हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 124 ☆ गीत ☆ ।।तुम खुद अपना कोई नया आसमान बनाओ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 124 ☆

गीत ☆ ।।तुम खुद अपना कोई नया आसमान बनाओ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

तुम खुद अपना कोई नया आसमान बनाओ।

अपनी कोशिशों से हैंसलों की मीनार बनाओ।।

[2]

पसीने की स्याही से तुम लिखो अपने इरादों को।

हर कोशिश से पूरा करो तुम अपने दिए वादों को।।

तुम अपना किरदार अपना कोई  योगदान बनाओ।

तुम खुद अपना कोई नया   आसमान बनाओ ।।

[3]

जीवन में स्वार्थी नहीं किसी के साथी सारथी बनों।

तुम राष्ट्र समाज सेवा को एक पुत्र मां भारती बनो।।

हो सके तुमसे जीवन किसी का जरा आसान बनाओ।

तुम खुद अपना कोई नया आसमान बनाओ ।।

[4]

जीत मुफ्त नहीं परिश्रम की कीमत चुकानी पड़ती है।

निराशा में भी किरण     आशा की बनानी पड़ती है।।

हो लाख बंदिशें पर अपनी नाव अरमान की चलाओ।

तुम खुद अपना कोई नया आसमान बनाओ।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 188 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – मनुष्य आज है दुखी… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “मनुष्य आज है दुखी। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 188 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – मनुष्य आज है दुखी… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मनुष्य आज है दुखी मलिन मनोविकर से

सुधार शायद हो सके सुदृढ़ सुसंस्कार से ।।

*

राग द्वेष लोभ मोह स्वार्थ शक्ति साधना-

की कर रहे हैं लोग आज रात दिन उपासना ।।

*

इसी से है विक्षुब्ध मन, असंतुलित समाज है

अशांत विश्व, त्रस्त सब मनुष्य जाति आज है ।।

*

कहीं पै लोग जी रहे चरम विभव-विकास में

कहीं पै जी रहे विवश, अनेक कल की आश में ।।

*

प्रकाश एक सा मिले, हो मुक्ति भूख-प्यास से

हो जिंदगी समृद्ध सबकी नित नये विकास से ।।

*

जो दान-त्याग, प्रेम, नीति, बंधुता का मान हो

तो क्षेत्र हर पुनीत हो मनुष्य भाग्यवान हो ।।

*

न मन कभी हुआ सुखी है ऊपरी विकास से

प्रसन्नता तो जन्मती है आत्मिक प्रकाश से ।।

*

मनुष्य का मनुष्य से ही क्या. समस्त सृष्टि से

अटूट तंतुओं से है जुड़ाव आत्मदृष्टि से ।।

*

अतः उदार वृत्ति, प्रेम दृष्टि मित्र भावना

उचित है बाल मन में जन्म-दिन से ही उभारना ।।

*

सहानुभूति, प्रीतिनीति की पवित्र कामना

जगाये मन औ’ बुद्धि में सहिष्णुता की भावना ।।

*

गूँथी जो जायें शिशु-चरित्र में विविध प्रकार से

सुशैक्षिक प्रयत्न से, समाजगत विचार से ।।

*

तो व्यक्ति हो प्रबुद्ध, शुद्ध सात्विक विचार से

मनुष्य जाति हो सुखी समृद्ध संस्कार से ।।

*

धरा पै स्वर्ग अवतरित हो विश्व में सुधार हो

मनुष्य में मनुष्य के लिए असीम प्यार हो ।।

*

इस विचार का सुचारू सप्रचार चाहिये

जगत में स्नेह का हरा-भरा निखार चाहिये ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #243 ☆ सच्चे दोस्त : अनमोल धरोहर… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सच्चे दोस्त : अनमोल धरोहर… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 243 ☆

सच्चे दोस्त : अनमोल धरोहर… ☆

साझेदारी करो, तो किसी के दर्द की करो, क्योंकि खुशियों के दावेदार तो बहुत हैं। जी हां! ज़माने में हंसते हुए व्यक्ति का साथ देने वाले तो बहुत होते हैं, परंतु दु:खी इंसान का साथ देना कोई पसंद नहीं करता। ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोई/ मेरे राम! एक तेरा नाम सांचा/ दूजा न कोय’ गीत की पंक्तियां उक्त भाव को पुष्ट करती हैं। सो! सच्चा दोस्त वही है, जो दु:ख व ग़म के समय उसका दामन थाम ले। परंतु ऐसे दोस्त बड़ी कठिनाई से मिलते हैं और ऐसा साथी जिसे मिल जाता है; पथ की बाधाएं-आपदाएं उसका बाल भी बांका नहीं कर सकतीं। सागर व सुनामी की लहरें उसे अपना निवाला नहीं बना सकतीं; आंधियां बहा कर नहीं ले जा सकतीं, क्योंकि सच्चा मित्र अमावस के अंधकार में जुगनू की भांति उसका पथ आलोकित करता है। जी• रेण्डोल्फ का यह कथन ‘सच्चे दोस्त मुश्किल से मिलते हैं; कठिनाई से छूटते हैं और भुलाए से नहीं भूलते। किसी दुश्मन की गाली भी इतनी तकलीफ़ नहीं देती, जितनी एक दोस्त की खामोशी।’ सच्चा दोस्त आपका साथ कभी नहीं छोड़ता और आप उसकी स्मृतियों से भी कभी निज़ात नहीं पा सकते।’ इसलिए कहा जाता है कि आप दुश्मन की उन ग़लतियों को तो आसानी से सहन कर सकते हो, परंतु दोस्त की खामोशी को नहीं। यदि किसी कारणवश वह आपसे गुफ़्तगू नहीं करता, तो आप परेशान हो उठते हैं और तब तक सुकून नहीं पाते; जब तक उसके मूल कारण को नहीं जान पाते। शायद! इसीलिए इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ‘खामोशियां बोलती हैं। वे अहसास हैं, जज़्बात हैं, हृदय की पीड़ा हैं, मुखर मौन हैं, जो सबके बीच अकेलेपन का अहसास कराती हैं।’

वैसे तो आजकल हर इंसान भीड़ में अकेला है… अपने-अपने द्वीप में कैद है, क्योंकि उसे किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं रहता। वह केवल मैंं, मैं के राग अलापता है; स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है और ऐसे लोगों के संगति से भी डरता है, क्योंकि उनके साये में वह कभी भी पनप नहीं सकता। जैसे एक पौधे को विकसित होने के लिए अच्छी आबो-हवा, रोशनी व खाद की आवश्यकता होती है; वैसे ही एक इंसान के सर्वांगीण विकास के लिए अच्छे, स्वच्छ व स्वस्थ वातावरण, सच्चे दोस्त व सुसंस्कारों की दरक़ार होती है, जो हमें माता-पिता व गुरुजनों द्वारा प्राप्त हो सकते हैं। वैसे भी कहा गया है कि दुनिया में माता-पिता से बड़ा हितैषी, तो कोई हो ही नहीं सकता। सो! हमें सदैव उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए; उनके संदेशों को ग्रहण कर जीवन में धारण करना चाहिए, क्योंकि वे वेद-पुराण के समान हैं; जो हमें सुसंस्कारों से पल्लवित करते हैं। इसी भांति सच्चे दोस्त भी हमें ग़लत राह पर चलने से बचाते हैं और हमारा पथ-प्रदर्शन करते हैं। यदि हम पर दु:खों व ग़मों का पर्वत भी टूट पड़ता है, तो भी वे हमारी रक्षा करते हैं; धैर्य बंधाते हैं और अच्छे डॉक्टर की भांति रोग की नब्ज़ पकड़ते हैं। इसलिए मानव को दु:खी व्यक्ति के दर्द को अवश्य बांटना चाहिए, क्योंकि दु:ख बांटने से घटता है और खुशी बांटने से बढ़ती है। वैसे भी मानव की यह प्रवृत्ति है कि वह सुख अकेले में भोगना चाहता है और दु:खों को बांट कर अपनी पीड़ा कम करना चाहता है।

परमात्मा भाग्य नहीं लिखता, परंतु जीवन के हर कदम पर आपकी सोच, दोस्त व कर्म आपका भाग्य लिखते हैं। जीवन में बहुत से सौदे होते हैं।  अधिकांश लोग सुख बेचने वाले होते हैं, परंतु दु:ख खरीदने वाले नहीं मिलते– यही है जीवन का सार व सत्य है। सो! हमें सदैव अच्छे दोस्त बनाने चाहिएं। सकारात्मक सोच के अनुकूल श्रेष्ठ कर्म करने चाहिएं, क्योंकि जहां सत्संगति होगी;  वहां सोच तो नकारात्मक हो ही नहीं सकती। यदि सोच अच्छी है, तो कर्म भी उसके अनुकूल सबके लिए मंगलकारी होंगे। सो! ग़लत राहों पर चलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि आप जीवन में खुश रहना चाहते हैं, तो अपने फैसले परिस्थिति को देखकर कीजिए। इसलिए जो भी दूसरों की प्रभुसत्ता से आकर्षित होकर फैसले करते हैं; वे सदैव दु:खों के सागर में अवगाहन करते रहते हैं। इसलिए मानव को समय व परिस्थिति के अनुकूल निर्णय लेने चाहिएं; न कि लोगों की खुशी के लिए, क्योंकि ज़िंदगी में सबको खुश रखना असंभव होता है। यह तो सर्वविदित है कि ‘चिराग जलते ही अंधेरे रूठ जाते हैं।’ इसलिए जीवन में जो भी आपको उचित लगे; आत्म-संतोष हित वही करें, क्योंकि यदि सोच सकारात्मक व खूबसूरत होगी, तो सब अच्छा ही अच्छा नज़र आयेगा, अन्यथा सावन के अंधे की भांति सब हरा ही हरा दिखाई पड़ेगा।

जीवन में दोस्तों से कभी उम्मीद मत रखना, क्योंकि उम्मीद मानव को दूसरों से नहीं, ख़ुद से करनी चाहिए। यदि दूसरे साथ न दें, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि यदि स्वप्न आपके हैं, तो कोशिश भी आपकी होनी चाहिए। अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए हानिकारक होती हैं। यदि आप किसी से अपेक्षा अर्थात् उम्मीद रखते हैं, तो उसके टूटने पर आपको अत्यंत दु:ख होता है। यदि दूसरे आपकी उपेक्षा करते हैं, तो उस स्थिति में आप ग़मों के सागर में डूबने के पश्चात् उबर नहीं पाते। सो! इनके जंजाल से सदैव ऊपर उठिए और किसी पर भी अधिक विश्वास न कीजिए, क्योंकि जब विश्वास टूटता है, तो बहुत दु:ख होता है, पीड़ा होती है। संबंध तभी क़ायम रह पाते हैं, यदि दोनों ओर से निभाए जाते हैं, क्योंकि एक तरफ से तो रोटी भी सेंक कर नहीं बनाई जा सकती।

संबंध अर्थात् सम रूप से बंधा हुआ अर्थात् जहां वैषम्य नहीं, सम्यक् भाव हो। वैसे संबंध भी बराबरी वालों के साथ निभाए जा सकते हैं। जैसे जीवन रूपी गाड़ी को सुचारू रूप से चलाने के लिए दो समान व संतुलित पहियों की अहम् आवश्यकता होती है, वैसे ही यदि दो विपरीत मन:स्थिति, सोच व स्टेट्स के लोगों के मध्य संबंध होता है, तो वह स्थायी नहीं रह पाता; जल्दी खण्डित हो जाता है। इसलिए दोस्ती भी बराबर वालों में शोभती है। वैसे भी ज़िंंदगी तभी चल सकती है; यदि मानव में यह धारणा हो कि ‘मैं भी सही और तू भी सही।’ यदि मैं सही हूं और वह गलत है, तो भी संबंध कायम रह सकते हैं। परंंतु यदि मैं ही सही हूं, तो वह ग़लत है और वह सोच जीवन में बरक़रार रहती है; तो वह सोच अनमोल रिश्तों को दीमक की भांति चाट जाती है। सो! जीवन में मनचाहा बोलने के लिए अनचाहा सुनने की ताकत भी होनी चाहिए। रिश्ते बोल से नहीं, सोच से बनते हैं। अक्सर लोग सलाह देने में विश्वास रखते हैं; सहायता देने में नहीं। रिश्तों के वज़न को तोलने के लिए कोई तराजू नहीं होता। संकट के समय सहायता व परवाह बताती है, कि रिश्तों का पलड़ा कितना भारी है। इसलिए जो इंसान आपके शब्दों का मूल्य नहीं समझता; उसके समक्ष मौन रहना ही बेहतर है, क्योंकि क्रोध हवा का वह झोंका है, जो बुद्धि रूपी दीपक को तुरंत बुझा देता है।

आपके शब्दों द्वारा आपके व्यक्तित्व का परिचय मिल जाता है। इसलिए मानव को यथा-समय व यथा-परिस्थिति बोलने का संदेश दिया गया है, क्योंकि जब तक मानव मौन रहता है, उसकी मूर्खता उजागर नहीं होती। हम एक-दूसरे के बिना कुछ भी नहीं– यही रिश्तों की खूबसूरती है। वैसे भ्रम रिश्तों को बिखेरता है और प्रेम से बेग़ाने भी अपने बन जाते हैं। बदलता वक्त व बदलते लोग किसी के नहीं हुआ करते… ऐसे लोगों से बच कर अर्थात् सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे गिरगिट की भांति रंग बदलते हैं। वे विश्वास के क़ाबिल नहीं होते, क्योंकि वे पल-भर में तोला और पल-भर में माशा हो जाते हैं। वे रिश्तों में सेंध लगाने में माहिर होते हैं अर्थात् अपने बन, अपनों को छलते हैं। उनसे वफ़ा की उम्मीद रखना वाज़िब नहीं।

आइए! मन रूपी दीपक को जलाएं। अच्छे-बुरे व सच्चे-झूठे की पहचान कर, एक-दूसरे के प्रति विश्वास बनाए रखें। सुख-दु:ख में साथ निभाएं। दूसरों पर दोषारोपण करने से पूर्व अपनी अंतरात्मा में झांकें व आत्मविश्लेषण करें। दूसरों को कटघरे में खड़ा करने से पूर्व स्वयं को उस तराज़ू में रख कर तोलें तथा उन्हें पूर्ण अहमियत दें। सदैव मधुर वाणी में बोलें और कभी कटाक्ष न करें। ज़िंदगी दोबारा नहीं मिलती। इसलिए नीर-क्षीर-विवेकी बन ‘सबका मंगल होय’ की कामना करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मौन टूटता है – कवयित्री- डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 7 ?

? मौन टूटता है – कवयित्री- डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – मौन टूटता है

विधा- कविता

कवयित्री- डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? सदा जीवित रहने की जिजीविषा हैं ये कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

मनुष्य के भीतर संचित होता बूँद दर बूँद निरीक्षण और परत दर परत अनुभूति, जब  चरम पर आते हैं तो उफनकर छूते हैैं सतह और मौन टूटकर शब्दों में मुखर हो उठता है। मुखरित इसी मौन की अभिव्यक्ति का एक प्रकार है कविता। मर्मज्ञ कवि वर्ड्सवर्थ ने पोएट्री को ‘स्पाँटेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फीलिंग्स’ कहा है। ‘’पावरफुल फीलिंग्स’ की मुखरित अनुभूतियों का संग्रह है कवयित्री डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी रचित ‘मौन टूटता है।’

‘मौन टूटता है’ की कविताओं में अध्यात्म की अनुगूँज है। पर्यावरण की चिंता, प्रकृति से समरसता है। अच्छा मनुष्य बनना और अच्छा मनुष्य बनाना कवयित्री के चिंतन का केंद्र है। आत्मविश्लेषण से आरंभ इस चिंतन की ईमानदारी प्रभावित करती है। पाठक और रचयिता के लिए उनके मानदंड अलग-अलग नहीं हैं। अपने ही मुखौटों से विद्रोह कर सकने का भाव उनकी कविता को एक मोहक सुगंध से भर देता है-

मैं कभी-कभी ऐसा क्यों करती हूँ-

अपनी पहचान-स्वभाव भूलकर

क्यों कोई अलग चोला पहनती हूँ?

वर्तमान स्थितियों में सूर्योदय से सूर्यास्त तक समझौतों पर जीनेवाला आदमी शनैः-शनैः अपनी जीवनशैली और दैनिकता में ऐसा कैद हो गया है कि ‘साँस लेना’ और ‘साँस जीना’ में अंतर भूल गया है। यह विसंगति कवयित्री को मथती है। सामाजिक संदर्भ के प्रश्नों पर टिप्पणी करती उनकी पंक्तियाँ व्यवस्था में यथास्थितिवाद पर अपनी चिंता रखती हैं-

जब क़ैद होना आदत बन जाए

तब आज़ादी कैसे महसूस की जाए?

कांति जी की रचनाओेंं में दर्शन, आस्था, निष्ठा का अंतर्भाव है। एक ‘स्कूल ऑफ थॉट’ लेखन को व्यवस्था के विरोध की उपज मानता है। वस्तुतः लेखन को किसी सीमा में बाँधना उचित नहीं है। लेखन जीवन के सारे भावों की अभिव्यक्ति है। साहित्य में सर्वाधिक लेखन प्रेम विषयक हुआ है। प्रेम चाहे देश से हो, पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका का हो, संतान अथवा माता-पिता से हो, सदा सकारात्मकता से उपजता है। कवयित्री की सकारात्मकता तथा उसमें निहित विषयों की व्यापकता की कुछ बानगियाँ दृष्टव्य हैं-

1.माटी के खिलौने दुनिया के प्रति असीम तृष्णा के प्रति आगाह करती पंक्तियाँ-

रेशम का सुंदर जाल, बुनते रहते आस-पास

पाते जितनी अधिक, बढ़ती उतनी प्यास।

2.इस तृष्णा को संतोष-जल से तृप्त करने का अनुभव व्यक्त करती पंक्तियाँ-

और अधिक, और-और की चाह से बची रही

हे अनंत तुझसे, मुझको संतोष की ऐसी धार मिली।  

3.संतान के सान्निध्य में ‘अभाव’ भूलने का यह भाव दर्शाती पंक्तियाँ-

आज भी जब-जब तुझसे मिलते,

‘अभाव’ शब्द की व्याख्या भूल जाते।

4.मानव कल्याण और श्रेष्ठ मानव निर्माण की भावाभिव्यक्ति-

मुझे मानव अतिप्रिय है

प्रकृति का कण-कण प्रिय है।

……………………………….

हमें बनना है आज सही परिभाषा भूषित मानव

तभी होगा कल्याण जगत का और हमारा मानव।  

हम पथिक हैं। चलना हमारी नीति होनी चाहिए। नियति तो है ही। यात्रा को गंतव्य स्वीकार करने या न करने की ऊहापोह से बचने के लिए कवयित्री प्रश्न करती हैं-

हम क्या करें?

उत्तर खोजें या फिर

बस सुचिंतन, सत्कर्म,

सत्पथ के यात्री बन जाएँ।

सृजन कवयित्री का अतीत, वर्तमान, भविष्य सब है। अतः सृजनशील रहना भक्ति में रमने जैसा है। सृजनात्मकता एवं परमात्मा से निकटता में प्रत्यक्ष अनुपात का संबंध है। सृजनात्मकता जितनी ब़ढ़ेगी, परमेश्वर उतने ही निकट अनुभव होंगे। यही कारण है कि विनीत भाव से कवयित्री अपनी मनीषा व्यक्त करती हैं-

जब तक रीत नहीं जाती

शब्द बिछाती रहूँगी,

जब तक ऊब नहीं जाती,

मैं यूँ ही गाती रहूँगी।

जीवन का अनुभव अन्य क्षेत्रों की तरह लेखन को भी परिपक्व करता है। रचना में उतरी ये परिपक्वता पाठक को विचार करने के लिए विवश करती है। स्वाभाविक है कि कवयित्री की कलम स्त्री सुरक्षा और बुज़ुर्गों के प्रति चिंता को लेकर बहुतायत से चली है। बच्चियों की खिलखिलाहट को ‘नीच ट्रेजेडी’ में बदलने की आशंका से सहमी ये पंक्तियाँ देखिए-

मासूम कन्या को क्या मालूम है,

आकाश मार्ग से उड़कर

कोई चील, कोई गिद्ध आयेगा,

झपट्टा मारकर उसे

उड़ाकर साथ ले जायेगा!

बुज़ुर्गों के प्रति संवेदनहीनता, निर्बल पर वर्चस्व का कुत्सित भाव निरीक्षण से लेखन तक यात्रा करता है-

अनीति कर विजय का अहसास,

आज है यह आम बात,

अनादर, कटुवचन, अपमान ख़ास बात,

ज्येष्ठों के साथ है आम बात।

वे स्त्री को देवी या केवल भोग्या दोनों ध्रुवों से परे केवल मनुष्य मानने की हिमायती हैं। यह हिमायत यों शब्द पाती है-

उसे संभालो, उसे सँवारो,

पूजो मत, मित्र बनो,

साथी बन निहारो।

भावनाओं को दबाकर रखना, इच्छाओं को दफ़्न कर देना मनुष्य जीवन की अवहेलना है। मानसिक विरेचन के जरिए खुलना, खिलना, सहज होना मनुष्य होने की संभावनाएँ हैं।

मन झिझकता है, झिझकने दो,

भीरूता का ख़्वाब तो नहीं,

मन सिसकता है, सिसकने दो,

रोना कोई अभिशाप तो नहीं।

मनुष्य पंचमहाभूत की उत्पत्ति है। पंचमहाभूत प्रकृति के घटक हैं। प्रज्ञा चक्षु प्रकृति एवं मनुष्य में अद्वैत देख पाते हैं। जो प्रकृति में घट रहा है वही मनुष्य जीवन में बीत रहा है। दूसरे छोर से देखें तो जो मनुष्य जीवन में है, उसीका प्रतिबिम्ब प्रकृति में है। घटती आत्मीयता के संदर्भ में इस अद्वैत के दर्शन कवयित्री कुछ यों करती हैं-

आज रिश्ते बीत रहे,

छतनार वृक्ष रीत रहे।

कवयित्री में रची-बसी बुंदेलखंड की आंचलिकता कतिपय शब्दों और उपमानों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती है। संग्रह में बुंदेलखंडी के एक गीत का समावेश है। लम्बे समय से महाराष्ट्र में रहने के कारण मराठी की मिठास स्वाभाविक है। यथा- पर्वत ‘सर’ करना (जीतना/ रोहण)। अँग्रेजी का ‘रिदम’ कविता की धारा को रागात्मकता प्रदान करता है। हिंदी-उर्दू का मिला-जुला प्रयोग जैसे ‘यामिनी आँचल में सहर’ कविता का विस्तार करता है। विभिन्न भाषाओं से आए शब्दों का प्रयोग ‘नथिंग इज एबसोल्युट’ को प्रतिपादित भी करता है।

ये कविताएँ जीवन की समग्रता को बयान करती हैं। जीवन के अनेक पक्ष इनमें उभर कर आते हैं। पूर्वजों, निजी सम्बंधियों, आत्मजों से संवाद करती हैं ये कविताएँ। सृष्टि के सुर-ताल, राग-लय, आरोह-अवरोह से होकर आगे की यात्रा करती हैं ये कविताएँ। जीवन के प्रति आसक्ति और विषय भोग के प्रति विरक्ति का प्रतिबिंब हैं ये कविताएँ। मनुष्य और मनुष्यता के प्रति असीम विश्वास हैं ये कविताएँ। अध्यात्म, आस्था, प्रकृति, समानता, स्त्री, संस्कृति के प्रति चेतन बोध हैं ये कविताएँ। देह रहते और विदेह होने के बाद जीवित रहने की जिजीविषा हैं ये कविताएँ।

डॉ. सौ. कांतिदेवी लोधी का मौन बार-बार टूटे। कामना है कि उनके मुखरित शब्द अनेक पुस्तकों की शक्ल में अच्छी और सच्ची रचनाधर्मिता के पाठक को तृप्त करें।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 15 – नवगीत – सतरंगी सपने… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – सतरंगी सपने

? रचना संसार # 15 – नवगीत – सतरंगी सपने…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

सतरंगी सपने बुनकर के,

तुम बढ़ते रहना।

चाहे कितना दुष्कर पथ हो,

तुम चलते रहना।।

 *

उच्च शिखर चढ़ना है तुमको,

तन-मन शुद्ध करो।

नित्य मिले आशीष बड़ों का,

उत्तम भाव भरो।।

थाम डोर विश्वास नदी -सम,

तुम बहते रहना।

 *

चाहे कितना दुष्कर पथ हो,

तुम चलते रहना।।

 *

सत्कर्मों के पथ चलकर तुम,

चंदा -सम दमको।

ऊंँची भरो उड़ानें नभ में,

तारों-सम चमको।।

संबल हिय पाएगा साहस,

बस भरते रहना।

 *

चाहे कितना दुष्कर पथ हो,

तुम चलते रहना।।

 *

सपन सलौने पाओगे तुम,

धीरज बस रखना।

करो साधना राम नाम की,

फल मधुरिम चखना।।

तमस् दूर करने को दीपक,

सम जलते रहना।

 *

चाहे कितना दुष्कर पथ हो,

तुम चलते रहना।।

 *

अथक प्रयासों से ही जग में,

लक्ष्य सदा मिलता।

सुरभित जीवन बगिया होती,

पुष्प हृदय खिलता।।

सारी दुविधाओं को तज कर,

श्रम करते रहना।

 *

चाहे कितना दुष्कर पथ हो,

तुम चलते रहना।।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #243 ☆ आँखों से बहती रही… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण रचना आँखों से बहती रही…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 243 – साहित्य निकुंज ☆

☆ आँखों से बहती रही… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

साथ  तुम्हारा चाहिए, तुझमें बसती सांस।

तुमसे ही तो जीवन में, होता है मधुमास।।

*

तेरा चेहरा देखकर, मन  में उठे  विचार।

किया नहीं तुमने कभी, दुख का तो इजहार।।

*

कबसे पीड़ा सह रही, बसा हृदय तूफान।

जान न पाए हम कभी, खिली दिखी  मुस्कान।।

*

आँखों से बहती रही, बहे अश्रु की धार।

तेरे बिन हम कुछ नहीं, हुआ जीना दुश्वार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #225 ☆ एक पूर्णिका – रोशनी  की खातिर… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – रोशनी  की खातिर आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 225 ☆

☆ एक पूर्णिका – रोशनी  की खातिर  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

मुश्किल  राहों  पर  चलना आ गया

वक्त  के  सांचे  में  ढलना  आ गया

रोशनी  की खातिर   जलते रहे हम

मोम सा  हमको  पिघलना आ गया

सबक   दुश्वारियों  से  सीखा  हमने

आज  हालातों   से लड़ना आ गया

जिनको  सदा  समझते  रहे  अपना

क्या हुआ  उनको बदलना आ गया

राह के  पत्थरों  से न  रखो  दुश्मनी

वजह से  उनकी  संभलना आ गया

बे- सहूर हवा का सहारा क्या मिला

धूल  को  माथे  पर चढ़ना आ गया

कामयाबी “संतोष” को  क्या मिली

दिल में लोगों के खटकना आ गया

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

रिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 232 ☆ ज्ञानयज्ञ… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 232 – विजय साहित्य ?

(२३ जुलै १८५६ – १ अगस्त १९२०)

☆ ज्ञानयज्ञ ☆

रत्नागिरी जिल्ह्यामधे

जन्म चिखल गावात

लाखों मने संजीवित

लोकमान्य समाजात…! १

*

ख्याती निर्भय विद्यार्थी

बुद्धी चौकस प्रखर

झाले निष्णात वकील

नाव बाल गंगाधर….! २

*

जन्मसिद्ध हक्क माझा

स्वराज्याचा अधिकार

थोर विचारी तत्वज्ञ

वाणी अमोघ साकार…! ३

*

स्वराज्याची चळवळ

चतुसुत्री बहिष्कार

दिले राष्ट्रीय शिक्षण

स्वदेशीचा अंगीकार…! ४

*

वंगभंग आंदोलन

शक्तीमान संघटना

होमरूल लीग क्रांती

जन जागृती चेतना…! ५

*

काल गणना पद्धती

आलें टिळक पंचांग

गणिताचे अभ्यासक

दृष्टी शोधक अथांग…! ६

*

ग्रंथ गीतारहस्याने

केला जागृत भारत

ओरायन’ ’आर्क्टिक ने

वैचारिक मशागत….! ७

*

सुरू केसरी मराठा

वृत्तपत्र संस्थापक

हिंदू मुस्लिम ऐक्याचे

परखड संपादक…! ८

*

लावी ब्रिटिशांना घोर

लोकमान्य ही लेखणी

डोके ठेवा रे ठिकाणी

दिला इशारा अग्रणी….! ९

*

तन मन धन दिले

देशसेवा अलौकिक

देशभक्त पत्रकार

ग्रंथ निर्मिती मौलिक…! १०

*

लखनऊ कराराने

एकसंध केला देश

लोकमान्य टिळकांचा

देशभक्ती हाची वेष…! ११

*

उत्सवाची परंपरा

सुरू शिवजन्मोत्सव

गावोगावी गणपती

भक्ती शक्ती महोत्सव…! १२

*

कार्य शैक्षणिक थोर

केला शिक्षण प्रसार

संस्थापक प्रशालेचे

केला ज्ञानाचा प्रचार..! १३

*

लाल बाल पाल यांनी

घडविला इतिहास

दुष्काळात टिळकांनी

पुरविला मुखी घास…! १४

*

वैचारिक मतभेद

वाद आगरकरांशी

ध्येयवादी विचारांनी

लढा दिला ब्रिटिशांशी…! १५

*

गाणी व्याख्यान मेळ्यांनी

जोपासली लोककला

लोकोत्तर कार्य केले

पत्रकार योगी भला…! १६

*

सरदार गृहामध्ये

स्फूर्ती देवतेचे रूप

आज त्यांची पुण्यतिथी

तेजाळल देहधूप…! १७

*

लोकमान्य टिळकांचा

शब्द शब्द अंतरात

ज्ञानयज्ञ स्वराज्याचा

प्रज्वलित दिगंतात…! १८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “लाडकी बायको…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “लाडकी बायको…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

.. वसुधा  पुस बरं ते डोळे.. तुला असं रडताना पाहून मला खूप यातना होतात गं…खरंच मला खूप वाईट वाटतयं मी तुझ्याशी लग्न केल्यापासून नीट वागायला हवं होतं.. सतत तुला मी रागावत होतो, चिडत होतो..माझं तुला कधीच काहीही पटत नव्हतचं… त्यात तुझे माहेरचे ते सगळे दिड शहाणे माझ्यापासून काडीमोड घे म्हणून सांगत होते.. मी एव्हढा मानसिक त्रास देत असताना.. तरीही तू मला सोबत राहिलीस.. जे मी मिळवून आणत होतो त्यात तूच समाधानी राहत होतीस नि मला अर्धपोटी ठेवत होतीस.. काटकसरीचा संसाराचे धडे मला गिरवायला दिलेस पण तू मात्र ऐषआरामी दिवस काढलेस.. मला सारं दिसत होतं, कळत होतं.. पण मी त्यावरून तुला साधं काही न विचारता भांडण तंटा, वादविवाद करत राहिलो तुझ्याशी… तुम्ही माझी हौसमौज भागविणार नाही तर मग शेजारचे जोशी, मराठे येणार काय मला हवं नको विचारायला असं जेव्हा तू डोळयात पाणी आणून विचारत असायचीस तेव्हा माझी तळपायाची आग मस्तकात जायची… असं असूनही तुझं माझ्यावर खरं प्रेम करत राहिलीस?.. आणि मी शंका घेत घेत खंगत गेलो… अशक्त झालो.. माझ्या सेवा करण्याच्या नावाखाली तुझा चंगळवाद अधिकच फुलून येत होता… मी तुला एकदा चांगलेच धारेवर धरले देखिल.. पैसै काही झाडाला लागत नसतात गं.. निदान मिळकत पाहून तरी खर्च, उधळपट्टी करत जा म्हणून त्यावर तू फणकाऱ्यानं म्हणालीस.. तुमच्या पैश्याची मला आता गरजच नाही  माझ्या खात्यात आता दरमहा  1500/रुपये लाडकी बहीण योजनेमार्फत जमा होत आहेत, शिवाय एस. टी. चं अर्ध तिकिटात माहेराला जाता येतेयं, शिलाई मशीन आता फुकटात घरी येणार आहे, मुलींच्या शाळेची फी माफ झाली आहे… वेळ पडलीच तर मी ब्युटी पार्लर चा छोटा व्यवसाय महिला स्टार्टअप मधून सुरू करेन.. आता नवऱ्याच्या मिजाशीवर जगण्याचे दिवस कधीच संपले.. तेव्हा तुम्ही आता तुमचं तेव्हढं बघा…. तुझ्या त्या सरकारला बरी या लाडक्या बहिणीची त्या बदमाष भावाची काळजी घेता आली.. आणि आम्ही नवऱ्यानं काय घोडं मारलं होतं त्या सरकारचं… आमच्याच पगारातून तो प्रोफेशनल टॅक्स, इन्कम टॅक्स, भरमसाठ कापून घेऊन, आयजीच्या जीवावर बायजी उदार झाल्याचा सरकार आव आणतयं अशी सरकारी योजना पाहून माझा संताप संताप झाला आहे… आता मी देखील सरकारनं लाडकी बायको हि योजना कधी आणतील याचीच वाट बघून राहिलो आहे… ती योजना आली कि मग मी पण तुझ्या मिजाशीवर, तालावर नाचायला पळभरही थांबणार नाही… मग बसं तू तुझ्या माहेरीच सगळ्या लाडक्या योजनांच्या राशीत लोळत… आणि मी आणि सरकारी योजनेतील लाडकी बायको घरी आणून  तिच्या बरोबर सुखाने संसार सुरू करतो… 

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 143 ☆ लघुकथा – मम्माँज़ स्पेशल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मम्माँज़ स्पेशल। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 143 ☆

☆ लघुकथा – मम्माँज़ स्पेशल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मम्माँ! आपने हमारे लिए सत्तू क्यों भेज दिया ?

गाँव से लाए थे, थोड़ा तेरे लिए भी भेज दिया ऋतु, अच्छा होता है, गर्मी में पेट में ठंडक देता है। क्यों, क्या हुआ ?

माँ! क्या जरूरत है गाँव से चीजें ढ़ोकर लाने की? ऑनलाईन ऑर्डर करो घर बैठे सब मिल जाता है आजकल। बिना मतलब गाँव से इतना बोझा उठाकर लाओ।

अरे, अपने गाँव की पड़ोस की काकी ने बड़े प्यार से खुद बनाकर दिया है तेरे लिए। घर के बने सत्तू की बात ही कुछ और है। ये कंपनी वाले पता नहीं क्या मिलावट करते होंगे उसमें।

 सारी दुनिया ऑनलाईन शॉपिंग कर रही है। कंपनी वाले आपको ही खराब चीजें भेजेंगे? और अच्छा नहीं हुआ तो वापस कर दो, पैसे वापस आ जाते हैं।

‘अच्छा, ऐसा भी होता है क्या? हमें नहीं पता था। हमने तो अपनी माँ को ऐसे ही करते देखा था बेटा!। जब साल – दो साल में मायके जाना होता था, माँ वापसी के समय न जाने कितनी चीजें साथ में बाँध देती थी। लड्डू, मठरी, बेसन के सेव, गुड़, सत्तू और भी बहुत कुछ। आजकल तुम लोग हर चीज के लिए यही कहते रहते हो कि सब ऑनलाईन मिल जाता है, ऑर्डर कर लेते हैं। खरीद लो भाई सब ऑनलाईन, अब नहीं भेजेंगे कुछ। क्या करें माँ का दिल है ना!’ – सरोज ने झुंझलाते हुए कहा।

‘अरे! गुस्सा मत होईए, हम तो इसलिए कह रहे थे कि ट्रेन से सामान लाने में आपको परेशानी होती होगी, सामान बढ़ जाता है, सँभालना मुश्किल होता है और कोई बात नहीं है। ‘

‘हम पुरानी पीढ़ी के हैं बेटा। अब तुम लोग ऑनलाईन और गूगल युग के हो। जो चाहिए घर बैठे मँगा लो और जो कुछ पूछना हो तो गूगल गुरु हैं तुम्हारे पास, हमारे जैसों की क्या जरूरत?’ – सरोज के स्वर में थोड़ी मायूसी थी।

‘अच्छा छोड़ि‌ए यह सब, यह बताइए आपने हमें अपने हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू क्यों नहीं भेजे’ – ऋतु ने माँ को मनाते हुए कहा।

‘क्यों बेसन के लड्डू ऑनलाईन नहीं मिलते क्या, वह भी ऑर्डर कर लो, हम क्यों मेहनत करें’ — सरोज थोड़ी नाराजगी जताते हुए बोली।

‘हमें पता था गुस्से में आप यही बोलेंगी’ – ऋतु ने हँसते हुए कहा। ‘हमें कुछ नहीं पता माँ, आपके बनाए लड्डू खाने का बहुत मन हो रहा है। आपके हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू इतने स्वादिष्ट होते हैं कि नाम लेते ही मुँह में पानी आ जाता है। हॉस्टल में लड़कियों से छुपाकर रखना पड़ता था, नहीं तो एक दिन में ही सब खत्म। ‘मम्माँज़ स्पेशल लड्डू’ आपके सिवाय दुनिया में कोई भी नहीं बना सकता मम्माँ ! ’

‘अच्छा – अच्छा, अब माँ को मक्खन लगाना बंद कर, भेज दूँगी बेसन के लड्डू’ और दोनों फोन पर जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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