्याहा है।’
तब से ‘अनमने’ जी बहुत दुखी हैं। पत्नी को अपनी कविता का स्थायी श्रोता बनाने का उनका प्लान खटाई में पड़ता नज़र आ रहा है।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– नामालूम किस्सा… –” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — नामालूम किस्सा… —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
एक आदिम कथा है। पिछले जन्म में एक आदमी की तीन इच्छाएँ अपूर्ण रह गई थीं। पहली इच्छा थी ज़मीन खरीदने की, दूसरी इच्छा थी मकान बनाने की और तीसरी इच्छा थी अपने निर्मित मकान में रहने की। इसके लिए वह अथक परिश्रम करता था। उसे डर लगता था कहीं किसी कारण से बाधित होने लगे और ऐसे में हो कि जो इच्छाएँ अपनी आँखों में चमकती हैं और अपने हृदय में नवजात हिरण की तरह कुलाँचे मारती हैं वे इच्छाएँ कुम्हलाने लगें। तब तो उसकी इच्छाएँ उसके लिए उपास्य हो जाती थीं। खाए तो वह कटौती कर के, ताकि अपनी इच्छाओं की आपूर्ति के लिए कुछ रूपयों की बढ़ोत्तरी हो सके। बोले तो वह शब्दों को घटा कर। झोंपड़ी जैसे मकान में ज्यादा बोलना शोभा भी तो न देता। बोलने के लिए अपनी विशेष संपदा हो। अपनी ज़मीन और अपने मकान से बड़ी संपदा और क्या हो सकती है। अपने आलीशान मकान में रहें और कोई आए तो अपनी अद्भुत शान प्रतिबिंबित हो। ज़ोर से बोलने और खास कर अधिक बोलने में तब कोई तुक हो। सुनने वाले को मानना पड़े कमाया है तभी तो ऐसे बातूनीपन की फसल काट रहा है।
पर विधाता के बनाए हुए जन्म – मृत्यु के बंधन से वह मुक्त तो था नहीं। जन्म से आया था तो मृत्यु से जाने का संदेशा आया। वह मृत्यु से कंधों पर गया तो जैसे अपनी तीन अधूरी इच्छाओं को गिनते हुए। चिता में शरीर का दाह हुआ तो तीनों इच्छाएँ आग की लपटें बन कर आकाश की यात्रा पूरी कर रही हों। यह वही आकाश था जहाँ उसका अगला जन्म निर्धारित था। उसने अगले जन्म में जोर लगाया कि अपनी तीन इच्छाओं का लोक ऐसा हो कि ज़मीन मकान होने में यह भी हो कि अपने मकान में रहने का सुख अर्जित हो जाए। पर इस जन्म में वह मात्र ज़मीन खरीद पाया और उसके जीवन के दिन पूरे हो जाने से उसे जाना पड़ा। एक इच्छा पूरी हो जाने का उसे संतोष था, लेकिन दो इच्छाएँ अधूरी रह जाने का मनस्ताप उसे गहरी आत्मा तक कुरेद कर रख देता था। इसी मनस्ताप ने उसे नए जन्म में ढाला। जन्म था तो इच्छाओं के लिए ही तो था। बेहद स्फूर्ति और लगन से उसने दूसरी इच्छा के अनुरूप पहले से खरीदी हुई अपनी ज़मीन पर अपना मकान बनाना शुरु किया। मकान तो बना, लेकिन मृत्यु ने अपने मकान में रहने से उसे वंचित कर दिया। सच यह था आवागमन का अब वह इतना शौकीन हो गया था कि अगले जन्म का मानो वह स्वयं नियंता हो और भगवान तो बस एक द्रष्टा हो। अगले जन्म में अपने मकान में रहने की उसकी तीसरी इच्छा पूरी तो हुई, लेकिन अब तो इच्छाओं का दास हो जाने से उसने चौथी इच्छा का आविष्कार कर लिया था। उसे धुन थी अपने मकान में अपने बच्चों की शादी देखने की। वह मानता था बहुत ही जोश – खरोश से वह अपनी इच्छाओं का दासत्व निभाता है। पर भगवान जानता था वह कितना थकता टूटता और चिंदा – चिंदा बिखरता है। भगवान ने उससे कहा बच्चों की शादी देखने की इच्छा तुम्हारा एक बहुत बड़ा भ्रम है। उन्होंने तो शादी कर ली है और उनके बड़े – बड़े बेटे – बेटियाँ हैं। बल्कि वे अपने बच्चों की शादी करने की चिंता करते हैं। यह उसके लिए बड़े ही अचरज और धक्के की बात हुई। अपने बच्चों के अपने प्रति इस तरह दुराव कर लेने से उसने जैसे तैसे अपनी इच्छाओं से अपने को मुक्त किया। उसे नए जन्म से अब बहुत विरक्ति हो गई थी। उसकी विरक्ति देखते हुए भगवान सोच में पड़ गया। मृत्यु का जिस तरह सिलसिला था जन्मों का भी तो वही उपक्रम था। इस दृष्टि से उसका पुन: जन्म तो हुआ, लेकिन एक रद्दोबदल के साथ। बल्कि भगवान ने तो सब के लिए एक ही जैसा नियम बना लिया। जन्मों से सदाबहार वसंत की तरह धरती लदती रहे, लेकिन किसी को अपने पूर्व जन्म का हल्का सा भी किस्सा मालूम न होता।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 281 ☆ परिवर्तन का संवत्सर…
नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास, हर तरफ होता है हर्ष।
भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढी पाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है।
स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला। गुढीपाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला ज़रीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।
माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है, “हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।
प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। ज़री के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढी पाडवा।
कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है। बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’ यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।
तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर में भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।
सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-
न राग बदला, न लोभ, न मत्सर,
बदला तो बदला केवल संवत्सर।
परिवर्तन का संवत्सर केवल काग़ज़ों तक सीमित न रहे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है
प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
Anonymous Litterateur of social media # 229 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 229)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 229