मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 37 – एकटी…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “एकटी…! ”।  यह अकेली चिड़िया जीवन के  कटु सत्य को  अकेली अनुभव करती है , साथ ही अपने बच्चों को स्वतंत्र आकाश में उड़ते देखकर उतनी ही प्रसन्न भी होती है। यह कविता पढ़ कर आप निश्चित ही विचार करेंगे, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है । आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #37☆ 

☆ एकटी…! ☆ 

आली बघ चिऊताई आज माझ्या परसात

दाणे टिपुनिया नेई पिल्लांसाठी घरट्यात…!

 

पिल्लासाठी घरट्यात सदा तिचे येणे जाणे

घास मायेचा भरवी चोचीतून मोती दाणे…!

 

चोचीतून मोतीदाणे पिल्ले रोज टिपायची

झाली लहानाची मोठी आस आता उडण्याची…!

 

आस आता उडण्याची आकाशात फिरण्याची

झाले गगन ठेंगणे पिल्ले उडाली आकाशी…!

 

पिल्ले उडाली आकाशी नवे जग शोधायला

एकटीच जगे चिऊ घरपण जपायला…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 38 – मनाएंगे कैसे होली…… ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की  हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती  होली पर्व पर एक विचारणीय कविता  “मनाएंगे कैसे होली……। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 38 ☆

☆ मनाएंगे कैसे होली…… ☆  

 

मुंह से निकल रही है आह

नीति पथ हुये जा रहे स्याह

शील नीलाम हो रहे हैं

सुबह और शाम हो रहे हैं

हर तरफ से आशंकायें

कहां कब क्या कुछ हो जाये

और ऐसे मे फिर से आज

पहिन कर मंहगाई का ताज

साथ ले धूर्तों की टोली

आ गई सजधज कर होली…..

 

सभी पांडव बैठे हैं मौन

विदुर धृतराष्ट्र भिष्म गुरू द्रोण

अनेकों द्रोपदियों की लाज

लूटते हैं दुशासन आज

कृष्ण, मथुरा में सोये हैं

मधुर सपनों में खोये है

टेर, लिखकर पहुंचाई है

नहीं कोंई सुनवाई है

बहन है भी तो मुंहबोली

आ गई सजधज कर होली……

 

हो रहे हैं, अजीब गठजोड़

मची है,  एक दूजे में होड़

कुर्सियों पर, जो बैठे हैं

नशे में, ऐंठे -ऐंठे है,

चोर,सब मौसेरे भाई

अंधेरी है,गहरी खाई

मजूर-मेहनतकश है बेहाल

प्रपंचों का फैला है जाल,

पुते कौए, बदरंगी ये

कोयलों की बोले बोली

आ गई सज-धज कर होली…..

 

भ्रष्ट फागें चलती है रोज

सजीव नव रागिनियों की खोज

चापलूसी के लगा गुलाल

हो रहे हैं कुछ मालामाल

रंग का कहीं अलग उन्माद

कहीं छाया घर में अवसाद

मनाए वे कैसे होली

नहीं है रंग अबीर रोली

यहाँ फाकों की फागें है

फटी जर्जर तन पर चोली

आ गई सजधज कर होली…..

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #40 ☆ नेह का नवांकुरण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 40 – नेह का नवांकुरण

क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य
अपने भीतर देखो  रंगों का इंद्रधनुष।

जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में  हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।

फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत:  दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।

नवांकुरण भीतर भी होना चाहिए। शब्दों को  वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर  जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।

प्रेम ना बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा, परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय।

बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीष देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..! खेलें होली, मिलें होली…!..शुभ होली।

©  संजय भारद्वाज

धूलिवंदन, प्रात: 9:33 बजे, मंगलवार 10 मार्च 2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 40 – प्रेम ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनके चौदह वर्ष की आयु से प्रारम्भ साहित्यिक यात्रा के दौरान उनके साहित्य  के   ‘वाङमय चौर्य’  के  कटु अनुभव पर आधारित एक भावप्रवण कविता   “प्रेम”.  सुश्री प्रभा जी  का यह  कविता सात्विक प्रेम पर आधारित अतिसुन्दर कविता है। इस अतिसुन्दर  एवं भावप्रवण  कविता के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 40 ☆

☆  प्रेम ☆ 

 

साजणाची याद आली

प्रेमवेडी हाक आली

 

प्रेमरोगी कोण आहे?

कोण आहे हा सवाली ?

 

स्वास्थ्य, स्फूर्ती, तंदुरूस्ती

प्रेम हे आरोग्यशाली

 

प्रेम लाभे प्रेमवंता

प्रेमिकांचा देव वाली

 

प्रेम केले राधिकेने

क्षेम कृष्णाच्या हवाली

 

प्रेम मीरा, प्रेम राधा

प्रेम भक्ती अन भुपाळी

 

प्रेम रंगी  रंगताना

नित्य होळी अन दिवाळी

 

भाग्य त्यांचे थोर आहे

प्रेम ज्यांच्या हो कपाळी

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 19 – महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस”। )

☆ गांधी चर्चा # 19 – महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस

 

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस 1938 में हरिपुरा में हुये काँग्रेस अधिवेशन में निर्विरोध अध्यक्ष चुने गये। वे   भी गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत से पूर्णत: सहमत न थे। त्रिपुरी (जबलपुर)  में अगले वर्ष 1939 में हुये काँग्रेस अधिवेशन में वे गांधीजी के प्रत्याक्षी पट्टाभी सीतारम्मइया को हरा कर पुनः अध्यक्ष चुने गये,  जिसे गांधीजी ने अपनी व्यक्तिगत हार माना। स्वतंत्रता का आंदोलन कमज़ोर न पड़ जाय इस भावना से वशीभूत हो कर सुभाष चन्द्र बोस ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और काँग्रेस के अंदर ही फारवर्ड ब्लाक की स्थापना कर डाली। श्री राकेश कुमार पालीवाल, भारतीय राजस्व सेवा से चयनित आयकर विभाग के उच्च अधिकारी हैं व गांधीजी के विचारों के अध्येता हैं, ने अपनी पुस्तक “गांधी जीवन और विचार” में आजाद हिन्द फौज और गांधी सुभाष संबंध पर प्रकाश डाला है वे लिखते हैं- “ गांधी और सुभाष चन्द्र बोस के संबंधो को कुछ लोग अतिरेक के साथ प्रस्तुत कर एक दूसरे के धुर विरोधी की तरह चित्रित कर भ्रम फैलाते रहे हैं। यह सच है कि  गांधी और सुभाष के बीच कुछ वैचारिक मतभेद थे लेकिन यह मतभेद आज़ादी के आंदोलन को किस प्रकार आगे बढ़ाया जाये उसके तौर तरीकों को लेकर था जिसमे एक दूसरे के प्रति लेशमात्र भी द्वेष नही था अपितु दोनों के मध्य पिता पुत्र जैसी आत्मीयता थी। गांधी विचार की अध्येता सुजाता चौधरी ने ‘गांधी और सुभाष’ कृति में कई ऐतिहासिक तथ्यों एवं दस्तावेजों के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि सुभाष चन्द्र बोस गांधी की बहुत इज्जत करते थे और गांधी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति स्नेह भाव रखते थे।“

श्री राकेश कुमार पालीवाल  आगे लिखते हैं “जहाँ तक गांधी और सुभाष के मध्य मतभेद का प्रश्न है उसका प्रमुख कारण था कि गांधी आज़ादी के आंदोलन में न हिंसक युद्ध (आज़ाद हिन्द फौज) के समर्थक थे और न जर्मनी और जापान जैसी फासिस्ट ताकतों का सहयोग चाहते थे जबकि सुभाष चन्द्र बोस अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के दुश्मनों का समर्थन लेने और आज़ाद हिन्द फौज के द्वारा सशस्त्र संघर्ष के प्रबल पक्षधर थे। गांधी के प्रति सुभाष चन्द्र बोस का आदर इस तथ्य से भी प्रमाणित होता है कि उन्होने आज़ाद हिन्द फौज की पहली टुकड़ी का नाम गांधी ब्रिगेड रखा था और अपने सिपाहियों को कहा था कि देश की आज़ादी के बाद हम सब गांधी के नेतृत्व में समाज की सेवाकरेंगे।“

आज़ाद हिन्द फौज की हार के बाद जब उसके सैन्य अधिकारियों कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह तथा मेजर जनरल शाहनवाज खान पर लालकिले में मुक़दमा चला तो तेज बहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, कैलाश नाथ काटजू जैसे काँग्रेस के नेताओं ने काला चोगा पहन अपने इन देश भक्त साथियों जिनसे उनके तीक्ष्ण वैचारिक मतभेद थे कि सफल पैरवी करी। यह सब गांधीजी की अनुमति से ही हुआ होगा और गांधीजी का यह निर्णय उस जनमत का सम्मान था जिसे देश की आज़ादी के इन दीवानों से अगाध प्रेम था।

रूद्रांक्षु मुखर्जी ने  पंडित जवाहरलाल नेहरु और नेताजी सुभाष के आपसी संबंधों को लेकर एक पुस्तक लिखी है नेहरु बनाम सुभाष। इसमें भी अक्सर उन बातों की चर्चा है जिसमे नेताजी और महात्माजी के बीच मतभेदों पर प्रकाश पड़ता है। नेताजी शुरू से फ़ौजी अनुशासन के प्रेमी थे 1928 में कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष की अगवानी में फौजी वेशभूषा में की थी जिसे गांधीजी ने नापसंद किया था।

‘अंतिम झांकी’ में उस डायरी की बातें दर्ज हैं जिसे महात्मागांधी के चचेरे भाई की पौत्री मनु बेन ने जनवरी 1948 के दौरान लिखा और इस डायरी में दर्ज तथ्यों को गांधी जी नियमित रूप से जांचते व सही करते थे। इस प्रकार यह डायरी महात्मागांधी जो  तब बिरला भवन नई दिल्ली में ठहरे थे कि दैनिक कार्यक्रम का सच्चा विवरण देती है। गांधी जी रोजाना शाम को सर्व धर्म प्रार्थना सभा में लोगों से चर्चा करते थे‌ ।नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जन्मदिवस की याद दिलाने पर गांधीजी ने 23 जनवरी 1948 को निम्न विचार व्यक्त किए।

“शैलन भाई ने खबर दी कि आज नेताजी (सुभाष बाबू ) का जन्म दिवस है, इसलिए बापू प्रार्थना में उनके बारे में कुछ कहें।”

बापू ने कहा: “आज सुभाष बोस का जन्म दिवस है। यद्यपि मैं किसी का जन्म दिवस कदाचित ही याद रखता हूं, फिर भी आज मुझे इसकी याद करायी गई, इसलिए खुश हूं।”

“सुभाष बाबू हिंसा के पुजारी रहे और मैं अहिंसा का! लेकिन उससे क्या? तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है:

‘संत हंस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकारी’

हंस जैसे पानी छोड़ दूध पी जाता है, वैसे ही मानव में गुण दोष होते ही हैं; पर हमें तो गुणों का पुजारी बनना चाहिए। सुभाष बाबू कितने देशभक्त थे, इसका वर्णन करना असामयिक होगा। उन्होंने देश के लिए जिंदगी का जुआं खेलकर दिखा दिया। कितनी बड़ी सेना खड़ी की और वह भी किसी तरह के जात-पात के भेदभाव के बगैर! उनकी सेना में प्रांतीय भेदभाव भी नहीं थि और न रंगभेद ही था। स्वयं सेनापति होने के बावजूद यह बात न थी कि स्वयं विशेष सुख सुविधा होगें और दूसरे कम। सुभाष बाबू सर्व धर्म समभाव रखते थे, इसी कारण उन्होंने सारे देश के भाई बहनों के हृदय जीत लिए थे। स्वयं निर्धारित काम पूरा किया। उनके इन गुणों को याद रखकर हम उन्हें अपने जीवन में उतारें, यही उनकी स्थायी स्मृति होगी।”

अंत में मैं यही निवेदन करूँगा कि हम अक्सर ऐसे विवादों को जन्म देते हैं जिनकी तथ्य परक  जानकारी हमे होती ही नहीं है। प्राय: हम सुनी सुनाई बातों पर कोई भी धारणा बना लेते है व वाद विवाद में उलझ जाते हैं। ऐसे वाद विवादों की शुरुआत व  अंत कटुता से भरा होता है जिसके हिमायती ना तो गरम दल या  नरम दल के कांग्रेसी नेता थे और नाही भगत सिंह जैसे अनेक क्रांतिकारी, गांधीजी तो कटुता को भी एक प्रकार हिंसा मानते थे और ऐसे वाद विवादों के बिल्कुल भी पक्षधर न थे।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 17 ☆ लघुकथा – एक नारियल की खातिर ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत विचारणीय , मार्मिक एवं भावुक लघुकथा  “एक नारियल की खातिर। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा नर्मदा तट पर बसे  उन परिवारों के जीवन का कटु सत्य बताती है जो भुखमरी की कगार पर जी रहे हैं साथ ही बच्चे  जो  अपना जीवन दांव पर लगा कर  चन्द   सिक्कों या नारियल के लिए  गहरी  नदी  में कूद जाते हैं। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 17 ☆

☆ लघुकथा – एक नारियल की खातिर ☆

 

नर्मदा की यात्रा के लिए आसपास की खोज के अन्तर्गत  शाला के विद्यार्थी ले जाये गए। सभी ने आसपास की खोज की। बहुत बातें पढ़ी लिखी और कुछ जानी पहचानी।

बहुत सारे बच्चे नदी तट पर खड़े थे।  तट से या नाव से पानी मे कूदते बच्चे आसानी से देखे जा सकते हैं। उनके शरीर पर मैले कुचैले बदबूदार कपड़े थे। वे पानी में तब छलांग  लगाते  जब कोई सिक्के डालता। सिक्के निकालने की होड़ सी लग जाती। बहुत सारे ऐसे बच्चे वहाँ यही काम करते बल्कि यूँ कहे कि उनका घर इन्हीं पैसो से चल रहा था।

किसी ने नारियल  पानी में उछाल दिया।  अचानक बहुत सारे गरीब बच्चे एक साथ वहां नदी किनारे आ गए और उस नारियल को पकड़ने दौड़ पड़े। इस ऊहापोह मे नारियल एक पतले दुबले से लड़के के हाथ लग गया। सभी बच्चे उससे खींचा तानी करने लगे, पर उस बच्चे ने वह नारियल न छोड़ा और बडे़ बड़े कदमो को पानी में मार बाहर निकल दौड़ने लगा। वही बच्चे जो नदी में थे, बाहर उसे घेर कर बाँस के बड़े बड़े लटठ लेकर मारने खड़े हो गये। वहाँ  यह बात हर रोज होती थी। वे नारियल छीनने लगे पर बच्चे ने कसकर नारियल पकड़ रखा था।

सो वे सभी उसे मारने लगे।  वह बहुत  मार खाता रहा पर नारियल न छोड़ा। किसी ने पास के तम्बु मे रहने वाली उसकी माँ को खबर दी। माँ दौड़ी दौड़ी उन बच्चों से अपने बच्चे को  अलग ले आई और रो रोकर कहने लगी- “क्यों कूदा नदी मे नारियल की खातिर? क्या होता यदि हम आज और भूखे रहते?”

बच्चा पिटने के कारण दर्द से कराह रहा था।  उसनें फिर भी नजर उठा देखा, कही वह बच्चे तो नहीं और फिर उसने पानी से उठाया नारियल अपनी माँ को दे चैन की साँस ली और अचेत हो गया। पर उसके चेहरे पर चिंता के भाव की जगह शान्ति के भाव थे और माँ नारियल हाथ मे ले सोच रही थी, आज मेरे  बच्चे भूखे न सोयेंगे।  कुछ तो पेट भरेगा उनका। और बेटे को गले लगा फफक फफक कर रो उठी।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 30 ☆ मुसाफिर ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “ मुसाफिर ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 30☆

☆ मुसाफिर

ज़्यादा, ज़्यादा और ज़्यादा

बारिश के इस मौसम में

मैं तुम्हें खोना भी नहीं चाहती,

पर तुमने तो जाने की

ठान ही ली है, है ना?

 

चले जाओ!

न ही तुम्हें मैं आवाज़ दूँगी,

न तुमसे रुकने की

कोई नम्र गुजारिश करूंगी

और न ही कोई हठ करूंगी…

आखिर जाने वाले को

रोका भी नहीं जा सकता ना?

 

सुनो ए आफताब!

जा रहे हो तुम

अपनी रज़ामंदी से,

ज़रूरी नहीं

कि जब तुम वापस आओ

मैं तुम्हारी बाहों में सिमट जाऊं,

आखिर मेरी भी तो कोई मर्ज़ी है, है ना?

 

जब तुम वापस आओगे

देखती रहूँगी तुम्हें आसमान पर,

तुम बस आते और जाते रहना

जैसे किसी राह पर मिले

हम कोई मुसाफ़िर थे,

और भूल गए एक दूसरे को

कुछ पल साथ चलकर!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 29 ☆ काव्य संग्रह – गीत गुंजन – श्री ओम अग्रवाल बबुआ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  कवि ओम अग्रवाल बबुआ जी  के  काव्य  संग्रह  “गीत गुंजन” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 29 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा –काव्य   संग्रह   – गीत गुंजन

पुस्तक –  ( काव्य – संग्रह ) गीत गुंजन

लेखक – कवि ओम अग्रवाल बबुआ

प्रकाशक –प्रभा श्री पब्लिकेशन , वाराणसी

 मूल्य – २५० रु, पृष्ठ ११६, हार्ड बाउंड
 ☆ काव्य   संग्रह   – गीत गुंजन  – श्री  ओम अग्रवाल बबुआ –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

गीत , कविता मनोभावी अभिव्यक्ति की विधा है, जो स्वयं रचनाकार को तथा पाठक व श्रोता को हार्दिक आनन्द प्रदान करती है.

सामान्यतः फेसबुक, व्हाट्सअप को गंभीर साहित्य का विरोधी माना जाता है, किन्तु स्वयं कवि ओम अग्रवाल बबुआ ने अपनी बात में उल्लेख किया है कि उन्हें इन नवाचारी संसाधनो से कवितायें लिखने में गति मिली व उसकी परिणिति ही उनकी यह प्रथम कृति है.

किताब में धार्मिक भावना की रचनायें जैसे गणेश वंदना, सरस्वती वन्दना, कृष्ण स्तुतियां, दोहे, हास्य रचना मेरी औकात, तो स्त्री विमर्श की कवितायें नारी, बेटियां, प्यार हो तुम, प्रेम गीत, आदि भी हैं.

पहली किताब का अल्हड़ उत्साह, रचनाओ में परिलक्षित हो रहा है, जैसे यह पुस्तक उनकी डायरी का प्रकाशित रूपांतरण हो.

अगली पुस्तको में कवि ओम अग्रवाल बबुआ जी से और भी गंभीर साहित्य अपेक्षित है.

पुस्तक से चार पंक्तियां पढ़िये ..

आशाओ के दर्पण में

पावन पुण्य समर्पण में

जब दूर कहीं वे अपने हों

जब आंखों में सपने हों

तब नींद भाग सी जाती है

जब याद तुम्हारी आती है.

रचनायें आनन्द लेने योग्य हैं.

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 39 – होली पर्व विशेष – रंग गुलाबी बरसे बदरिया ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  होली के पर्व पर  होली की मस्ती में सराबोर एक श्रृंगारिक गीत  रंग गुलाबी बरसे बदरिया। इस अतिसुन्दर गीत के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 39☆

☆ होली पर्व विशेष  –  रंग गुलाबी बरसे बदरिया

 

रंग गुलाबी बरसे बदरिया

पी के मिलन को तरसे अखियां

 

इधर उधर से नजर चुरा  के

तुम कब मिलोगे हमसे सांवरिया

 

घर में मन लगता नहीं है

बिन देखे चैन पड़ता नहीं है

 

चुपके से मिलने का कोई बहाना

लिखकर कब अब भेजोगे पतिया

 

सूना सूना है मेरे घर का आंगन

मैय्या बाबुल  न भाई बहना

 

आओगे कब राह देख रही सजना

फागुन की होली का करके बहाना

 

जब तुम आओगे नैनों में कजरा

सजा के रखूंगी बालों में गजरा

 

अपने ही रंग में रंग लूं सांवरिया

रंग गुलाबी बरसे बदरिया

 

रुत है मिलन की मेरे सांवरिया

गुजिया पपडी खोये की मिठाइयां

 

होश गवा दे  भांग की ठंडाईया

अपने हाथों से पिलाऊगी सैंया

 

रंग गुलाबी बरसे बदरिया

अपने पिया की मै तो बांवरिया

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 41 ☆ होळी पर्व विशेष – सज्ञान रंग ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “सज्ञान रंग ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 41 ☆

☆ होळी पर्व विशेष – सज्ञान रंग ☆

रंग पर्व होळीच्या सर्वांना हार्दिक शुभेच्छा ! 

 

होळीत राग रुसवे जावे जळून काही

उजळो प्रकाश आता येथे दिशांस दाही

 

रंगात कोरड्या मी भिजणार आज नाही

रंगात ओल ज्या ते गालास लाव दोन्ही

 

ठेवीन हात धरुनी हातात मीच क्षणभर

तो स्पर्श मग स्मृतींचा राहो सदैव देही

 

छळतील डाग काही सोसेल मी तयांना

हे रंग जीवनाचे नुसते नको प्रवाही

 

ते रंग कालचे तर बालीश फार होते

सज्ञान रंग झाला सज्ञान आज मीही

 

जातीत वाटलेले आहेत रंग जे जे

ते रंग टाळण्याची मज पाहिजेल ग्वाही

 

ते पावसात भिजले आकाश सप्तरंगी

त्यातील रंग मजवर उधळून टाक तूही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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