हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से ☆ सीख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना  सीख .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से

 

☆  सीख  ☆

 

उसका लिखा जिया जाए

या खुद लिखा जाए

अपने कर्म समझे जाए

या हाथ दिखाया जाए

घूमते ग्रह, तारों, नक्षत्रों को मनाया जाए

या सीधा चला जाए

कैसे जिया जाए ?

 

क्योंकि जी तो वो चींटी भी रही है

कणों से कोना भर रही है

अंडे सिर माथे ले घूम रही है

बस्तियाँ नई गढ़ रही है

जबकि अगला पल उसे मालूम नही

जिसकी उसे परवाह नही

 

उससे दुगुने, तिगुने, कई गुनो की फ़ौज खड़ी है

संघर्षो की लंबी लड़ी है

देखो वह जीवट बड़ी है

बस बढ़ती चली है

उसने सिर उठा के कभी देखा नही

चाँद, तारों से पूछा नही

अंधियारे, उजियारे की फ़िक्र नही

थकान का भी जिक्र नही

कोई रविवार नहीं

बस जिंदा, जूनून और  जगना.

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #22 – ☆ मनोरंजन ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी मनोरंजन…. सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  मनोरंजन के कई साधन हैं जैसे सिनेमा, नाटक, संगीत, नृत्य, बागवानी, समाजसेवा, टी वी देखना, शिक्षा का प्रचार करना, व्यंजन बनाना, पठन-पाठन, साहित्य निर्माण, लेखन, वाचन, मनन, भजन, कीर्तन,  योगा, गपशप, पर्वतारोहण आदि. सुश्री आरुशी जी का विमर्श अत्यंत सहज है.  प्रत्येक व्यक्ति के मनोरंजन का तरीका अपना और विविध होता है. सार यह है कि मनोरंजन वही होना चाहिए जिससे मन को शान्ति मिले और हमें अपने दैनंदिन कार्यों के लिए ऊर्जा मिले. शायद छुट्टियां भी तो इसीलिए दी जाती हैं. सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

 साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #22 

 

☆ मनोरंजन… ☆

 

खूप सोप्पा विषय आहे नाही?

टी वी  लावला की मनोरंजन तयार आहेच की… त्यात काय आहे विशेष…?

डोक्याला ताप होणार नाही असं काहीही मनोरंजन ह्या कॅटेगरीमध्ये येईल का?

साधं मनोरंजन हवंय, मग हे प्रश्न कशाला? आयुष्यातील प्रश्नांपासून थोडा वेळ का होईना दूर जाण्यासाठी मनोरंजनाकडे वळायचं तर गहन प्रश्न कशाला आता?

खरंय,, ह्या धावपळीच्या जीवनात दोन क्षण आरामात घालवावे ही इच्छा साहजिक आहे… सर्व समस्यांचा विसर पडला पाहिजे, असं मनोरंजन हवं.. निखळ आनंद मिळावा हीच अपेक्षा असते.. ह्या आनंदातच आयुष्यातील जोश वाढला पहाणे असं माझं मत आहे.. मनोरंजनाचे मार्ग प्रत्येकाचे वेगळे असतील, सिनेमा, नाटक, संगीत, नृत्य, बागकाम, समाजसेवा, tv पाहणे, शिक्षणाचा प्रचार करणे, स्वयंपाक करणे, पोहणे, पळणे, साहित्य निर्मिती, लेखन, वाचन, मनन, भजन, कीर्तन,  योगा, गप्पा, गिर्यारोहण, असे अनेक पर्याय आहेत…

आपल्याला आवडेल, रुचेल, झेपेल त्यानुसार प्रत्येकजण हा मार्ग स्वीकारतो… आणि त्यात रमतो, जगतो… त्यामुळे एक मोठ्ठा फायदा होतो असं मला वाटतं. मनोरंजरूपी बदलामुळे, मन रिलॅक्स, रिफ्रेश झालं की आपसूकच माणूस आपले काम नवीन उत्साहाने, जोशाने, जिद्दीने करू शकतो. माणूस म्हणून जगायला शिकतो, भेदभाव विसरून फक्त करमणूक करता करता प्रगल्भ होतो. हा विचार मनात पक्का असावा म्हणजे मनोरंजनातून दाम दुपटीने फायदा होईल.

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 9 ☆ शोर ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘शोर ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 9 ☆

☆ शोर

घोर बवंडर की एक शाखा
इन्सा के मन में जुड़ जाने दो
जब जब हिले धरती का हिया
शोर शोर मच जाने दो…..

जो उथल पुथल मचती है भू में
वह मन मन में मच जाने दो
मन में भरा है विष का प्याला
टूट टूट उसे जाने दो
शोर शोर मच जाने दो…..

एक सैलाब वन से भी गुजरे
आँधी को मच जाने दो
ढह ढह जाए पेड़ द्वेष के
मधुर बीज बो जाने दो
शोर शोर मच जाने दो…..

© सौ. सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 11 – राम जी की सेना चली ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   राम जी की सेना चली।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 11 ☆

 

☆ राम जी की सेना चली 

 

महान वास्तुकार विश्वकर्मा के पुत्र नल, कुछ वानरों को वास्तु (वास्तुकला विज्ञान) के बुनियादी ढांचे और निर्माण के ज्ञान का प्रशिक्षण दे रहे थे। अग्नि के पुत्र नील लड़ाई के लिए हथियारों को आकार दे रहे थे। भगवान राम की सेना में शामिल होने के लिए स्वर्ग से कुबेर के अवतार, गंधमदाम (‘गंध’ का अर्थ खुशबु/बदबू है और ‘मदाम’ का अर्थ है नियंत्रक, इसलिए गंधमदाम का अर्थ है कि वह जो सभी प्रकार की गंधों पर नियंत्रण रखता है) भी आये  थे। उनके पास अपने शरीर की गंध की तीव्रता को नियंत्रित करने की विशेष शक्ति थी।

देवताओं के शिक्षक बृहस्पति के अवतार तार को भी स्वयं बृहस्पति द्वारा भगवान राम की सहायता करने के लिए भेजा गया था।अश्विन कुमार के पुत्र मैन्द (अर्थ : छोटे रास्ते या सड़क) और द्विवेद (अर्थ : दो प्रकार की सच्चाई का ज्ञान), महान चिकित्सक और सर्जन भी युद्ध में घायल होने वाले वानारों की सहायता  के लिए भाग लेने आये ।

अश्विन कुमार आकाश के पुत्र, रात्रि और सूर्य उदय के बीच के समय के देवता, जो सुबह आसमान में सबसे पहले दिखाई देते हैं। सुबह (पुसान) के अग्रदूत, चिकित्सा विज्ञान की पुस्तक अश्विन कुमार संहिता इन्हीं की देन है। इन्हें देवताओं के चिकित्सक भी कहा जाता है।

वरुण के पुत्र सुसेनाह (‘सु’ का अर्थ अच्छा या स्वर्गीय और ‘सेनाह’ का अर्थ है वैद्य या डॉक्टर तो सुसेनाह का अर्थ अच्छा चिकित्सक या स्वर्ग का चिकित्सक है) जो अकेले हजारों सेनाओं के बराबर है, भी भगवान राम के पक्ष में धर्म युद्ध में भाग लेने आये ।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 8 ☆ चामुण्डेश्वरी – चरणावली ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी कविता चामुण्डेश्वरी – चरणावली जो वैद्यकीय विषय  पर आधारित  प्रयोगात्मक कविता है. श्रीमती उर्मिला जी  को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 8 ☆

 

☆ चामुण्डेश्वरी – चरणावली ☆

(नवदुर्गांची औषधी न ऊ रुपे)

 

उपासना नवरात्री

आदिमाया देवीशक्ती

महालक्ष्मी महाकाली

बुद्धी दात्री सरस्वती !!१!!

 

नवरात्री तिन्हीदेवी

युक्त असे नवू रुपे

औषधांच्याच रुपात

जगदंबेची ती रुपे !!२!!

 

श्रीमार्कण्डेय चिकित्सा

नवु गुणांनी युक्त ती

श्रीब्रह्मदेवही त्यास

दुर्गा कवच म्हणती !!३!!

 

नवु दुर्गांची रुपे ही

युक्त आहेत औषधी

उपयोग करुनिया

होती हरण त्या व्याधी!!४!!

 

शैलपुत्री ती पहिली

रुप दुर्गेचे पहिले

हिमावती हिरडा ही

मुख्य औषधी म्हटले!!५!!

 

हरितिका म्हणजेच

भय दूर करणारी

हितकारक पथया

धष्टपुष्ट करणारी!!६!!

 

अहो कायस्था शरीरी

काया सुदृढ करीते

आणि अमृता औषधी

अमृतमय करीते !!७!!

 

हेमवती ती सुंदर

हिमालयावर असे

चित्त प्रसन्नकारक

ती तर चेतकी असे!!८!!

 

यशदायी ती श्रेयसी

शिवा ही कल्याणकारी

हीच औषधी हिरडा

सर्व शैलपुत्री करी !!९!!

 

ब्रह्मचारिणी दुसरी

स्मरणशक्तीचे वर्धन

ब्राह्मी असे वनस्पती

करी आयुष्य वर्धन!!१०!!

 

मन व मस्तिष्क शक्ती

करिते हो प्रदान ही

नाश रुधीर रोगाचा

मूत्र विकारांवर ही!!११!!

 

रुप तिसरे दुर्गेचे

चंद्रघण्टा नाम तिचे

चंद्रशूर, चमशूर

करी औषध तियेचे !!१२!!

 

चंद्रशूरच्या पानांची

भाजी कल्याणकारिणी

चर्महन्ती नाव तिचे

असे ती शक्तीवर्धिनी !!१३!!

 

चंद्रशूर, चंद्रचूर

कमी लठ्ठपणा करी

अहो हृदय रोगाला

हे औषध लयी भारी !!१४!!

 

रुप चवथे दुर्गेचे

तिला म्हणती कुष्माण्डा

आयुष्य वाढविणारी

तीच कोहळा कुष्माण्डा!!१५!!

 

पेठा मिठाई औषधी

पुष्टीकारी असे तीही

बल वीर्यास देणारी

युक्त हृदयासाठी ही !!१६!!

 

वायू रोग दूर करी

कोहळा सरबत ही

कफ पित्त पोट साफ

खावा कुष्माण्ड पाकही!!१७!!

 

रुप दुर्गेचे पाचवे

ही उमा पार्वती माता

हीच जवस औषधी

कफनाशी स्कंदमाता !!१८!!

 

रुप सहा कात्यायनी

म्हणे अंबाडी,मोईया

कण्ठ रोग नाश करी

हीच अंबा,अंबरिका !!१९!!

 

हिला मोईया म्हणती

हीच मात्रिका शोभते

कफ वात पित्त कण्ठ

नाश रोगांचा करीते !!२०!!

 

रुप दुर्गेचे सातवे

विजयदा,कालरात्री

नागदवण औषधी

प्राप्त विजय सर्वत्री !!२१!!

 

मन मस्तिष्क विकार

औषध विषनाशिनी

कष्ट दूर करणारी

सुंदर सुखदायिनी !!२२!!

 

रुप दुर्गेचे आठवे

नाम तिचे महागौरी

असे औषधी तुळस

पूजतात घरोघरी !!२३!!

 

रक्तशोधक तुळशी

काळी दवना,पांढरी

कुढेरक,षटपत्र

हृदरोग नाश करी!!२४!!

 

रुप दुर्गेचे नववे

बलबुद्धी विवर्धिनी

हिला शतावरी किंवा

अहो म्हणा नारायणी !!२५!!

 

बलवर्धिनी हृदय

रक्त वात पित्त शोध

महौषधी वीर्यासाठी

योग्य हेच हो औषध !!२६!!

 

दुर्गादेवी नवु रुपे

अंतरंग भक्तीमय

करु औषधी सेवन

होऊ सारे निरामय !!२७!!

 

साभार:- लेखक:-विवेक वि.सरपोतदार

लेखक भारतीय विद्येचे  lndologist व आयुर्वेद अभ्यासक.

संकलन :- सतीश अलोणी.

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-४-१०-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 18 ☆ चलते-फिरते पुतले ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  का  आलेख  “चलते-फिरते पुतले”.  डॉ  मुक्ता जी ने इस आलेख के माध्यम से  टूटते हुए संयुक्त परिवारों  ही नहीं अपितु  एकल परिवारों में भी होते हुए बिखराव पर विस्तृत चर्चा की है.  उन्होंने  सामाजिक  इकाइयों के बिखराव पर न केवल अपनी राय रखी है अपितु  बच्चों से लेकर बड़े बूढ़ों तक की मनोदशा की भी विस्तृत चर्चा की है . अब आप स्वयं पढ़ कर आत्म मंथन करें  कि – हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं?  आदरणीया डॉ मुक्ता जी  का आभार एवं उनकी कलम को इस विषय पर चर्चा की पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 18 ☆

 

☆ चलते-फिरते पुतले ☆

 

न कुछ सुनते हैं और न कुछ कहते हैं/ मेरे घर में चलते-फिरते पुतले रहते हैं… इन पंक्तियों ने अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख दिया। कितनी पीड़ा, कितनी टीस, कितना दर्द भरा होगा हृदय में…और कितनी संजीदगी से मनोव्यथा को बयान कर सुक़ून पाया होगा अनाम कवयित्री ने। वैसे तो आजकल यह घर- घर की कहानी है। हर इंसान यहां एकांत की त्रासदी झेल रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी में पनप रहा, अजनबीपन का अहसास अक्सर देखा जा रहा है, जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चे व वृद्ध भुगत रहे हैं…जो सबके बीच रहते हुए भी स्वयं को अकेला अनुभव करते हैं। यह जनमानस की पीड़ा है..और है आज के समाज का कटु यथार्थ। संयुक्त परिवार प्रथा टूटने के कग़ार पर है… अंतिम सांसें ले रही है और उसके स्थान पर बखूबी काबिज़ है… एकल परिवार-व्यवस्था। जिन परिवारों में बुज़ुर्ग रहते भी हैं, उनकी मन:स्थिति विचित्र-सी रहती है… जैसे भीड़ में व्यक्ति स्वयं को खोया-खोया अनुभव करता है और अपनी सोच, अपनी कल्पनाओं व अपने भावों-विचारों में गुम रहता है…लाख प्रयत्न करने पर भी वह उस परिवार का हिस्सा नहीं बन पाता।

आश्चर्य होता है कि आजकल तो कामवाली बाईयों को भी परिवार की परिभाषा समझ में आ गई है। वे जानती हैं कि परिवार में तीन या चार प्राणी होते हैं… पति-पत्नी और एक या दो बच्चे। सो! वे आजकल कल संयुक्त परिवार में कार्य करने को तत्पर नहीं होतीं और टका-सा जवाब देकर रुख्सत हो जाती हैं। छोड़िए! इतना ही नहीं, आजकल बच्चे भी इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि परिवार रूपी इकाई में दादा-दादी का स्थान नहीं होता। सो! वे सदैव अपने माता-पिता के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं और यह स्वाभाविक भी है। घर में बड़े-बुज़ुर्ग तो दिनभर प्रतीक्षारत रहते हैं और अपने आत्मजों तथा नाती- पोतों की एक झलक प्राप्त कर खुद को खुशकिस्मत समझते हैं। कई बार तो महीनों तक संवाद होता ही नहीं। परंतु तीन-चार फुट दूरी से सुबह-शाम पांव छूने का औपचारिक सिलसिला अनवरत जारी रहता है और वे उनपर आशीषों  की वर्षा करते नहीं अघाते।

‘न कुछ सुनते हैं, न कुछ कहते हैं’…यह संवादहीनता की स्थिति ‘कैसे हैं’,’ठीक हूं’ ‘खुश रहो’ तक सिमट कर रह जाती है। अपने-अपने द्वीप में कैद,एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर,पति-पत्नी में भी कहां हो पाता है मधुर संवाद…अक्सर वे संवाद नहीं, विवाद में विश्वास रखते हैं..एक-दूसरे पर अपने मन की भड़ास निकालते हैं और दोषारोपण करना तो मानो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। ऑफिस का दिनभर का गुस्सा, घर में दस्तक देते ही एक-दूसरे पर निकाल कर, वे सुक़ून पाते हैं। बच्चे,जब देर रात अपने माता-पिता को चीखते-चिल्लाते देखते हैं तो वे सोने का उपक्रम करते हैं…कहीं वे ही उनके क्रोध का शिकार न बन जाएं।

दिनभर आया या नैनी के आंचल में पनपते बच्चे, माता-पिता के स्नेह व प्यार-दुलार के अभाव में स्वयं को निरीह, नि:स्सहाय व नितांत अकेला अनुभव करते हैं। मोबाइल, टी•वी• व मीडिया से अत्यधिक जुड़ाव उन्हें अपराध जगत् की ओर प्रवृत्त करता है और उस दलदल से वे चाह कर भी निकल नहीं पाते। शराब व ड्रग्स के नशे में वे औचित्य-अनौचित्य का भेद नहीं कर पाते और बचपन में ही जघन्य- घिनौने अपराधों को अंजाम देकर अपने जीवन को नरक में धकेल देते हैं। बच्चों को इन दुर्दम-भीषण परिस्थितियों में देख कर, माता-पिता हैरान-परेशान से, स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पाते हैं। और हर संभव प्रयास करने पर भी वे उन्हें लौटा पाने में स्वयं को असहाय-असमर्थ पाते हैं।

वे इन विषम परिस्थितियों में बच्चों को हर पल टूटते हुए देखकर दु:खी रहते हैं तथा सोचते हैं आखिर उनके संस्कारों में कहां कमी रह गई? उनके आत्मज गलत राहों पर क्यों अग्रसर हो गये? उन्होंने सब सीमाओं का अतिक्रमण क्यों कर लिया? विवाह के पवित्र-बंधन को नकार वे सदैव एक-दूसरे को नीचा दिखलाने में क्यों लीन रहे? यहां तक कि वे अपने बच्चों को भी दिशाहीन होने से भी नहीं रोक पाए। वे अपने भाग्य को कोसते हुए स्वयं को दोषी अनुभव करते हैं।

आधुनिक प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में अक्सर माता-पिता लिव इन या अलगाव की स्थिति में पहुंच,अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा यह सोचते हैं कि ‘जो बच्चों के भाग्य में लिखा होगा, उन्हें अवश्य मिल जाएगा।’ उनके भविष्य के लिए ऐसे माहौल में रहकर अपना जीवन नष्ट करना करने की उन्हें कोई उपयोगिता- उपादेयता नज़र नहीं आती। वास्तव में यही है, आज की युवा पीढ़ी के जीवन का कटु सत्य… जिससे उन्हें हर पल जूझना पड़ता है। वे घर में चलते-फिरते पुतलों की मानिंद प्रतीत होते हैं…अहसासों व  जज़्बातों से कोसों दूर, जिनमें न सौहार्दपूर्ण-  पारस्परिक संबंध होते हैं, न ही सरोकार। उनमें संवादहीनता ही नहीं, व्याप्त होती है संवेदनशून्यता, एक-दूसरे के प्रति उपेक्षा भाव, जहां वे अहंनिष्ठता के कारण अपनी-अपनी दुनिया मस्त रहते हुए, इतनी दूरियां बढ़ा लेते हैं, जिन्हें पाटना व जहां से लौट पाना असंभव हो जाता है।

काश! ये चलते-फिरते, कुछ न कहते पुतले आत्म- मुग्धावस्था को त्याग, एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते हुए व अपने माता-पिता के प्रति दायित्व-वहन करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर होते… तो ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत होती। हर दिन उत्सव होता और घर में संवेदनशून्यता की स्थिति के स्थान पर,एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव होता तथा मन-आंगन में चिर- वसंत रहता। आइए! दिनों के फ़ासलों को मिटा, संकीर्ण मानसिकता को त्याग, समर्पण भाव से जीवन-पथ पर अग्रसर हों, जहां अलौकिक आनंद बरसे, बच्चों के मान-मनोबल से घर-आंगन गूंजता रहे। यही होगी हमारे जीवन की सार्थकता…निकट भविष्य में बच्चों को घर में रहते एकांत की त्रासदी को झेलना न पड़े व माता-पिता को वृद्धाश्रम में अपनी ज़िन्दगी को न ढोना पड़े और उन अपनों के इंतज़ार में उनकी आंखें गंगा-जमुना की भांति बरसती न रहें।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 16 ☆ कैसे  कहूँ ? ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक  प्रेरणास्पद एवं भावप्रवण कविता  “कैसे  कहूँ ? ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 16  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ कैसे  कहूँ ?

 

भाव मन में

बहने लगे

अनायास

कैसे  कहूँ ?

 

कुछ न आता समझ

व्यक्त कैसे करूं

मन की बातें

कैसे  कहूँ ?

 

दिल पर

छाई है उदासी

बेवजह

कैसे  कहूँ ?

 

उनके शब्दों में

है जान

मिलती है प्रेरणा

कैसे  कहूँ ?

 

बिखरे शब्द

लगे  सिमटने

मिला आकर

कैसे  कहूँ ?

 

आयेगा वो पल

चमकेगी किस्मत

समझोगे तब

कैसे  कहूँ ?

 

है मंजिल सामने

वहीं है खास

हो जाती हूं नि:शब्द

कैसे  कहूँ ?

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 4 ☆ लगी मोह से माया ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “लगी मोह से माया ” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 4 ☆

☆  लगी मोह से माया  ☆

 

लगी मोह से माया  ।

कोई समझ न पाया ।।

लगी मोह से माया।।

 

धन पाकर इतराये ।

खुद अपने गुण गाये ।।

समझ न सच को पाया ।

लगी मोह से माया। ।।

 

नजरों की मर्यादा ।

समझें इसे लबादा ।।

अपना कौन पराया ।

लगी मोह से माया ।।

 

ये सब रिश्ते नाते ।

हैं दुनियाई खाते ।।

जग में उलझी काया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठी चमक दिलाशा ।

बढ़ती मन की आशा ।।

मन जग में भरमाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठ फरेब निराले  ।

हैं सब के मन काले ।।

यह कलयुग की छाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

अब हैं नकली चेहरे ।

जहां नहीं सच ठहरे ।।

“संतोष”समझ पाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठहिं मन बहलाया ।

कोई समझ न पाया ।।

लगी मोह से माया ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प सतरावे # 17 ☆ जीवनांतील गुरूचे स्थान ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज श्री विजय जी ने  “जीवनांतील गुरूचे स्थान” चुना है।  श्री विजय जी ने  इस आलेख  के माध्यम से जीवन में गुरु के स्थान पर चर्चा की है.  जीवन में हम अपने प्रथम गुरु माता-पिता से ज्ञान प्राप्त करते हैं  फिर जीवन पर्यन्त हम सब से कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त करते ही हैं. ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प सतरावे  # 17 ☆

 

☆ जीवनांतील गुरूचे स्थान☆

 

आद्य गुरू म्हणून आपली सर्व प्रथम ओळख होते ती आपल्या  आईवडीलाशी. हे जनक आपला जीवन प्रवास सुरू करून देतात. नाते संस्कारीत करण्याची शिकवण हे  ‘आद्य गुरू ‘  आपणास सर्व प्रथम करून देतात. आपला गर्व नाहिसा करून  उपयुक्त  ज्ञान,व्यावहारिक शिकवण,  आणि सत्य मार्गावर करीत  असलेली कार्यप्रवणता यात समतोल राखण्याचे कार्य हे गुरू सातत्याने करीत आहेत.

“शोध जगाचा घेताना

चला वळू आईकडे

कोलंबसाचे नाव ते

तिने टाकले रे मागे.”

आई, जगातल्या प्रत्येक लहान सहान गोष्टीशी  आपली ओळख करून देते.  ओळख, हाताळणी,  शिक्षण, सराव, संस्कार , संवाद,  ज्ञानदान ,  आणि मार्गदर्शन ही सारी गुरूंची कामे  आपली आई लिलया करते.  तिला  हे सर्व करताना  अधिष्ठान लाभते ते आपल्या पित्याचे. तिच्या सौभाग्याचे. माता,  पिता हे आद्य गुरू परीसाप्रमाणे नजरेच्या धाकातून लेकराच्या जीवाचे सोने कसे होईल यासाठी प्रयत्नशील रहातात.

माणसाला नाव, गाव, वाव  आणि भाव मिळवण्यासाठी   गुरूगृही   ज्ञानार्जन करण्याची  आपली परंपरा.  मती, गती , आणि कलागुणांच्या व्यासंगाने प्रत्येक व्यक्ती स्वतःला सिद्ध करू पहाते.

स्वप्न, सत्य  आणि महत्वाकांक्षा यांच्या जोरावर प्रत्येकजण प्रगतीपथावर मार्गक्रमण करीत  असतो.  या  अवघड जीवनप्रवासात वाट चुकू नये,  ध्येय मार्गाची दिशा बदलू नये,  पाऊल घसरू नये यासाठी हे आद्य गुरू डोळ्यात तेल घालून आपल्या पाल्याला जपत रहातात.  यांचे शिष्यत्व पत्करावे लागत नाही पण यांच्या ममत्वाची आणि वात्सल्याची जाणिव ठेवली तरी आपण मोठ मोठी यशोशिखरे सर करू शकतो.

ज्ञानार्जन, आणि  ज्ञानदान यांचे नित्य  देणे घेणे  गुरूंच्या मार्गदर्शनाने अविरत सुरू रहायचे.  अवघी चराचर सृष्टी  आपल्याला सतत कोणत्या ना कोणत्या गोष्टीचे  ज्ञान उपलब्ध करून देत  असते.

सृजनशीलता, नम्रता, जिज्ञासा, प्रामाणिकता, विवेक,  संयम,  समजूतदारपणा माणुसकी  देशप्रेम, अधिकार,  कर्तव्य, जबाबदारी, कार्यप्रवणता, कृतज्ञता,  आणि सद्सद् विवेक बुद्धी यांना चेतना देण्याचे, कार्यप्रवण रहाण्याचे काम गुरूंच्या सहज साध्या संवादाने,  उपदेशाने, सूचक निर्देशाने घडत रहाते. गुरूने दिलेले  ज्ञान  हे सृजनशील  ज्ञान असते.  माणूस घडविण्याची  आणि  मोक्षपदी जाण्याची  क्षमता गुरूने दिलेल्या  ज्ञानात असते.

गुरू रूप ईश्वराचे निजरूप मानले गेले आहे. जगण्याचा मार्ग , कृपा प्रसाद, सन्मार्गाचा ध्येयपथ , ईश्वरी कृपेचा  संकेत, संस्काराची जपमाळ, नामस्मरण,  कर्म, धर्म  आणि  अध्यात्म साधना  गुरूगृही पूर्ण होते. व्यक्ती निष्ठा,  कुटुंब निष्ठा,  आणि राष्ट्र भक्ती यातून व्यक्तीमत्व विकासाची दिशा  हे गुरू  आपल्याला दाखवून देतात.  आपल्या जीवनातील महत्वाच्या तीन अवस्था  गुरूंशिवाय अपूर्ण आहे.  बालपणी,  प्रथम  आईवडील,  काका, काकू, मामा, मामी  सर्व  आप्तेष्ट,  शाळूसोबती, शालेय शिक्षक (गुरूजन) समवसमयस्क मित्र हे सारे आपले गुरूजन आहेत.  एखादी चांगली गोष्ट स्वीकारण्यासाठी मार्गदर्शन करणारा,  आपल्या सुखदुःखात नित्य नेमे सहभागी होणारी प्रत्येक व्यक्ती  आपला ‘गुरू’ आहे.

पृथ्वीप्रमाणे सहनशील आणि द्वंद्व सहिष्णू असावे. वारा सुगंधी फुलावरून वहातांना सुगंधाने आसक्त होऊन तो तेथे थांबत नाही, त्याचप्रमाणे द्रव्यासारख्या वस्तूला मोहित होऊन आपण आपले व्यवहार थांबवू नयेत. आकाशासारखं तरी निर्विकार, एक, सर्वांशी समत्व राखणारा, निःसंग, अभेद, निर्मळ, निर्वैर, अलिप्त आणि अचल आपल्याला रहाता आलं पाहिजे.पाणी मधुर असते, ते मनुष्याची तहान शांत करते. त्याप्रमाणे आपण आपल्या बांधवांची ज्ञानतृष्णा पूर्ण करावी.

आपण अग्नीप्रमाणे तप करून प्रकाशित व्हावे आणि जे मिळेल ते भक्षण करून कोणत्याही दोषांचे आचरण न करता आपले कलागुण कार्य कारण प्रसंगानुरूप योग्य ठिकाणी प्रदर्शित करावेत.ज्याप्रमाणे चंद्राच्या कलेत उणे-अधिकपणा असून त्याचा विकार चंद्रास बाधक होत नाही, तद्वत् आत्म्यास देहासंबंधीचे विकार बाधक होत नाहीत. आपला आत्मा वाढत नाही आणि मरतही नाही, तर वाढतो किंवा मरतो, तो आपला देह याची जाणीव हे गुरू पदोपदी आपणास करून देतात.

सूर्य  जसा भविष्य कालाचा विचार करून जलाचा संचय करतो आणि योग्य काळी परोपकारार्थ  त्याचा भूमीवर वर्षाव करतो. त्याच प्रमाणे आपण उपयुक्त वस्तूंचा संचय करून, देश, काल, वर्तमानस्थिती लक्षात आणून निष्पक्ष पाती पणाने सर्व  सहचरास  त्यांचा लाभ द्यावा; पण त्याचा अभिमान बाळगू नये  ही सूर्याने दिलेली शिकवण  अत्यंत महत्वाची आहे. कबुतर,  अजगर,  समुद्र, पतंग, मधमाशी,  हत्ती,  भ्रमर,  मासा,हरीण, वेश्या  ( गणिका ) ,  टिटवी, सर्प,  बालक, कंकण,  कोळी, पारधी ,कुंभार माशी यांचा जीवनपट देखील  आपल्याला काही ना शिकवून जातो.

आपण सदैव ज्याचे ध्यान करतो, तो त्या ध्यानामुळे परिणामी तदाकार  एकरूप होऊन जातो. कुंभारीण माशी, मातीचे घर करून त्यात एक किडा आणून ठेवते, आणि त्यास वरचेवर येऊन फुंकर मारत रहाते. त्यामुळे त्या किड्याला माशीचे ध्यान लागून रहाते आणि तो शेवटी कुंभारीणमाशी बनतो. त्याप्रमाणे आपण गुरू निर्देशित  मार्गाने ईश्वराचे ध्यान केले, तर आपण हा मनुष्य जन्म श्रेष्ठ ठरवू शकतो.

श्री. दत्तात्रेयांनी केलेले चोवीस गुरू यांचा जर  आपण  अभ्यास केला तर आपले जीवन ख-या अर्थाने सफल झाले  असे म्हणता येईल. कला व्यासंग,  शुद्ध विवेक युक्त विचार सरणी,माणुसकी  आणि  ईशभक्ती यांच्या सानिध्यात मन रममाण करणारी व्यक्ती ही गुरू स्थानीच आहे.  “दोषांकडे दुर्लक्ष करून सद्गुणांचा अंगीकार करण्याची शिकवण हे गुरुजन सतत आपल्याला देत असतात.

अशा पद्धतीने  आपण आपल्या  जीवन प्रवासात खूप काही शिकत रहातो. हे  ज्ञान आपणास देणारी ग्रंथ संपदा तिला विसरून चालणार नाही.  यशापयशाची  एकेक पायरी चढत असताना   मिळणारा ‘अनुभव’ हा देखील आपला  खूप जवळचा गुरू आहे.  हा गुरू आधी परीक्षा घेतो आणि नंतर धडा शिकवतो.  असा हा गुरू चिंतनाचा लेखन प्रवास व्यक्ती सापेक्ष बदलत राहिल. मला जसा भावला तसा मी या लेखात शब्दबद्ध केला आहे. मातृदेवता, जन्मभूमी,  आणि  कर्मभूमी या तिन्ही देवतांना वंदन करून या गुरू महती ची सांगता करतो. सस्नेह वंदे !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 10 ☆ जब कभी मैं तनहा होती हूँ ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “जब कभी मैं तनहा होती हूँ”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 10

☆ जब कभी मैं तनहा होती हूँ 

जब कभी मैं तनहा होती हूँ,

नज्मों की धार पकड़ लेती हूँ

और झूल जाती हूँ

दहर के किसी कोने में छुपे

एहसासों के खूबसूरत से जंगल में!

 

कभी-कभी इस धार को पकड़

मैं ऊपर को बढती रहती हूँ,

छू लेती हूँ आसमान
और उड़ने लगती हूँ

मस्त परिंदों की तरह…

 

और कभी-कभी गिर जाती हूँ

नीचे अलफ़ाज़ के दरिया में,

अपनी नाज़ुक उँगलियों से

तब मैं चुनती जाती हूँ एक-एक हर्फ़

और फिर अपनी कलम से

भरती रहती हूँ न जाने कितने सफ्हे,

लिखती रहती हूँ न जाने कितनी किताब…

 

जीत

दोनों में ही मेरी है,

और फिर जब वापस पहुँचती हूँ

तो देखती हूँ

कि ख़ुशी का एक समंदर

बह रहा है

मेरे ही ज़हन में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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