हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #40 – जीवन और मूल्य ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “जीवन और मूल्य ”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 40 ☆

☆ जीवन और मूल्य

वसुधैव कुटुम्बकम् की वैचारिक उद्घोषणा वैदिक भारतीय संस्कृति की ही देन है. वैज्ञानिक अनुसंधानो, विशेष रूप से संचार क्रांति जनसंचार (मीडिया एवं पत्रकारिता) एवं सूचना प्राद्योगिकी (इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया) तथा आवागमन के संसाधनो के विकास ने तथा विभिन्न देशो की अर्थव्यवस्था की परस्पर प्रत्यक्ष व परोक्ष निर्भरता ने इस सूत्र वाक्य को आज मूर्त स्वरूप दे दिया है. हम भूमण्डलीकरण के युग में जी रहे हैं. सारा विश्व कम्प्यूटर चिप और बिट में सिमट गया है. लेखन, प्रकाशन, पठन पाठन में नई प्रौद्योगिकी की दस्तक से आमूल परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं. नई पीढ़ी अब बिना कलम कागज के  कम्प्यूटर पर ही  लिख रही है, प्रकाशित हो रही है, और पढ़ी जा रही है. ब्लाग तथा सोशल मीडीया वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति के सहज, सस्ते, सर्वसुलभ, त्वरित साधन बन चुके हैं. ये संसाधन स्वसंपादित हैं, अतः इस माध्यम से प्रस्तुति में मूल्यनिष्ठा अति आवश्यक है, सामाजिक व्यवस्था के लिये यह वैज्ञानिक उपलब्धि एक चुनौती बन चुकी है.  सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है.लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को  चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक  पहुंच और इसकी  त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते ब्लाग जगत व सोशल मीडिया को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है.

वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ समय में कई सफल जन आंदोलन सोशल मीडिया के माध्यम से ही खड़े हुये हैं. कई फिल्मो में भी सोशल मीडिया के द्वारा जन आंदोलन खड़े करते दिखाये गये हैं. हमारे देश में भी बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथा दिल्ली के नृशंस सामूहिक बलात्कार के विरुद्ध बिना बंद, तोड़फोड़ या आगजनी के चलाया गया जन आंदोलन, और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उसके सम्मुख किसी हद तक झुकना पड़ा. इन  आंदोलनो में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट, मोबाइल एस एम एस और मिस्डकाल के द्वारा अपना समर्थन व्यक्त किया. मूल्यनिष्ठा के अभाव में ये त्वरित प्रसारण के नये संसाधन अराजकता भी फैला सकते हैं, हमने देखा है कि किस तरह कुछ समय पहले फेसबुक के जरिये पूर्वोत्तर के लोगो पर अत्याचार की झूठी खबर से दक्षिण भारत से उनका सामूहिक पलायन होने लगा था. स्वसंपादन की सोशल मीडिया की शक्ति उपयोगकर्ताओ से मूल्यनिष्ठा व परिपक्वता की अपेक्षा रखती है. समय आ गया है कि फेक आई डी के जरिये सनसनी फैलाने के इलेक्ट्रानिक उपद्रव से बचने के लिये इंटरनेट आई डी का पंजियन वास्तविक पहचान के जरिये करने के लिये कदम उठाये जावें.

आज जनसंचार माध्यमो से सूचना के साथ ही साहित्य की अभिव्यक्ति भी हो रही है.  साहित्य समय सापेक्ष होता है. साहित्य की इसी सामयिक अभिव्यक्ति को आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. आधुनिक तकनीक की भाषा में कहें तो जिस तरह डैस्कटाप, लैपटाप, आईपैड, स्मार्ट फोन विभिन्न हार्डवेयर हैं जो मूल रूप से इंटरनेट  के संवाहक हैं एवं साफ्टवेयर से संचालित हैं. जनसामान्य की विभिन्न आवश्यकताओ की सुविधा हेतु इन माध्यमो का उपयोग हो रहा है.  कुछ इसी तरह साहित्य की विभिन्न विधायें कविता, कहानी, नाटक, वैचारिक लेख, व्यंग, गल्प आदि शिल्प के विभिन्न हार्डवेयर हैं, मूल साफ्टवेयर संवेदना है, जो  इन साहित्यिक विधाओ में रचनाकार की लेखकीय विवशता के चलते अभिव्यक्त होती है.  परिवेश व समाज का रचनाकार के मन पर पड़ने  प्रभाव ही है, जो रचना के रूप में जन्म लेता है. लेखन की  सारी विधायें इंटरनेट की तरह भावनाओ तथा संवेदना की संवाहक हैं.  साहित्यकार जन सामान्य की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है. बहुत से ऐसे दृश्य जिन्हें देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं, रचनाकार के मन के कैमरे में कैद हो जाते है. फिर वैचारिक मंथन की प्रसव पीड़ा के बाद कविता के भाव, कहानी की काल्पनिकता, नाटक की निपुणता, लेख की ताकत और व्यंग में तीक्ष्णता के साथ एक क्षमतावान  रचना लिखी जाती है. जब यह रचना पाठक पढ़ता है तो प्रत्येक पाठक के हृदय पटल पर उसके स्वयं के  अनुभवो एवं संवेदनात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग चित्र संप्रेषित होते हैं.

वर्तमान  में विश्व में आतंकवाद, देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद, सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में  तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा, समाज में नैतिक मूल्यो के हृास, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियो और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओ व आर्थिक प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है. समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है. यही अनेक सामाजिक बुराईयो के पनपने का कारण है. स्त्री भ्रूण हत्या, नारी के प्रति बढ़ते अपराध, चरित्र में गिरावट, चिंतनीय हैं.  हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओ का  औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नो के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें. समाज की परिस्थितियो की अवहेलना साहित्य और पत्रकारिता कर ही नही सकती. क्योकि साहित्यकार या पत्रकार  का दायित्व है कि वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे. समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये.

राजनीतिज्ञो के पास अनुगामियो की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है. साहित्यकार का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणो का अध्ययन एवं विश्लेषण  करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यो का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे.समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व मीडिया व पत्रकारिता का ही है. इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नही, राजनेताओ को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है.

प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु, ॠषि व मनीषी करते थे. उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था. वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे. हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारको ने लिखे हैं जिनका महत्व शाश्वत है. समय के साथ बाद में कुछ राजाश्रित कवियो ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा. उनकी रचनाओ ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नही हो सका. कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है. वीर रस के कवि राजसेनाओ का हिस्सा रह चुके हैं, यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि कलम के प्रभाव की उपेक्षा संभव नही. जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई.जब  विदेशी आक्रांताओ के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये.  भक्तिरस की रचनायें हुई. अकेली रामचरित मानस, भारत से दूर विदेशो में ले जाये गये मजदूरो को भी अपनी संस्कृति की जड़ो को पकड़े रखने का संसाधन बनी.

जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी, स्मार्ट सिटी बनेंगी, इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी यह वर्चुएल लेखन  और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा, एवं  भविष्य में  लेखन क्रांति का सूत्रधार बनेगा. युवाओ में बढ़ी कम्प्यूटर साक्षरता से उनके द्वारा देखे जा रहे ब्लाग के विषय युवा केंद्रित अधिक हैं.विज्ञापन, क्रय विक्रय, शैक्षिक विषयो के ब्लाग के साथ साथ स्वाभाविक रूप से जो मुक्ताकाश कम्प्यूटर और एंड्रायड मोबाईल, सोशल नेट्वर्किंग, चैटिंग, ट्विटिंग,  ई-पेपर, ई-बुक, ई-लाइब्रेरी, स्मार्ट क्लास, ने सुलभ करवाया है, बाजारवाद ने उसके नगदीकरण के लिये इंटरनेट के स्वसंपादित स्वरूप का भरपूर दुरुपयोग किया है. मूल्यनिष्ठा के अभाव में  हिट्स बटोरने हेतु उसमें सैक्स की वर्जना, सीमा मुक्त हो चली है. पिछले दिनो वैलेंटाइन डे के पक्ष विपक्ष में लिखे गये ब्लाग अखबारो की चर्चा में रहे.

प्रिंट मीडिया में चर्चित ब्लाग के विजिटर तेजी से बढ़ते हैं, और अखबार के पन्नो में ब्लाग तभी चर्चा में आता है जब उसमें कुछ विवादास्पद, कुछ चटपटी, बातें होती हैं, इस कारण अनेक लेखक  गंभीर चिंतन से परे दिशाहीन होते भी दिखते हैं. हिंदी भाषा का कम्प्यूटर लेखन साहित्य की समृद्धि में  बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में हैं, ज्यादातर हिंदी ब्लाग कवियों, लेखको, विचारको के सामूहिक या व्यक्तिगत ब्लाग हैं जो धारावाहिक किताब की तरह नित नयी वैचारिक सामग्री पाठको तक पहुंचा रहे हैं. पाडकास्टिंग तकनीक के जरिये आवाज एवं वीडियो के ब्लाग, मोबाइल के जरिये ब्लाग पर चित्र व वीडियो क्लिप अपलोड करने की नवीनतम तकनीको के प्रयोग तथा मोबाइल पर ही इंटरनेट के माध्यम से ब्लाग तक पहुंच पाने की क्षमता उपलब्ध हो जाने से इलेक्ट्रानिक लेखन और भी लोकप्रिय हो रहा है.

आज का लेखक और पत्रकार  राजाश्रय से मुक्त कहीं अधिक स्वतंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार हमारे पास है. लेखन, प्रकाशन, व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन अधिक सुगम हैं. अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है. माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है. पर आज नई पीढ़ी में  पठनीयता का तेजी हृास हुआ है.  किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है. आज  चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये.

पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की  जाये. आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है,प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है.अखबारो में नये स्तंभ बनाये जा सकते हैं.  यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्यिक विधा की मान्यता दी जा सकती है ? यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर रचनाओ की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं.

जो भी हो हमारा समय उस परिवर्तन का साक्षी है जब समाज में  कुंठाये, रूढ़ियां, परिपाटियां टूट रही हैं. समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है, अतः हमारी  पीढ़ी की चुनौती अधिक है. आज हम जितनी मूल्यनिष्ठा और गंभीरता से अपने  दायित्व का निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 39☆ व्यंग्य – बड़ी लकीर : छोटी लकीर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘बड़ी लकीर : छोटी लकीर’ एक बेहतरीन व्यंग्य है। हमारे जीवन में इन लकीरों का बड़ा महत्व है। हाथ की लकीरों से माथे की लकीरों तक। डॉ परिहार जी ने इन्हीं लकीरों में से छोटी बड़ी लकीरें लेकर मानवीय सोच का रेखाचित्र बना दिया है। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 39 ☆

☆ व्यंग्य – बड़ी लकीर : छोटी लकीर ☆

एक नीति-कथा पढ़ी थी। यदि किसी लकीर को छोटा करना हो तो उसे मिटाने की ज़रूरत नहीं। उसकी बगल में एक बड़ी लकीर खींच दो। पहली लकीर अपने आप छोटी हो जाएगी। यह बात आज की ज़िन्दगी में खूब लागू हो रही है। बहुत सी बड़ी लकीरें खिंच रही हैं और उनकी तुलना में बहुत सी लकीरें छोटी पड़ती जा रही हैं। इन छोटी लकीरों की हालत खस्ता हो रही है।

मेरे एक मित्र ने बड़ी हसरत से एक पॉश कॉलोनी में मकान बनवाया। उस वक्त उस कॉलोनी में बहुत कम मकान बने थे इसलिए बहुत खुला खुला था। उन्होंने बड़े प्यार से मकान का नाम ‘हवा महल’ रखा।

धीरे धीरे कॉलोनी भरने लगी। नये मकान बने और एक दिन उनकी बगल में एक रिटायर्ड ओवरसियर साहब ने भव्य दुमंज़िला भवन  तान दिया। ओवरसियर साहब के पुत्र विदेशों में धन बटोर रहे हैं। अब ओवरसियर साहब इस बाजू वाले मकान पर हिकारत की नज़र डालते, अपनी दूसरी मंज़िल की छत पर घूमते हैं। मेरे मित्र मन मसोस कर कहते हैं, ‘हमारा मकान तो अब सरवेंट्स क्वार्टर हो गया। ‘ मकान तो वही है लेकिन बड़ी लकीर ने छोटी लकीर की धजा बिगाड़ दी।

परसाई जी की एक कथा याद आती है। एक साहब के ट्रांसफर पर हुई विदाई-पार्टी में उनका एक सहयोगी फूट-फूट कर रो रहा था। जब उस दुखिया से उसके भारी दुख का कारण पूछा गया तो उसका जवाब था, ‘साला प्रमोशन पर जा रहा है।’

दरअसल अब सुख-दुख निरपेक्ष नहीं रहे,वे सापेक्षिक हो गये हैं। हमें मिले यह तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन असली सुख तभी मिलेगा जब पड़ोसी को हमसे कम मिले। ‘प्रभु! आपने हमको हज़ार दिये इसके लिए हम आपके अनुगृहीत हैं, लेकिन पड़ोसी को सवा हज़ार देकर सब गड़बड़ कर दिया। उसे पौन हज़ार पर ही लटका देते तो हम आपके पक्के भक्त हो जाते।’

हम घर में स्कूटर लाकर खुश हो रहे होते हैं कि हमारा पुत्र खबर देता है, ‘पापाजी, सक्सेना साहब के घर में नयी कार आ गयी है।’ तुरन्त हमें अपना नया-नवेला स्कूटर कबाड़ सा अनाकर्षक लगने लगता है।

हम दार्शनिक की मुद्रा अख्तियार करते हैं और खाँस-खूँस कर कहते हैं, ‘देखो बेटे, इन चीज़ों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। आवश्यकताओं का कोई अन्त नहीं है। कार हो या स्कूटर, कोई फर्क नहीं पड़ता।’

पुत्र ठेठ व्यवहारिक टोन में कहता है, ‘फर्क तो पड़ता है, पापा। कार और स्कूटर का क्या मुकाबला।’

पापा के पास सिवा चुप्पी साध लेने के और कुछ नहीं रह जाता और वह हज़ार साधों से खरीदा हुआ स्कूटर कोने में तिरस्कृत खड़ा रहता है।

आज दो नंबर की कमाई का ज़माना है। दो नंबर की कमाई में बड़ी बरकत होती है। दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती है। इसलिए इस तरह की कमाई वाली लकीरें बड़ी तेज़ी से बढ़ रही हैं। जो लकीरें अपने संस्कारों के कारण या मौका न मिलने के कारण दो नंबर की कमाई नहीं कर सकतीं वे इन बढ़ती लकीरों को देखकर छटपटा रही हैं। आज ईमानदार अफसर ईमानदार तो रहता है, लेकिन बेईमानों को फलते-फूलते देखकर हाय-हाय करता रहता है। अन्त में वह ईमानदारी के दो चार तमगे लटकाये, बुढ़ापे की चिन्ता से ग्रस्त, रिटायर हो जाता है। और जो जीवन भर समर्पित भाव से बेईमानी करते हैं, वे जेब में इस्तीफा डाले घूमते हैं। वे कल की जगह आज ही रिटायर होने को तैयार बैठे रहते हैं। ज़्यादा दिन नौकरी करने में फँसने का खतरा भी रहता है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #37 ☆ शाश्वत तो मिट्टी ही है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 37 ☆

☆ शाश्वत तो मिट्टी ही है ☆

हम पति-पत्नी यात्रा पर हैं। दाम्पत्य की साझा यात्रा में अधिकांश भौगोलिक यात्राएँ भी साझा ही होती हैं। बस का स्लीपर कोच.., कोच के हर कम्पार्टमेंट में एसी का असर बनाए रखने के लिए स्लाइडिंग विंडो है। निजता की रक्षा और  धूप से बचाव के लिए पर्दे लगे हैं। मानसपटल पर छुटपन में खेला ‘घर-घर’ उभर रहा है। इस डिब्बेनुमा ही होता था वह घर। दो चारपाइयाँ साथ-खड़ी कर उनके बीच के स्थान को किसी चादर से ढककर बन जाता था घर। साथ की लड़कियाँ भोजन का जिम्मा उठाती और हम लड़के फौजी शैली में ड्यूटी पर जाते। सारा कुछ नकली पर आनंद शत-प्रतिशत असली। कालांतर में हरेक का अपना असली घर बसा और तब  समझ में आया कि ‘दुनिया  जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है। मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ यों भी बचपन में निदा फाज़ली कहाँ समझ आते हैं!

जीवन को समझने- समझाने की एक छोटी-सी घटना भी अभी घटी। रात्रि भोजन के पश्चात बस में चढ़ रहा एक यात्री जैसे ही एक कम्पार्टमेंट खोलने लगा, पीछे से आ रहे यात्री ने टोका, ‘ये हमारा है।’ पहला यात्री माफी मांगकर अगले कम्पार्टमेंट में चला गया। अठारह-बीस घंटों के लिए बुक किये गए लगभग  6 x 3 के इस कक्ष से सुबह तक हर यात्री को उतरना है। बीती यात्रा में यह किसी और का था, आगामी यात्रा में किसी और का होगा। व्यवहारिकता का पक्ष छोड़ दें तो अचरज की बात है कि नश्वरता में भी ‘मैं, मेरा’ का भाव अपनी जगह बना लेता है। जगह ही नहीं बनाता अपितु इस भाव को ही स्थायी समझने लगता है।

निदा के शब्दों ने चिंतन को चेतना के मार्ग पर अग्रसर किया। सच देखें तो नश्वर जगत में शाश्वत तो मिट्टी ही है। देह को बनाती मिट्टी, देह को मिट्टी में मिलाती मिट्टी। मिट्टी धरातल है। वह व्यक्ति को बौराने नहीं देती पर सोना, कनक है।  ‘कनक, कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।’

बिहारी द्वारा वर्णित कनक की उपरोक्त सर्वव्यापी मादकता के बीच धरती पकड़े रखना कठिन हो सकता है, असंभव नहीं। मिट्टी होने का नित्य भाव मनुष्य जीवन का आरंभ बिंदु है और उत्कर्ष बिंदु भी।

इति।

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 9: 49 बजे, रविवार 25.2.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 24 – प्रेमालाप ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘प्रेमालाप । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 24  – विशाखा की नज़र से

☆ प्रेमालाप  ☆

 

प्रेम तू मुझे दोपहर की तपिश देना

भोर का चला जब तू अपने चरम पर होगा

पलटकर नई यात्रा पर आतुर होगा

इनके मध्य का तू क्षण देना

प्रेम तू मुझे अपनी दोपहर देना

 

प्रेम तू खिलना पुष्प की तरह मेरे भीतर

बीज, पौध, कली के सफ़र से

जब तू प्रफुल्ल हो पुष्प बनेगा

तब खिलकर बिखरने के मध्य का क्षण देना

प्रेम तू  अपना सम्पूर्ण देना

 

प्रेम तू तरंगित होना सस्वर मुझमें

सप्तसुरों से कई राग छेड़ना

बस सा से सा के बीच आलाप  में

तू पंचम  का स्वर बने रहना

प्रेम तू पावस  – पूरित – पुकार  देना

 

प्रेम, अबकी जब पूस की रात में

हल्कू संग जबरा ठंड में कातर

घुटना छाती से चिपकाये डटे होंगे

तब मैं दोपहर की तपिश बन

पंचम स्वर से जाडा साधुगी

खड़ी फसल का गीत गाऊँगी

समर्पित हो जाऊँगी

प्रेम, तब भी तू होना मेरे संग

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 13 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 13 – सीढियाँ ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- किस प्रकार पगली का बचपना बीता, ससुराल आई, सुहाग रात के दिन का उसका अनुभव बहुत अच्छा  नहीं रहा। उसकी सुहागरात उसके जीवन की अनकही कहानी बन कर रह गई। देर से ही सही उसकी गोद भरी, पति जहरीली शराब पीकर मरा, पुत्र आतंकी हिंसा में मरा। उसके जीवन की कहानी दर्द और पीड़ा की जीवंत मिसाल बन कर रह गई।  वह लगातार जीवन में घटने वाले दुख के पलों वाले घटनाक्रम को झेल नही पाई और पिता द्वारा बचपन में अनजाने में दिया संबोधन सच साबित हो गया।  वह सच में ही पागल बन गई।  इसी बीच घटी एक घटना नें पगली के हृदय को  ऐसी चोट पहुंचाई कि वह दर्द सह नहीं पाई।  वह अब दिन रात रोती रहती है। तभी इस घटना क्रम में एक नया मोड़ आया और  गोविन्द के रूप में एक नये कथा नायक का जन्म हुआ और वह पगली के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन कर उभरा। अब आगे पढ़े——-)

उस दिन पहली बार गोविन्द घर छोड़ कर बाहर निकला था मजबूर होकर। उसे बाहर का कोई ज्ञान न के बराबर था।  वह दो दिन से बिना कुछ खाये पिये सड़कों पर भटक रहा था। कही शरण नहीं  मिली उसे,
आखिर वह थक हार कर भूख से बिलबिलाता  हुआ शहर के मुख्य मस्जिद की सीढ़ियों पर पडा़ रोये जा
रहा था।  लोग आते नमाज पढ़ते, सिजदा करते चले जाते। किसी की निगहबानी में वह यतीम नही आया था।

वह खुदा के दर पर पड़ा। बस रोये जा रहा था, सहसा मस्जिद से निकलने वाले आखिरी शख्स बादशाह खान की निगाहें  उस यतीम पर पडीं, जिसने बादशाह खान के आगे बढते कदमों को थाम लिया था।  उसके बढ़ते कदम तब ठिठक गये थे, जब उसने रोते हुए अपरिचित बच्चे को देखा। तो चल पडे़ उसके कदम उस यतीम की ओर उसके आंसू पोंछने।  कहा भी गया है कि जमाने में जिसका कोई नहीं उसका खुदा होता है और यह बात उस समय अक्षरशः सत्य साबित हुई थी।  तो फिर खुदा के दर पर  पडे़ गोविन्द का भला कैसे नही होता।
गोविन्द ने अपनी सारी आप बीती रोते रोते ही सुनाई थी, जिसे सुनकर बादशाह खान की आंखें भर आईं थी।
उसनें उसे उसी क्षण खुदा की अमानत समझ अपने साथ रखने का संकल्प ले लिया। झिलमिल करते आंसुओं की कसक को उस रहमदिल इंसान ने उस दिन बडी़ शिद्दत से महसूस किया था। बादशाह खान बेऔलाद था।  उसने गोविन्द को खुदा की नजरें इनायत समझ अपनी औलाद की  तरह पाला था। बादशाह खान और उसकी  पत्नी राबिया नें उसे सगी औलाद से भी ज्यादा प्यार दिया था, वो दोनों ही उस पर। अपनी जान छिड़कते थे।  अपना सारा प्यार उसपर उड़ेल दिया था। अब बादशाह खान उसे अच्छे स्कूल में पढाने के साथ उसकी दीनी तालीम के लिए अपने एक ब्राह्मण मित्र को बतौर शिक्षक रख धार्मिक शिक्षा दिलाने का प्रबंध कर दिया था।  बादशाह खान एक नेक  रहमदिल खुदा का बंदा था।

धार्मिक कट्टरता का उससे दूर दूर तक कोई वास्ता नही था। वह सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता था। वह केवल इंसानियत का हामी था।  वह बेहद निडर तथा साहसी प्रकृति का इंसान था। उसका सिर केवल खुदा के दर पे झुकता था। उसमें इंसानियत का जज्बा कूट कूट कर भरा था। उसकी नेक परवरिश ने गोविन्द को भी इंसानियत का खिदमतगार बना दिया था। अब गोविन्द बड़ा हो चला था। पढा़ई के लिए कालेज भी जाने लगा था और  कालेज में एन सी सी में भर्ती हो गया था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 14 – मिलन

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सौंदर्य और प्रेम ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी की  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  सौंदर्य और प्रेम)

सौंदर्य और प्रेम  

सौंदर्यबोध

मन के प्रेम का चित्रण अबोध

आंखों के कैनवास पर

मन की तूलिका उकेरती

प्रीति की रीति, स्नेह की नीति

और वात्सल्य की पाती।।

सौंदर्य परिभाषा

उभरती प्रेम की भाषा

आंखों और मन की सँवरती पुतलियों में!!

मां की आंखों में

काला कलूटा बेटा

कान्हा श्यामसुंदर है

और बालक के मन में शूर्पणखा

सी मां

जग से न्यारी है सबसे प्यारी है – – –

सौंदर्य और प्रेम और कुछ नहीं

मन और आंखों का आशीष है–

दिल में बसा ईश है और प्रेम हर एक के हदय में बसा प्रेम मंदिर है।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 32 – चन्द्रमा की गति और तिथि विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “चन्द्रमा की गति और तिथि विज्ञान। )

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 32☆

☆ चन्द्रमा की गति और तिथि विज्ञान

अब ‘सोमवती के अर्थ को समझने की कोशिश करें, यह वह दिन है जो ‘सोम’ या ‘चंद्रमा’ का दिन है, जिसका अर्थ सोमवार है क्योंकि चंद्रमा का एक नाम ‘सोम’ भी है । तो सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहते हैं ।

सोमवार वह दिन है जब चंद्रमा ऊर्जा की अपने चरम पर होती है या ‘अमरता’ का ‘सोम-तरल’ वास्तव में चंद्रमा से गिरता है । दूसरी ओर, अमावस्या मेंपृथ्वी पर कोई चंद्रमा नहीं दिखता है । तो सोमवती अमावस्या उस समय की शुरुआत है जब पृथ्वी पर चंद्रमा की ऊर्जा का प्रवाह, शुद्ध और नए चक्र में शुरू होने वाली होती है । चंद्रमा की ऊर्जा हमारी मानसिक शक्तियों को प्रभावित करती है, जिसे हमारे शरीर के अंदर बायें ओर की शरीर नियंत्रक नाड़ी  ‘इड़ा’ द्वारा नियंत्रित किया जाता है । तो सोमवती अमावस्या के दिन मस्तिष्क शाँत रहता है और नए विचारों को एकत्र करने के लिए तैयार रहता है । कुछ नया विश्लेषण और योजना बनाने का यह सबसे अच्छा दिन होता है ।

ऐसे ही अश्विन माह के चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष की अष्टमी रात्रि को जब चन्द्रमा ‘मूल’ नक्षत्र और सूर्य ‘कन्या’ राशि में होता हैऔर अगर इस समय पर चन्द्रमा नवमी तिथि को स्पर्श हो जाता है, तो वह समय अति अति पवित्र होता है । इसे ‘अघारदाना’ नवमी या ‘महा नवमी’ कहा जाता है ।

हमारे चंद्रमा का चक्र सूर्य की तुलना में हमारे सांस्कृतिक संस्कारों से अधिक जुड़ा हुआ है, हालांकि हमारे अधिकांश अनुष्ठान दिन के अनुसार सूरज की रोशनी से होते हैं । चन्द्रमा की तिथि हमारे समारोह और उत्सवों में महत्वपूर्ण तत्व हैं । धार्मिक अनुष्ठान के महीने चंद्र के चक्र पर ही निर्भर हैं । चंद्र महीनों के अनुसार दो प्रकार से गणना होती हैं: ‘गुणचंद्र’ – पूर्णिमा से अगले पूर्णिमा तक गिना जाता है; और ‘मुख्यचंद्र’ – नए चंद्रमा से अगले नए चंद्रमा तक गिना जाता है । जब दो संक्रांतियों (जब चंद्रमा महीने की अवधि के दौरान सूर्य का स्थानांतरण राशि चक्र की एक राशि से दूसरी में होता है) समय के बीच दो नए चंद्रमा होते हैं, तब कुछ अवलोकनों के लिए वह समय अनुपयुक्त माना जाता है । ‘गुणचंद्र’ मास (महीना) सामान्य रूप से जन्म तिथि, जन्माष्टमी, शिवरात्रि, पितृ पक्ष आदि की गणनाओं में उपयोग किया जाता है । परन्तु सालाना श्राद्ध की गणनाओं में ‘मुख्य चंद्र’ का उपयोग किया जाता है ।

इतना ही नहीं अगर ‘रविवार’ कुछ विशेष तिथियों, नक्षत्रों, महीनों के साथ जुड़ जाये तो उनका अलग अलग महत्व होता है । इनके नाम भी अलग-अलग हैं कुल बारह ।

‘माघ’ महीने के छठे उज्ज्वल आधे भाग पर (शुक्ल पक्ष की छटी या षष्‍ठी तिथि), पड़ने वाले रविवार को ‘नंदा’ कहा जाता है ।

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में, इस रविवार को ‘भद्रा’ कहा जाता है ।

‘मार्गशीर्ष’ मास के शुक्ल पक्ष की छटी या षष्ठीम तिथि को पड़ने वाले रविवार को ‘कामदा’ कहा जाता है ।

दक्षिणायन में रविवार को ‘जया’ कहा जाता है जबकि उत्तरायण के रविवार को ‘जयंत’ कहा जाता है।

चन्द्रमा के रोहिणी नक्षत्र के साथ शुक्ल पक्ष की सप्तमी को पड़ने वाले रविवार को ‘विजया’ कहा जाता है ।

रविवार अगर चन्द्रमा के रोहिणी नक्षत्र या हस्ता नक्षत्र में पड़ रहा हो तो उसे ‘पुत्रदा’ कहा जाता है।

रविवार अगर ‘माघ’ माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को पड़े तो उसे ‘ आदित्याभिमुख’ कहा जाता है।

संक्रांति को पड़ने वाले रविवार को ‘ह्रदय’ कहा जाता है, जो भी इस रविवार को सूर्य के सामने एक सूर्य मंदिर में खड़ा होकर ‘आदित्य ह्रदय’ मंत्र का 108 बार जाप करता है, उसे अपने सभी दुश्मनों को नष्ट करने के लिए महान शक्ति मिलती है । रावण के साथ युद्ध के दौरान एक समय पर, भगवान राम युद्ध के मैदान में थक गए थे । यह देखकर ऋषि ‘अगस्त्य’ उनके पास पहुँचे और उन्होंने भगवान राम को यह मंत्र सिखाया । जिससे भगवान राम को सूर्य की शक्ति मिली और उन्होंने पुनः नये उत्साह से रावण से युद्ध किया ।

‘पूर्व फाल्गुनी’ नक्षत्र पर पड़ने वाले रविवार को ‘रोगहा’ कहा जाता है ।

सूर्य ग्रहण अगर रविवार को तो ऐसे रविवार को ‘महाश्वेत-प्रिया’ कहा जाता है । इस रविवार को ‘महाश्वेत’ मंत्र का जाप बहुत फायदेमंद होता है ।

ये सभी रविवार क्या संकेत देते हैं? सूर्य भौतिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है और रविवार वह दिन होता है जब सोमवार, मंगलवार इत्यादि दिनों की तुलना में पृत्वी पर मंगल, चन्द्रमा, बुद्ध आदि अन्य ग्रह ऊर्जा की तुलना में सूर्य की ऊर्जा अधिकतम, ताजा और सबसे पहले पहुँचती है ।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ # 24 ☆ नवदुर्गांचीऔषधी नऊ रुपे ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है। श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ ” में आज प्रस्तुत है  नौ देवियों के नवदुर्गा के औषधी रूप  कविता   “नवदुर्गांची औषधी नऊ रुपे”।  उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ नवदुर्गांचीऔषधी नऊ रुपे ☆ 

 

उपासना नवरात्री

आदिमाया देवीशक्ती

महालक्ष्मी महाकाली

बुद्धी दात्री सरस्वती !!१!!

 

नवरात्री तिन्हीदेवी

युक्त असे नऊ रुपे

औषधांच्याच रुपात

जगदंबेची ही रुपे !!२!!

 

श्रीमार्कण्डेय चिकित्सा

नवु गुणांनी युक्त ती

श्रीब्रह्मदेवही त्यास

दुर्गा कवच म्हणती !!३!!

 

नवु दुर्गांची रुपे ही

युक्त आहेत औषधी

उपयोग करुनिया

होती हरण हो व्याधी!!४!!

 

शैलपुत्री ती पहिली

रुप दुर्गेचे पहिले

हिमावती हिरडा ही

मुख्य औषधी म्हटले!!५!!

 

हरितिका म्हणजेच

भय दूर करणारी

हितकारक पथया

धष्टपुष्ट करणारी!!६!!

 

अहो कायस्था शरीरी

काया सुदृढ करीते

आणि अमृता औषधी

अमृतमय करीते !!७!!

 

हेमवती ती सुंदर

हिमालयावर दिसे

चित्त प्रसन्नकारक

तीच चेतकीही असे!!८!!

 

यशदायी ती श्रेयसी

शिवा ही कल्याणकारी

हीच औषधी हिरडा

सर्व शैलपुत्री करी !!९!!

 

ब्रह्मचारिणी दुसरी

स्मरणशक्तीचे वर्धन

ब्राह्मी असे वनस्पती

करी आयुष्य वर्धन!!१०!!

 

मन व मस्तिष्क शक्ती

करिते हो प्रदान ही

नाश रुधीर रोगाचा

मूत्र विकारांवर ही!!११!!

 

रुप तिसरे दुर्गेचे

चंद्रघण्टा नाम तिचे

चंद्रशूर, चमशूर

करी औषध तियेचे !!१२!!

 

चंद्रशूरच्या पानांची

भाजी कल्याणकारिणी

चर्महन्ती नाव तिचे

असे ती शक्तीवर्धिनी !!१३!!

 

चंद्रशूर, चंद्रचूर

कमी लठ्ठपणा करी

अहो हृदय रोगाला

हे औषध लयी भारी !!१४!!

 

रुप चवथे दुर्गेचे

तिला म्हणती कुष्माण्डा

आयुष्य वाढविणारी

तीच कोहळा कुष्माण्डा!!१५!!

 

पेठा मिठाई औषधी

पुष्टीकारी असे तीही

बल वीर्यास देणारी

युक्त हृदयासाठी ही !!१६!!

 

वायू रोग दूर करी

कोहळा सरबत ही

कफ पित्त पोट साफ

खावा कुष्माण्ड पाकही!!१७!!

 

रुप दुर्गेचे पाचवे

ही उमा पार्वती माता

हीच जवस औषधी

कफनाशी स्कंदमाता !!१८!!

 

रुप सहा कात्यायनी

म्हणे अंबाडी,मोईया

कण्ठ रोग नाश करी

हीच अंबा,अंबरिका !!१९!!

 

हिला मोईया म्हणती

हीच मात्रिका शोभते

कफ वात पित्त कण्ठ

नाश रोगांचा करीते !!२०!!

 

रुप दुर्गेचे सातवे

विजयदा,कालरात्री

नागदवण औषधी

प्राप्त विजय सर्वत्री !!२१!!

 

मन मस्तिष्क विकार

औषध विषनाशिनी

कष्ट दूर करणारी

सुंदर सुखदायिनी !!२२!!

 

रुप दुर्गेचे आठवे

नाम तिचे महागौरी

असे औषधी तुळस

पूजताती घरोघरी !!२३!!

 

रक्तशोधक तुळशी

काळी दवना,पांढरी

कुढेरक,षटपत्र

हृदरोग नाश करी!!२४!!

 

रुप दुर्गेचे नववे

बलबुद्धी विवर्धिनी

हिला शतावरी किंवा

अहो म्हणा नारायणी !!२५!!

 

बलवर्धिनी हृदय

रक्त वात पित्त शोध

महौषधी वीर्यासाठी

योग्य हेच हो औषध !!२६!!

 

दुर्गादेवी नऊ रुपे

अंतरंग भक्तीमय

करु औषधी सेवन

होऊ सारे निरामय !!२७!!

 

साभार:- लेख:-विवेक वि.सरपोतदार

लेखक भारतीय विद्येचे  lndologist व आयुर्वेद अभ्यासक.

संकलन :- सतीश अलोणी.

 

©®उर्मिला इंगळे

 

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 27 ☆ वक्त ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी की एक भावपूर्ण कविता  “ वक्त ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 27 ☆

☆ वक्त  ☆

चलने लगी पुरवाइयाँ हैं

खलने लगी तनहाइयाँ हैं

 

झूठ जब भी आया सामने

उड़ने लगी हवाईयां हैं

 

वक्त कुछ ऐसा भी आया

साथ न अब परछाइयाँ हैं

 

दर्द से हम गुजरे इस तरह

अब चुभती शहनाइयाँ हैं

 

अब संभल चलो ज़माने से

हरतरफ अब रुसवाईयाँ हैं

 

हम दिल को समझायें कैसे

“संतोष”बड़ी परेशानियाँ हैं

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 36 ☆ कलम से अदब तक ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  प्रेरकआलेख “कलम से अदब तक”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है।  जहाँ अदब नहीं है वहां  निश्चित ही अहम् की भावना होगी। अदब हमारे व्यवहार में ही नहीं हमारी लेखनी में भी होनी चहिये। अदब के अभाव में साहित्य सहज सरल और स्वीकार्य कैसे हो सकता है ?  इस आलेख की अंतिम पंक्तियाँ ‘चल ज़िंदगी नई शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ खुद से करते हैं’… ही हमारे लिए प्रेरणास्पद  कथन है।  यह सत्य है कि शुरुआत स्वयं से करें तभी हम अन्य से आशा रख सकते हैं। इस अतिसुन्दर एवं प्रेरणास्पद आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 36☆

☆ कलम से अदब तक 

‘अदब सीखना है तो कलम से सीखो, जब भी चलती है, सिर झुका कर चलती है।’ परंतु आजकल साहित्य और साहित्यकारों की परिभाषा व मापदंड बदल गए हैं। पूर्वोत्तर परिभाषाओं के अनुसार…साहित्य में निहित था…साथ रहने, सर्वहिताय व सबको साथ लेकर चलने का भाव, जो आजकल नदारद है। परंतु मेरे विचार से तो ‘साहित्य अहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है…भावों और संवेदनाओं का झरोखा है और समाज के कटु यथार्थ को उजागर करना   साहित्यकार का दायित्व है।’

साहित्य और समाज का चोली-दामन का साथ है। साहित्य केवल समाज का दर्पण ही नहीं, दीपक भी है और समाज की विसंगतियों-विश्रृंखलताओं का वर्णन करना, जहां साहित्यिकार का नैतिक कर्त्तव्य है, उसके समाधान सुझाना व प्रस्तुत करना उसका प्राथमिक दायित्व है। परंतु आजकल साहित्यकार अपने दायित्व का वहन कहां कर रहे है…अत्यंत चिंतनीय है, शोचनीय है। महान् लेखक मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि ‘कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है.. ताकतवर होती है’ अर्थात् जो कार्य तलवार नहीं कर सकती, वह लेखक की कलम की पैनी धार कर गुज़रती है। इसीलिए वीरगाथा काल में राजा युद्ध-क्षेत्र में आश्रयदाता कवियों को अपने साथ लेकर जाते थे और उनकी ओजस्वी कविताएं सैनिकों का साहस व उत्साहवर्द्धन कर, उन्हें विजय के पथ पर अग्रसर करती थीं। रीतिकाल में भी कवियों व शास्त्रज्ञों को दरबार में रखने की परंपरा थी तथा उनमें अपने राजाओं को प्रसन्न करने हेतु, अच्छी कविताएं सुनाने की होड़ लगी रहती थी। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए उन्हें मुद्राएं भेंट की जाती थीं। बिहारी का दोहा ‘नहीं पराग, नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल’ द्वारा राजा जयसिंह को बिहारी ने सचेत किया गया था कि वे पत्नी के प्रति आसक्त होने के कारण, राज-काज में ध्यान नहीं दे रहे, जो राज्य के अहित में है और विनाश का कारण बन सकता है। इसी प्रकार भक्ति काल में कबीर व रहीम के दोहे, सूर के पद, तुलसी की रामचरितमानस के दोहे-चौपाइयां गेय हैं, समसामयिक हैं, प्रासंगिक हैं…प्रात: स्मरणीय हैं। आधुनिक काल को भी भक्ति-कालीन साहित्य की भांति विलक्षण और समृद्ध स्वीकारा गया है। भारतेंदु, प्रसाद, महादेवी, निराला, बच्चन, नीरज आदि कवियों का साहित्य अद्वितीय है, उपादेय है।

सो! सत्-साहित्य वह कहलाता है, जिसका प्रभाव दूरगामी हो, लम्बे समय तक बना रहे तथा वह  परोपकारी व मंगलकारी हो, सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के विलक्षण भाव से आप्लावित हो। प्रेमचंद, शिवानी, मन्नु भंडारी, मालती जोशी, निर्मल वर्मा आदि लेखकों के साहित्य से कौन परिचित नहीं है? आधुनिक युग में भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, नीरज आदि का सहित्य शाश्वत है, समसामयिक है, उपादेय है। आज भी उसे भक्ति-कालीन साहित्य की भांति उतनी तल्लीनता से पढ़ा जाता है, जिसका मुख्य कारण है… साधारणीकरण अर्थात् जब पाठक ब्रह्मानंद की स्थिति तक पहुंचने के पश्चात् उसी मन:स्थिति में रहना पसंद करता है, उसके भावों का विरेचन हो जाता है…यही भाव-तादात्म्य साहित्यकार की सफलता है।

साहित्यकार अपने समाज का यथार्थ चित्रण करता है, तत्कालीन  समाज के रीति-रिवाज़, वेशभूषा, सोच, धर्म आदि को दर्शाता है…उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराता है… वहीं समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रकाश में लाना तथा उसके उन्मूलन का मार्ग सुझाना व दर्शाना…उसका दायित्व होता है। उत्तम साहित्यकार संवेदनशील होता है और वह अपनी रचनाओं के माध्यम से, पाठकों की भावनाओं को उद्वेलित व आलोड़ित करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर, सबके मनोभावों को झकझोरता व झिंझोड़ता है और सोचने पर विवश कर देता है कि वे गलत दिशा की ओर जा रहे हैं, दिग्भ्रमित हैं। सो! उन्हें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। सच्चा साहित्यकार सच्ची लोकप्रियता के पीछे नहीं भागता, न ही अपनी कलम को बेचता है, क्योंकि वह जानता है कि कलम का रुतबा इस संसार में सबसे ऊपर होता है। सो! कलम से इंसान को अदब सीखना चाहिए। कलम सिर झुका कर चलती है, तभी वह इतने सुंदर साहित्य का सृजन करने में समर्थ है। इसलिए मानव को उससे सलीका सीखना चाहिए तथा अपने अंतर्मन में विनम्रता का भाव जाग्रत कर सुंदर व सफल जीवन जीना चाहिए, ठीक वैसे ही…जैसे फलदार वृक्ष सदैव झुक कर रहता है तथा मीठे फल प्रदान करता है। इन कहावतों के मर्म से तो आप सब परिचित हैं… ‘अधजल गगरी, छलकत जाए’ तथा ‘थोथा चना, बाजे घना’ अहं भाव को प्रेषित करते हैं। इसलिए नमन व मनन द्वारा जीवन जीने के सही ढंग व महत्व को प्रदर्शित दिया गया है।

प्रार्थना हृदय से निकलने और ओंठों तक पहुंचने से पहले ही परमात्मा तक पहुंच जाती है… परंतु शर्त यह है कि वह सच्चे मन से की जाए। यदि मानव में अहंभाव नहीं है, तभी वह उसे प्राप्त कर सकता है। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है, केवल अपनी-अपनी हांकता है, दूसरे की अहमियत नहीं स्वीकारता और आत्मजों, परिजनों व परिवारजनों से बहुत दूर चला जाता है। परंतु एक लंबे अंतराल के पश्चात्, समय के बदलने पर वह अर्श से फ़र्श पर पर गिर जाता है और लौट जाना चाहता है…अपनों के बीच, जो संभव नहीं होता। अब उसे प्रायश्चित होता है, परंतु गुज़रा समय कब लौट पाया है? इसलिए मानव को अहं त्यागने व किसी भी हुनर पर अभिमान न करने की सीख दी गई है, क्योंकि पत्थर भी अपने बोझ से पानी में डूब जाता है, परंतु निराभिमानी मनुष्य संसार में श्रद्धेय व पूजनीय होता है।

विद्या ददाति विनयम् अर्थात् विनम्रता मानव का आभूषण है और विद्या हमें विनम्रता सिखलाती है… जिसका संबंध संवेदनाओं से होता है। संवेदना से तात्पर्य है… सम+वेदना… जिसका अनुभव वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके हृदय में प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, करुणा आदि भाव व्याप्त हों…जो दूसरे के दु:ख की अनुभूति कर सके। यह बहुत टेढ़ी खीर है…दुर्लभ व दुर्गम मार्ग है तथा इस स्थिति तक पहुंचने में वर्षों की साधना अपेक्षित है। जब तक व्यक्ति स्वयं को उसी दशा में अनुभव नहीं करता, उनके सुख-दु:ख में आत्मीयता नहीं दर्शाता …अच्छा इंसान भी नहीं बन सकता….साहित्यकार होना, तो बहुत दूर की बात है।

आजकल तो समाजिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि संवेदनाएं मर चुकी हैं, सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं और इंसान आत्म- केंद्रित होता जा रहा है। त्रासदी यह है कि वह निपट स्वार्थी इंसान, अपने अतिरिक्त किसी के बारे में सोचता ही कहां है? सड़क पर पड़ा घायल व्यक्ति जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते हुए, सहायता की ग़ुहार लगाता है, परंतु संवेदनशून्य व्यक्ति उसके पास से आंखें मूंदे निकल जाता हैं। हर दिन चौराहे पर मासूमों की अस्मत लूटी जाती है और दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर जला देने के किस्से भी आम हो गए हैं। लूटपाट, अपहरण, फ़िरौती, देह-व्यापार व मानव शरीर के अंग बेचने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। यहां तक कि हम अपने देश की सुरक्षा बेचने में भी कहां संकोच करते हैं?

परंतु कहां हो रहा है… ऐसे साहित्य का सृजन, जो समाज की हक़ीकत बयान कर सके तथा लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा हटा सके। परंतु आजकल तो सबको पद-प्रतिष्ठा, नाम-सम्मान व रुतबा चाहिए, वाहवाही चाहिए, जिसके लिए वे सब कुछ करने को तत्पर हैं, आतुर हैं अर्थात् किसी भी सीमा तक झुकने को तैयार हैं। यदि मैं कहूं कि वे साष्टांग दण्डवत् प्रणाम तक करने को भी तैयार हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

सो! ऐसे आक़ाओं का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है, जो नये लेखकों को सुरक्षा प्रदान कर, मेहनताने के रूप में खूब सुख-सुविधाएं वसूलते हैं। सो! ऐसे लेखक पलक झपकते, अपनी पहली पुस्तक प्रकाशित होते ही बुलंदियों को छूने लगते हैं, क्योंकि उनका वरद्-हस्त उन पर होता है। सो! उन्हें अर्श से फर्श पर आते भी समय नहीं लगता। आजकल तो पैसा देकर आप राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय अथवा अपना मनपसंद सम्मान खरीदने को स्वतंत्र हैं। वैसे आजकल तो पुस्तक के लोकार्पण की भी बोली लगने लगी है। आप पुस्तक मेले में  अपने मनपसंद सुविख्यात लेखकों द्वारा अपनी पुस्तक का लोकार्पण करा, प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा पी.एच.डी. व डी.लिट्. की मानद उपाधि प्राप्त कर, अपने नाम से पहले डॉक्टर लगाकर, वर्षों तक मेहनत करने वालों के समकक्ष या उनसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर, उन्हें धूल चटा सकते हैं, नीचा दिखला सकते हैं। परंतु ऐसे लोग अहंनिष्ठ होते हैं। वे कभी अपनी गलती स्वीकार नहीं करते, बल्कि दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप लगा अपन अहंतुष्टि कर सुक़ून पाते हैं। यह सत्य है कि जो लोग अपनी गलती नहीं मानते, किसी को अपना कहां मानेंगे… ऐसे लोगों से सावधान रहने में आपका हित है।

जैसे कुएं में उतरने के पश्चात् बाल्टी झुकती है और भरकर बाहर निकलती है…उसी प्रकार जो इंसान झुकता है, कुछ लेकर अथवा प्राप्त कर ही निकलता है। यह अकाट्य सत्य है कि संतुष्ट मन सबसे बड़ा धन है। परंतु ऐसे स्वार्थी लोग और…और…और की चाहना में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वैसे बिना परिश्रम के प्राप्त फल से आपको क्षणिक प्रसन्नता तो प्राप्त हो सकती है, परंतु उससे संतुष्टि व संतोष नहीं मिल सकता। इससे भले ही आपको पद-प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए, परंतु सम्मान नहीं मिलता। अंतत: आप दूसरों की नज़रों में गिर जाते हैं।

‘सत्य कभी दावा नहीं करता, कि मैं सत्य हूं और झूठ झूठ सदा दावा करता है कि मैं ही सत्य हूं और सत्य लाख परदों के पीछे से भी सहसा प्रकट हो जाता है।’ इसलिए सदैव चिंतन-मनन कर मौन धारण कर लीजिए और तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों। सो! मनन कीजिए, नमन स्वत: प्रकट हो जाएगा। जीवन में झुकने का अदब सीखिए, मानव-मात्र के हित के निमित्त समाजोपयोगी लिखिए… सब के दु:ख को अनुभव कीजिए। वैसे संकट में कोई नज़दीक नहीं आता, जबकि दौलत के आने पर दूसरों को आमंत्रण देना नहीं पड़ता…लोग आप के इर्द गिर्द मंडराते रहते हैं। इनसे बच के रहिए…प्राणी-मात्र के हित में सार्थक सृजन कीजिए। यही ज़िंदगी का सार है, जीने का मक़सद है। सस्ती लोकप्रियता के पीछे मत भागिए…इससे आप की हानि होगी। इसलिए सब्र व संतोष रखिए, क्योंकि वह आपको कभी भी गिरने नहीं देता…  सदैव आपकी रक्षा करता है। ‘चल ज़िंदगी नई शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ खुद से करते हैं’… इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares