मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 9 ☆ तू तेजस्विनी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी कविता तू तेजस्विनी जो स्त्री जीवन पर आधारित महान महिलाओं को स्मरण कराती हुई एक अद्भुत कविता है.  श्रीमती उर्मिला जी  की सुन्दर कविता के माध्यम से उन समस्त स्त्री शक्तियों को नमन  एवं श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 9 ☆

 

☆ तू तेजस्विनी ☆

(विषय :- स्त्री जीवन)

 

तू तेजस्विनी माऊलींची मुक्ताबाई !

तू शूर शिवरायांची आई जिजाबाई !

तू कोल्हापूरची राणी पराक्रमी ताराबाई !

तू वीर शंभूराजे ची राजकुशल येसूबाई !

तू रायगडाच्या बुरुजावरची हिरकणी !

तू देशाची प्रथम प्राध्यापिका क्रांतीज्योती फुले सावित्रीबाई !

तू भगिनी निवेदिता विविकानंद बहिणाई !

तू आदीवासींची प्रथम शिक्षिका वाघ अनुताई !

तू कवयित्री बहिणाबाई, शेळके शांताबाई !

तू कुसुम देव राज्यातील पहिली महिला तडफदार फौजदार !

तू लेफ्टनंट साताऱ्याची जिद्दी स्वाती महाडीक !

तू आदीवासींची डॉक्टर राणी बंग व आमटे मंदाकिनी !

तू चपलगामिनी महाराष्ट्राची माणदेशी ललिता बाबर !

तू डोक्यावर पाटे-वरवंटे विकून झालेली पोलीस उपनिरीक्षक पद्मशिला तिरपुडे !

तू प्रसिद्ध इन्फोसिस कंपनीची उद्यमशीला सुधा मूर्ती !!

 

सलाम या नारी शक्तीला

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-४-१०-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 19 ☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की  एक आध्यात्मिक  कविता/गीत   “तेरे दर्शन पाऊं”.  डॉ  मुक्ता जी के इस  रचना में  गीत का सार भी  कहीं न  कहीं इस पंक्ति “मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं “ में निहित है.) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 19 ☆

 

☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆

 

मनमंदिर की जोत जगा कर तेरे दर्शन पाऊं

तुम ही बता दो मेरे भगवान कैसे तुझे रिझाऊं

मन मंदिर……

 

पूजा-विधि मैं नहीं जानती, मन-मन तुझे मनाऊं

जनम-जनम की  दासी  हूं  मैं, तेरे ही गुण गाऊं

मन मंदिर……

 

मेरी अखियां रिमझिम बरसें, कैसे दर्शन पाऊं

कब रे  मिलोगे, गुरुवर नाम की  महिमा गाऊं

मन मंदिर……

 

जीवन नैया ले हिचकोले, पल-पल डरती जाऊं

बन जाओ तुम  ही खिवैया, बार-बार यही चाहूं

मन मंदिर…….

 

घोर अंधेरा राह न  सूझे, मन-मन  मैं घबराऊं

मन ही मन डरूं बापुरी, नाम की टेर  लगाऊं

मन मंदिर…….

 

सुबह से  सांझ हो  चली,  तुझे पुकार लगाऊं

मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं

मन मंदिर…….

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 17 ☆ व्यंग्य – मोहनी मन्त्र ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  समाज के एक विशिष्ट वर्ग के व्यक्तित्व का चरित्र चित्रण करता बेबाक व्यंग्य   “मोहिनी मंत्र ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 17  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ व्यंग्य – मोहिनी मंत्र

 

जब भगवान् विष्णु ने मोहनी रूप धारण किया तो असुर और देव सब उसे पाने के लिए   दौड़ पड़े यहाँ तक की विरागी नारद का भी मन डोल गया।

मै अभी कथा के किसी भाग तक पहुंची ही थी कि मेरा ध्यान आधुनिक काल के असुरों  देवों और नारदों की और चला गया।  .

कहते है जो मन में हो उसे कह डालना चाहिए और खास तौर पर स्त्रियों के लिए कहा जाता है की ज्यादा समय तक अपने पेट में रखती है तो गड़बड़ झाला हो जाता है यानि पेचिश की सम्भावना बढ़ जाती है।  मै नही चाहती की मै किसी गड़बड़ झाले में फसूं इसलिए उन सुंदर चरित्रों का वर्णन करने विवश हो रही हूँ जो मोहनी मन्त्र के मारे है।

अब इनमे कुछ तो ऐसे मिलेंगे जो ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत को चरितार्थ करते है। तो अब मै आपके कथा रस को भंग नहीं करूंगी सुनिए ….एक दिन सुबह-सुबह मुआ मोबाईल बज उठा। जैसे ही फोन उठाया एक मरदाना स्वर उभरा नमस्कार मैडम नमस्कार तो इतने लच्छेदार था भाई जलेबी इमरती क्या होगी मानो सारा मेवा मलाई मिश्रित सुनकर मै चौंक गई नमस्ते कहकर सोच में पड़ गई इतने मधुर कंठ से कोई कुंवारा ही बोल रहा है जिसे चाशनी को जरुरत है। उन्होंने बड़े ही अदब से कहा आप डॉ. साहिबा ही बोल रही है।  मैंने कहा जी कहिये क्या इलाज करवाना है वहां से स्वर फूटा अजी आप करेंगी तो हम जरुर करवा लेंगे। आपकी बात करने की अदा लाजबाव है जी।  हमसे रहा नही गया हमने कहा ‘न जान न पहचान मै तेरा मेहमान’। अरे मैम बात हो गई समझो जान पहचान हो गई मै मिलकर पहचान बनाने में विश्वास नही रखता।  आपका मधुर स्वाभाव है मिर्ची जैसा तीखापन आपको शोभा नही देता। आपके लेख की तारीफ करने के लिए फोन किया है मै भी एक लेखक हूँ। ओह्ह्ह मुझे लगा आप किसी कॉलेज के छात्र है। उनका कहना था अरे डियर आप अपना शिष्य बना लीजिये गुरु दक्षिणा मिलती रहेगी इतना सुनते ही हमने छपाक से फोन रख दिया।

अगले दिन सुबह फोन का स्वर कर्कश-सा जान पड रहा था नम्बर  बदला हुआ था। फोन उठाते ही वही स्वर राधे–राधे उभरा हमने भी राधे-राधे कहा और चुप हो गए फोन रखने लगे तो आवाज़ आई प्लीज मैडम कल की गुस्ताखी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, आपके शहर में आया हूँ, आपके दर्शन का अभिलाषी हूँ। हमारा दिमाग गरम हो रहा, पारा आसमान छू रहा है सुनिए दर्शन करना हो तो मंदिर जाइये।  भगवान के दर्शन करेंगे तो कुछ लाभ मिलेगा बुद्धि में सुधार होगा। अरे मैडम आपके दर्शन करके हम धन्य हो जायेंगे ज्ञान बुद्धि सबका विकास हो जायेगा। आप जनाब हद पार कर रहे है और अब आपसे यही कहना है कृपा करके रोज-रोज घंटी न घनघनाये जब मुझे आवश्यकता होगी तब आपको कॉल कर लेंगे राधे-राधे ……..

इन ज्ञानी ध्यानी लेखक के विषय में सारी पोल परत—दर-परत खुलती चली गई। वह चरित्र हीन नहीं है पर महिलाओं से फोन पर बाते करने का आशिक है उनका नम्बर  पत्र  पत्रिकाओं से पढ़कर उनकी रचनाओं की तारीफ करते है भले ही रचना पढ़ी न हो पर तारीफ इतनी की जैसे घोल कर पी लिया हो और बातों के मोहजाल में इस कदर फांस लेते है लगता है मोहनी मन्त्र जैसे यंत्र की कला में पारखी है।  जो इन जैसे लोगो को समझ नही पाती वे अपनी तारीफ सुनकर लट्टू हो जाती है और इन जैसे लोग अपना समय पास करने के लिए घंटों फोन पर बाते करते है और वह डियर, डार्लिंग, मोहना, मेरी राधा आदि शब्दों की वरमाला पहनाकर फोन से ही आश्वस्त हो जाते है।

इसी तरह एक और महाशय है जो तलाकशुदा शुदा है लेकिन अब दुबारा शादी नही कर रहे बस यहाँ वहां राधा को तलाश करते है वह भी नामी है पर फिर भी परवाह नही नाम की, एक दिन उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी गलती से ‘सांप के बिल में हाथ डाल’ दिया कहने लगे डियर तुम बहुत खूबसूरत हो, मिलती नहीं तो क्या कम से कम फोन पर ही जाम पिला दो। इतना कहना ही क्या था इन्हें बातों की इतनी पन्हैया लगाई की सारी आशिकी हवा हो गई।  अब लगता है कभी वो सामना करने की भी जुर्रत नही करेंगे लेकिन ऐसे लोगो को कोई फर्क नही पड़ता है।

एक और महाशय फेस बुक पर आये और चैट करने लगे वे कहते है आपकी फोटो इतनी सुंदर है तो आप कितनी सुंदर होगी। पता चला ये महाशय कवि है और कविता के माध्यम से इतनी तारीफ की वो तो फूली नही समाई और बोल पड़ी आपसे मिलने का मन है पहले तो ये महाशय खुश हुए फिर बोले नही मै किसी से मिलता नही यदि मै मिल लिया तो मेरा धर्म कर्म नष्ट हो जायेगा मै भ्रष्ट की श्रेणी में आ जाऊंगा।  तो सखी बोल पड़ी अच्छा बाते करने से धर्म कर्म नष्ट नही होता मोहनी मन्त्र के अदृश्य जाल में फांसते हो सबको जैसे कृष्ण भगवान ने तो अपने मोह पाश में सबको मोह कर वे भगवान् कहलाये आप अपने को कृष्ण न समझो युग बदल गया है।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 5 ☆ साल दर साल पुतले जलते गये ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “साल दर साल पुतले जलते गये ” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 5 ☆

☆  साल दर साल पुतले जलते गये ☆

साल दर साल पुतले जलते गये ।

फिर भी रावण नये पलते गये ।।

साल दर साल पुतले जलते गये ।

 

कद पुतलों का भी बढ़ाया गया ।

बिस्फोटक भी खूब मिलाया गया ।।

तमासा देख लोग मचलते गए ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

धन दौलत का यहां अब जोर है ।

यहां हर तरफ कलियुगी शोर है ।।

आदमी सच्चे हाथ मलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

बुराई पर अच्छाई की विजय ।

हो असत्य पर सदा सत्य की जय ।।

सोच यह लेकर हम चलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

क्रोध,कपट,कटुता का है प्रतीक ।

विकार सब रावण पर हैं सटीक ।।

ये अवगुण सारे अब बढ़ते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

तम अंदर का जब तक न मिटेगा ।

तब तलक अब न “संतोष”मिलेगा ।।

हम पुतले जला के बहलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

जो इस दौर में  भी संभलते गए ।

बेधड़क राह सच की चलते गए ।।

ऐसे भी हमें लोग मिलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प अठरावे # 18 ☆ प्रेमा तुझा रंग कसा? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज श्री विजय जी  का आलेख है  “प्रेमा तुझा रंग कसा?”। ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प अठरावे # 18 ☆

 

☆ प्रेमा तुझा रंग कसा? ☆

 

या विषयावर विचार प्रकट करताना, आठवतात ओळी, ‘पाण्या तुझा रंग कसा? ‘ एखाद्या व्यक्तीवर जीव जडतो. त्याचं शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सौंदर्य मनाला भुरळ घालत.  अशा व्यक्तीच्या सहवासात मन रमत.  आणि सुरू होतो प्रेमाचा प्रवास. प्रेम हे पाण्याइतकच जीवनावश्यक. जीवनदायी. प्रेमाचा अविष्कार नसेल तर,  आयुष्य निरर्थक, निरस, कंटाळवाणे होईल.

प्रेम दिसत नसले तरी,  त्याचे रंग अनुभुतीतून जाणवतात. कुणाच्या नजरेतून, कुणाच्या स्पर्शातून, कुणाच्या काळजीतून,  कुणाच्या आचारातून , कुणाच्या विचारातून, कुणाच्या सेवेतून, कुणाच्या त्यागातून, कुणाच्या आधारातून प्रेमरंगाच्या विविध छटा  अनुभवता येतात. असं हे रंगीबेरंगी प्रेम,  ह्रदयात जाणवत. . . आणि व्यक्त होताना कुणाचं तरी ह्रदय हेलावून टाकत. हा प्रवास  असतो. . सृजनाचा. माणूस माणसाशी जोडला जातो. परस्परात नातं निर्माण होत.  अनेक विध नात्यातून व्यक्त होणारे प्रेम माणसाला पदोपदी एकच संदेश देत. . . तो म्हणजे. . . ”तू माणूस आहेस …..”

एकदा का व्यक्तीला स्वत्वाची जाणिव झाली कि तो स्वतःवर, नात्यांवर,  देशावर प्रेम करायला लागतो. प्रेम हे एक रेशमी कुंपण  असते.  आपणच आपल्या आत्मीयतेने हा परीघ स्वतःभोवती निर्माण करतो. नात्यांचे भावबंध गुंफत  असताना, गुणदोषासकट आपण प्रेमाची बांधिलकी स्विकारतो. वेळ, काळ, पद, पत,  पैसा प्रतिष्ठा,  तन, मन, धन,  सारं काही पणाला लावतो. या प्रेमाच्या रंगात आपण स्वतः तर रंगतोच पण  इतरांनाही रंगीत करतो.

एकतर्फी प्रेम, आपुलकी, जिव्हाळा,  आदर, यांच्या पलीकडे जाऊन दुसर्‍या वर हक्क प्रस्थापित करू पहात. . . तेव्हा ते घातक ठरत. कुंपण शेत खात या म्हणीनुसार,  एकतर्फी प्रेम  आधी व्यक्ती, मग कुटुंब, मग समाज,  यांना गोत्यात  आणत. प्रेमाचा  उगम हा सरितेसारखा. प्रेम ह्ददयातून उत्पन्न होत असलं तरी त्याचं मूळ नी प्रिती च कूळ शोधायला जाऊ नये. ही सहज सुंदर तरल भावना,  आपले जीवन  उत्तरोत्तर  अधिकाधिक रंगतदार करत असते.

प्रेमाच्या विविध छटा, त्याचे पैलू, नानाविध  अविष्कार हे आपलेच जीवन रंग  असतात. जीवना तू असा रे कसा, याचा शोध घेतला की  आपोआपच या प्रेमरंगाच्या रंगान आपण निथळू लागतो. विविध ऋतूंप्रमाणे हे जीवन स्तर प्रत्येकाच्या आयुष्यात असतात. . फक्त ते अनुभवता  आले पाहिजेत. अडीच अक्षरात सामावलेलं हे प्रेम,  वळल तर सूत, नाही तर भूत. . या  म्हणीचा प्रत्यय देते. प्रेमाचा रंगीत  अविष्कार कुणाला मानव करतो. . तर कुणाला दानव. . . हे प्रेम रंग किती द्यायचे, किती घ्यायचे. . .  अन् कसे किती उधळायचे,  इतकेच फक्त कळले पाहिजे.

स्वतःचे मी पण हिरावून नेणारे हे प्रेम रंग  जात्यातच असतात मनोहारी. . . ! आईचे काळीज म्हणजे प्रेमरंगाचा वात्सल्य भाव.  आठवणींचा पसा पसरून संस्काराचा वसा वेचत माणूस घडविण्याचं कार्य हा प्रेमरंग करतो. बापाचं काळीज म्हणजे फणसाचा गरा. त्याची आठळी म्हणजे  अमृताचा कोष. . पण ती  आठळी सदैव बाजूला पडते. त्याच्या नजरेचा धाक वाटतो पण त्या धाकात त्याच्या लेकराचा घट घडत  असतो. बाप लेकाचे प्रेम हे सुई दोरा  सारखे. . फक्त जोडणीचा होरा चुकायला नको.

बहिण भावंडे यांच रेशमी कुंपण,  प्रेमाच्या गुंफणीत माया ममतेचं अलवार नातं निर्माण करत. ही गुफण मग सुटता सुटत नाही.  आज्जी, आजोबा काका, काकू, मामा, मामी, हे आधाराचे हात बनून जीवनात येतात.  अनेक संकटांवर लिलया मात केली जाते. ती याच हातांकरवी. सारे आप्तेष्ट, मित्र परिवार यांच्या प्रेमरंगाच्या अंतराला जाणवणारा दंगा हा वर्णनातीत आहे. . . तो ज्यान त्यान अनुभवण्यात जास्त रंगत आहे.

गुरू शिष्य नाते स्नेहभावाचे. पैलू विना हिर्‍याला चमक नाही तसे ज्ञानार्जन माणसाला ज्ञानी करते. सारे जग प्रेमाच्या रंगात रंगत जाताना  आपले अंतरंग फुलून येते. जाणिवा नेणिवा,  साद, प्रतिसाद, राग, लोभ, मोह, द्वेष, मत्सर, सारे षड्विकार प्रेमरंगाला आपापल्या जाळ्यात ओढू पहातात. हे जीवनरंग अनुभवताना  काळजाची भाषा  उमजायला हवी.

या दुनियेत वावरताना  माणूस माणसाशी विविध प्रकारचे नातेसंबंध निर्माण करतो. ही स्नेहमैत्री ह्रदयापासून  ह्रदयापर्यत प्रवास करते यातूनच प्रेमाची देवाण घेवाण होते.  माणुसकीचा स्पर्श  आणि समाधानी हर्ष ज्या नात्यातून जाणवतो तिथे प्रेम साकारते.  आपले अस्तित्व टिकवून ठेवते.  स्वतः घडते आणि  इतरांना घडवते.विविध भावना  आणि  जाणिवा नेणिवा यातून व्यक्त होणारे हे प्रेम स्वभाव दोषांवर मात करून  आपले  अस्तित्व टिकवून ठेवण्याची शिकवण देते.कौतुक, प्रोत्साहन, मार्गदर्शन  आणि  आभार यातून हे प्रेम वृद्धिंगत होत रहाते.

प्रेमरंगात रंगताना त्यात होणारी देव घेव प्रेमाचं यशापयश ठरवते. फक्त प्रेमात व्यवहार नसावा. रोख ठोक हिशोब नसावा. . . शेवटच्या श्वासापर्यत स्वतःवर आणि प्रिय व्यक्तीवर  विश्वास ठेवला की हे सारे प्रेमरंग अनुभवता येतात. हा जीवन रस,  हे जीवन सौख्य  अखेर पर्यंत  आपल्या सोबत  असत. त्याचा  अविरत प्रवास सुरू  असतो. . . .  अंतरातून  अंतराकडे . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 16 ☆ भीड़ के चेहरे ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “भीड़ के चेहरे ”.  लोकतंत्र में कुछ शब्द सदैव सामयिक होते हैं जैसे भीड़तंत्र और भीड़तंत्र का कोई चेहरा नहीं होता है. श्री विवेक रंजन जी ने ऐसे ही  एक शब्द ‘भीड़तंत्र’ को सफलतापूर्वक एक सकारात्मक दिशा दी है और इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 16 ☆ 

 

 ☆ भीड़ के चेहरे ☆

 

मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़तंत्र की रपट थी (कोई इस घटना को भीड़तंत्र का शिकार कहता है, तो कोई इसे मॉबलिंचिंग का), शक में घटित घटना बड़े बोल्ड लैटर में छपी थी,  मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे. चित्र देखकर मैने बिलौटे से पूछा, ये क्या ? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है.

चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है. मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी मेरे कहे पर, कभी नही देती. बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है. चूहो के पास संख्याबल है. इसलिये अब उनकी ही चलती है.

मैने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एण्ड आर्डर की कोशिश करते पोलिस इंस्पेक्टर को ही मार डाला. मैने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है,  एक वो परसाई  के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्होने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पोलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो बैठे. मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा ?

तभी मुझे एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा!  पर जाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर ! मैं जान बचाकर पलटकर भागा,मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे,जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये. भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा. भीड़ का कोई चेहरा नही होता. वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नही है पर होता जरूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है. हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है. भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं. इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियो की जरूरत होती है . इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला एंड आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर,गुम जाती है, तितर बितर हो जाती है,  फिर इस भीड़ को वीडीयो कैमरो के फुटेज में कितना भी ढ़ूंढ़ो कुछ खास मिलता नही है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के.

तब इस भीड़ को भीड़तंत्र कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. यह भीड़ गाय के कथित भक्तो को गाय से बड़ा बना देती है. ऐसी भीड़ के सामने इंसानियत और इंस्पेक्टर बेबस हो जाते है.

भीड़ एक और तरह की भी होती है. नेतृत्व की अनुयायी भीड़. यह भीड़ संवेदनशील होती है. इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है.गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी. दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है. ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है.  जरूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनो चेहरो से परिचित करवाया जाये.  गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति  बनी रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली  जुबान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये जरूरी है कि हम सुशिक्षित हो ताकि  कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में  न बदल सके.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #18 ☆ नसीहत ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “नसीहत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #18 ☆

 

☆ नसीहत ☆

 

थाइराइड से मोटी होती हुई बेटी को समझाते हुए मम्मी ने कहा, ” तू मेरी बात मान लें. तू रोज घुमने जाया कर. तेरे हाथपैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा. मगर, तू हमारी सलाह कहां मानती है ?” मां ने नाराजगी व्यक्त की.

” वाह मम्मी! आप ऐसा मत करा करो. आप तो हमेशा मुझे जलील करती रहती है.”

” अरे! मैं तूझे जलील कर रही हूं,” मम्मी ने चिढ़ कर कहा, ” तेरे भले के लिए कह रही हूं. इस से तेरे हाथ पैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा.”

” तब तो तू भी इस के साथ घूमने जाया कर,” बहुत देर से चुपचाप पत्नी के बात सुन रहे पति ने कहा तो पत्नी चिढ़ कर बोली, ” आप तो मेरे पीछे ही पड़े रहते हैं. आप को क्या पता है कि मैं नौकरी और घर का काम कैसे करती हूं. यह सब करकर के थक कर चूर हो जाती हूं. और आप है कि मेरी जान लेना चाहते हैं.”

” और मम्मी आप, मेरी जान लेना चाहती है,” जैसे ही बेटी ने मम्मी से कहा तो मम्मी झट से अपने पति से बोल पड़ी, ” आप तो जन्मजात मेरे दुश्मन है……. ”

बेटी कब चुप रहती. उस ने कहा, ” और मम्मी आप, मेरी दुश्मन है. मेरे ही पीछे पड़ी रहती है. आप को मेरे अलावा कोई कामधंधा नहीं है क्या ?”

यह सुन कर, पत्नी पराजय भाव से पति की ओर देख कर गुर्रा रही थी. पति खिसियाते हुए बोले, ” मैं तो तेरे भले के लिए बोल रहा था. तेरे हाथ पैर दुखते हैं वह घूमने से ठीक हो जाएंगे. कारण, घूमने से मांसपेशियों में लचक आती है. यही बात तो तू इसे समझा रही थी.”

इस पर पत्नी चिढ़ पड़ी, ” आप अपनी नसीहत अपने पास ही रखिए.” इस पर पति के मुंह से अचानक निकल गया,” आप खावे काकड़ी, दूसरे को दैवे आकड़ी,” और वे विजयभाव से मुस्करा दिए.

” क्या!” कहते हुए पत्नी की आँखों  से अंगार बरसने लगे. मानों वह बेटी और पति से पराजित हो गई हो.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 18 – माणसं…. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  क्या  वास्तव में  व्याकरण, शब्द, विराम चिन्हों की तरह ही होते हैं मनुष्य? यह प्रयोग निश्चित ही अद्भुत है.  इस कविता माणसं…. के लिए पुनः श्री सुजित कदम जी को बधाई. )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #18☆ 

 

☆ माणसं…. ☆ 

 

कधी काना,

कधी मात्रा.. .

कधी उकार ,

कधी वेलांटी.. .

कधी अनुस्वार ,

कधी स्वल्पविराम.. .

कधी अर्ध विराम,

कधी विसर्ग.. .

कधी उद्गगारवाचक,

तर कधी पुर्णविराम.. .

अक्षरांना ही भेटतात,

अशीच.. . .

काहीशी माणसं..!

 

© सुजित कदम, पुणे 

मो.7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 16 – तोल मोल कर बोल जमूरे ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर रचना  “तोल मोल कर बोल जमूरे। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 16 ☆

 

☆ तोल मोल कर बोल जमूरे ☆  

 

किसमें कितनी पोल जमूरे

तोल  मोल कर बोल  जमूरे।

 

कर ले बन्द बाहरी आँखें

अन्तर्चक्षु   खोल    जमूरे।

 

प्यास बुझाना है पनघट से

पकड़ो रस्सी – डोल जमूरे।

 

अंतरिक्ष  में   वे    पहुंचे

तू बांच रहा भूगोल जमूरे।

 

पेट पकड़कर अभिनय कर ले

मत कर टाल मटोल जमूरे।

 

टूटे हुए  आदमी से  मत

करना कभी मख़ौल जमूरे।

 

संस्कृति गंगा जमुनी में विष

नहीं वोट का, घोल  जमूरे।

 

कोयल तो गुमसुम बैठी है

कौवे करे,  मख़ौल  जमूरे।

 

है तैयार, सभी बिकने को

सब के अपने मोल, जमूरे।

 

फिर से वापस वहीं वहीं पर

यह दुनिया है  गोल  जमूरे।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 7 – खुशियों का सावन मनभावन  ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “खुशियों का सावन मनभावन ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 7  ☆

 

☆ खुशियों का सावन मनभावन

 

गुरू का संग हमें लगे क्षणै-क्षणै सुहावन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

बचपन की बेला तोतले बोल मैं बोला,

पकड़ ऊँगली आसमान छूने जो चला,

कभी लोरी तो कभी कंधे देखा है मेला,

गुरू बन मात-पिता ने दिया नया उजाला,

हृदयतल में निवास करे जीवन हो पावन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

हाथों में हाथ लेकर श्रीगणेशा जब लिखा,

कौन था वह हाथ आज तक न दिखा,

जो भी हो गुरूजन आप थे बचपन के सखा,

की होगी शरारत पर सिखाना न कभी रूका,

हाथ कभी न छूटे अपना रिश्ता बने सुहावन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

ना समझ से समझदार जब हम बने,

गुरूजनों के आशीर्वचन हमने थे चुने,

बढ़ाकर विश्वास दिखाए खुली आँखों में सपने,

जो थे कभी बेगाने अब लगते हैं अपने,

गुरूजी आप बिन कल्पना से नीर बहाएँ नयन

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

अनुभव जैसा गुरू नहीं भाई बात समझ में आई,

गिरकर उठना उठकर चलना कसम आज है खाई,

हार-जीत तो बनी रहेगी अपनी क्षणिक परछाई,

न हो क्लेश न अहंकार सीख अमूल्य सिखाई,

सिखावन गुरू आपकी निज करता रहूँ वहन,

बारंबार खिले खुशियों का सावन मनभावन।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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