हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “पानी “ का अंग्रेजी अनुवाद  Thoughts…” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )
☆ संजय दृष्टि  – विचार

मेरे पास एक विचार है

जो मैं दे सकता हूँ

पर खरीदार नहीं मिलता,

फिर सोचता हूँ

यों भी विचार के

अनुयायी होते हैं

खरीदार नहीं,

विचार जब बिक जाता है

तो व्यापार हो जाता है

और व्यापार

प्रायः खरीद लेता है

राजनीति, कूटनीति

देह, मस्तिष्क और

विचार भी..,

विचार का व्यापार

घातक होता है मित्रो!

 

©  संजय भारद्वाज

(गुरुवार दि. 14 जुलाई 2017, प्रातः 9 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 36 ☆ दो किनारे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण कविता  “दो किनारे “।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 36 – साहित्य निकुंज ☆

☆ दो किनारे

है ये जिंदगी के दो किनारे

साथ है प्रकृति के नजारे

बढ़ते जा रहे हैं गंतव्य की ओर।

मिलन की है, आतुर प्रतीक्षा

मिलन नहीं, है उनकी परीक्षा

होता है दुःख

पर है साथ रहने का सुख।

चाहते है ठहराव

पर

मिलेगी नहीं ठांव

प्रकृति है इसकी गवाह

ये पर्वत श्रृंखलाएं

दे रही है प्यार का संदेश

हरे भरे वृक्ष

और ये फिजाएं

मान रहे आदेश

चल रहे है सभी

एक ही दिशा

है सिर्फ यही आशा

कभी तो मिलेंगे किनारे

होंगे एक दूजे के सहारे।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 22 ☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “पर्दा”।  यह लघुकथा हमें जीवन  के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जिसे हम देख कर भी  अनजान बन जाते हैं । जब आँखों पर मोह का पर्दा पड़ता है तो सब कुछ जायज ही लगता है।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 22 ☆

☆ लघुकथा – पर्दा

 

“पापा! आज भाई ने फिर फोन पर अपशब्द बोले.”

“एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो.”

“आप दोनों के लिए भी अनाप-शनाप बोलता है.”

मुस्कुराकर – “अपने भाईसाहब की बातों को  प्रवचन की तरह सुनो, जो नहीं   चाहिए, छोड दो.”

“हमसे सहन नहीं होता है अब, फोन नहीं उठाउँगी उसका, बात करनी ही नहीं है उससे.”

“ऐसा नहीं कहते, एक ही भाई है तुम्हारा”

“और मेरा क्या?”

“भाई के मान – सम्मान का ध्यान रखो”

“मेरा मान – सम्मान ??”

“मेरी छोडिए, आप दोनों से इतने अपमानजनक ढंग से बोलता है, यह गलत नहीं है क्या?”

“बेटा है हमारा, हमसे नहीं बोलेगा तो किससे ——-”

“बेटी! तुम अपना कर्तव्य करती रहो  बस”

पिता की आँखों  पर मोह का  पर्दा  था.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 14 ☆ कविता – समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  समसामयिक दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 15 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

कामी को प्रिय नारि है,  धन लोभी का प्यार ।

हरि में जिसकी प्रीत है, उसका बेड़ा पार।।

 

धन की गतियाँ तीन हैं, दान, भोग औ नाश।

दान, भोग गति नीक है, अंतिम सत्यानाश।।

 

वही धन्य, धन धन्य है, जो जाए नित दान।

बुद्धि वही प्रिय धन्य है, हित चाहे कल्याण।।

 

दुख समझे वह संत है, हरि में जिसकी प्रीत।

जीवन उसका है सुफल, दान करे हित रीत।।

 

कंठ हार रिश्ते बनें, रखिए इन्हें सँभाल।

बोल तनिक बिगड़े नहीं, गाँठ पड़े तत्काल।

 

बात लगे हित की बुरी, करते हैं प्रतिकार।

ऐसे मानव हीन हैं, मूढ़,दीन, बेकार।।

 

साधु नहीं अब स्वादु हैं, करते अभिनय मस्त।

बने कुबेरा शूर सब, अपने में ही व्यस्त।।

 

धर्म जाति बदले यहाँ, बदले रीति रिवाज।

बढ़ी सोच,संकुल हुई, मन में पलते राज।।

 

महँगी चीजें बेचकर, बढ़ा रहे व्यापार।

बाबाजी गुण गा रहे, करें दिखाबी प्यार।।

 

अपनी गाते हैं कथा, अपने से ही प्यार।

अपने में ही आज सब, सिमट गया संसार।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “कुतर्क के तुर्क”।  इस बेहतरीन  समसामयिक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ 

☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆

नेता जी अपने युवा पोते को सिखा रहे थे कि वर्तमान में वही बड़ा नेता है जो अपने तर्क या कुतर्क के जरिये खुद को जनता के सामने सही साबित कर अपने पीछे भीड़ खड़ी कर सके। विदेश से एम बी ए युवा नेता ने जो हाल ही विदेश से वापस लौटकर पिताजी की कास्टीट्युएंसी में कुछ कर के फटाफट अपना वर्चस्व बना लेना चाहता है, अमेरिका और गल्फ के चंद उदाहरण देते हुये कहा, आप सही कह रहे हैं दादा जी यह समय दुनियां भर में कुतर्को को स्थापित करने का समय  है।

मूलभूत नैसर्गिक न्याय को भुलाकर, संविधान की मूल भावना को किनारे रखकर अपने कुतर्क के पक्ष में ढ़ूंढ़ निकाली गई किसी पंक्ति या शब्दावली  की गलत सही व्याख्या कर देश में बेवजह बड़े बड़े आंदोलन खड़े किये जा रहे हैं। अल्लारख्खा और रामभरोसे दोनो ही तर्क कुतर्क के झूले में झूलने पर विवश हैं।

बिना संदर्भ समझे युवा तुर्क वाहवाही लूटने के लिये नासमझो के बीच गजल पढ़ रहे हैं। कापी कैट का जमाना है, चूंकि किसी आंदोलन में फलां शायर की फलां गजल पढ़ी जाती थी तो ये जनाब कैसे पीछे रह जाते, गूगल भाई का माइक दबा कर जितना याद हो वे लफ्ज ही तो बोलने हैं, लीजीये पूरी गजल हाजिर है, बिना जाने बूझे, पढ़ डालिये और तालियां बजवाईये, टी वी पर सुर्खियां बटोरिये। सुनने वाले भी कहां किसी से कम हैं, उन्हें  भी कुछ खास लफ्ज ही सुनाई पड़े और पूर्वागृह से लबरेज जहर उगलने में उन्होंने देर न की।  बेचारी गजल और कब्र में बंद शायर सोशल मीडिया पर ट्रेड करने लगा।

समाज का और देश का जो नुकसान कुछ कीमती संपत्ति जलाने से हुआ उससे कही बहुत अधिक नुकसान पीढ़ियों में स्थापित लोगों के बीच बने परस्पर सामंजस्य में खटास पैदा कर, निरर्थक ध्रुवीकरण से हो रहा है। आज की  ग्लोबल होती, इंटर डिपेंडेंट दुनियां में क्या यह संभव है कि अपने अपने घरों, जातियों के संकुचित दायरों में रहकर देश, समाज चल सके ? इस संकुचन का अंत कहां है ? क्या डबल बेड पर भी अपने अपने कंबलो में सिमटन ही नेतागिरी का अंतिम लक्ष्य है ?  नही, पर यह सही तर्क उस कुतर्क के सामने बहुत छोटा है, जिसमें एक वर्ग विशेष का छद्म घमण्ड छिपा है कि उनके बाबा के बाबा के बाबा तो यहां के बादशाह थे भले ही आज वे तांगे चला रहे हों, या फिर दूसरे वर्ग की वह पीड़ा जिसके चलते संग्रहालय में रखी ५०० साल पुरानी मूर्ति को तोड़ने के जुर्म की सजा यदि तब नही दी जा सकी तो आज तो वह दी ही जानी चाहिये भले ही अपराधियो के वंशजो को दी जाये।

दर्शनशास्त्र में तर्क‍ या आर्ग्यूमेंट्स  कथनों की ऐसी श्रंखला होती है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी तथ्य के लिये राज़ी किया जाता है या उन्हें किसी व्यक्तव्य को सत्य मानने के लिये कारण दिये जाते हैं।  गणित, विज्ञान और तर्कशास्त्र में यह बिन्दु और अंत के निष्कर्ष औपचारिक तकनीकी भाषा में भी लिखे जा सकते हैं। कम्प्यूटर की तो सारी गणना पद्धति ही तर्क अर्थात लाजिक पर ही आधारित है। एक बंद घड़ी भी कुतर्क की भाषा में पांच मिनट तेज चलने वाली घड़ी से बेहतर कही जा सकती है, क्योकि बंद घड़ी २४ घंटो में कम से कम दो बार तो बिल्कुल सही समय बताती है। अरस्तु वे पहले दार्शनिक थे जिन्होने कुतर्को को भी सूचीबद्ध किया था।तो एक गजलगो के नाते अपना तो यही तर्क है कि शब्दो के नही भावनाओ के सही निहितार्थ समझने की जरूरत है, सबको बड़े दिल से बड़े काम करने के लिये एक जुट होना चाहिये, नेतागिरी चमकाने के चक्कर में जनता को बरगलाने के कुतर्क आज नही तो कल पकड़े ही जायेंगे।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 37 – बोझ  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बोझ  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #37 ☆

☆ लघुकथा – बोझ  ☆

 

“क्या हुआ था, हेड साहब ?”

“कोई ट्रक वाला टक्कर मार गया. बासाहब की टांग कट गई. लड़का मर गया.”

पुलिस वाले ने आगे बताया, ” इस के तीन मासूम बच्चे और अनपढ़ बीवी है.”

सुनते ही मोहन दहाड़ मार कर रो पड़ा,” भैया ! कहाँ चले गए. मुझ गरीब बेसहारा के भरोसे अपाहिज बाप, बेसहारा बच्चे और अपनी बीवी को छोड़ कर. अब मैं इन्हें कैसे संभालूँगा.”

और वह इस मानसिक बोझ के तले दब कर बेहोश हो गया .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆ पुनरागमन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “पुनरागमन।  यह सत्य ही है कि पुराना इतिहास  एक कालखंड के पश्चात दोहराया जाता है। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆

☆ पुनरागमन

आगमन, पुनरागमन की प्रक्रिया कोई नयी नहीं है।  जीवन की हर गतिविधियाँ 20 साल बाद दोहरायी जाती हैं। जैसे फैशन को ही लें आजकल जो कपड़ों का चलन बढ़ रहा है वो सब पुराने इतिहास को ही दुहरा रहा है बस हमारा देखने का नज़रिया बदल गया है और उस पहनावे को आधुनिक मान लेते हैं। यही चीज खान पान के क्षेत्र में भी देखने को मिलती है। पुराने समय में भी इनोवेशन होते थे जिसके फलस्वरूप नयी – नयी वैरायटी स्वाद की श्रंखलाओं से निरंतर जुड़ती जा रही है।  आजकल हर वस्तुएँ ऑन लाइन  बुलायी जा रहीं हैं। ये भी कोई अजूबा नहीं है। लाइन में तो हम सब बरसों से लग रहे हैं। कभी राशन के लिए तो कभी यात्रा के टिकट हेतु, कभी चुनावी टिकट हेतु, बिजली के बिल जमा हेतु, बैंक में खाता ऑपरेट करने हेतु । ऐसे ही न जाने कितने कार्य हैं जहाँ लम्बी लाइन लगती है। सो बदलते परिवेश में आधुनिकीकरण हो गया और ऑन लाइन की परंपरा आ बैठी।  मन पसन्द भोजन,  कपड़े, दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, रोजमर्रा की सभी वस्तुएँ मिलने लग गयी हैं।

अरे भई चाँद और मंगल पर भी तो बसेरा करना है कहाँ तक लाइनों में समय व्यर्थ करें अब तो हवा में उड़ने का समय आ गया है। वैसे भी मन की उड़ान सदियों से सबसे तेज रही है। बस कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और चल पड़िये जहाँ जी चाहे। वैज्ञानिकों ने भी सतत परिवर्तन को स्वीकार किया है। साथ ही ये भी माना है कि गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाते हैं सो फैशन भी आता – जाता रहता नये- नये संशोधनों के साथ। संशोधन की बात पर तो संविधान संशोधन की बात याद आ गयी जिसका समय – समय पर मूल्यांकन होता रहता है  जो होना भी चाहिए क्योंकि लोग बदल रहे हैं कब तक पुराना चलेगा। नयी विचारधारा का स्वागत करना चाहिए।   तभी तो आगमन- पुनरागमन का सिद्धान्त सत्य सिद्ध होगा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 35 – पुस्तक ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “पुस्तक ”)

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #35☆ 

☆ पुस्तक ☆ 

पुस्तकांच्या

दुकानात

गेल्यावर

मला

ऐकू येतात..;

पुस्तकात

मिटलेल्या

असंख्य

माणसांचे

हुंदके.. ;

आणि.. . . .

दिसतात

पुस्तकांच्या

मुखपृष्ठावर

ओघळलेले

आसवांचे

काही थेंब…!

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 36 – मछलियों को कायदे से…. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की एक विचारणीय कविता  “मछलियों को कायदे से….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 36 ☆

☆ मछलियों को कायदे से…. ☆  

 

आजकल वे सेमीनारों में

हुनर दिखला रहे हैं

मछलियों को कायदे से

तैरना सिखला रहे हैं।

 

अकर्मण्य उछाल भरते मेंढकों से

‘जम्प’ कैसे लें, इसे सब जान लें

और कछुओं से रहें अंतर्मुखी तो

आहटें खतरों की तब पहचान लें।

मगरमच्छ नृशंष,

लक्षित प्राणियों को मार कर

हर्षित हृदय से निडर हो

जो खा रहे हैं। मछलियों को कायदे………

 

वे सतह पर अंगवश्त्रों से सुसज्जित

किंतु गहरे में रहे बिन आवरण है

वे बगूलों से, सफेदी  में  छिपाए

कालिखें, कल्मष, कुटेवी आचरण है।

साधनों के बीच में

लेकर हिलोरें झूमते वे

साधना औ’ सादगी के

भक्ति गान सुना रहे है। मछलियों को कायदे………..

 

कर रहे हैं मंत्रणा मक्कार मिलकर

हवा, पानी, पेड़-पौधे, खेत, फसलें

हों नियंत्रण में, सभी इनके रहम पर

बेबसी, लाचारियों से ग्रसित नस्लें।

योजनाएं योजनों हैं दूर

अंतिम आदमी से

चोर अब आयोजनों में

नीतिशास्त्र  पढ़ा रहे हैं।

मछलियों को कायदे से

तैरना सिखला रहे हैं।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 38 – अनुभव ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  एक अतिसुन्दर कविता  “*अनुभव*.  सुश्री प्रभा जी की  यह  कविता हमें स्त्री विमर्श से जोड़ती है। निःसंदेह प्रत्येक स्त्री पुरुष का स्वभाव उनकी वैचारिकता को दर्शाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अपने तरीके से जीता है।  जैसे वह जीता है , वैसा ही उसका अनुभव होता है।  संभवतः इस कविता में कहीं न कहीं कवियित्री का अनुभव अपने आप लेखनी के माध्यम से  हृदय से कागज़ पर उतर आता है। इस अतिसुन्दर कविता के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 38 ☆

☆ अनुभव  ☆ 

 

आपण वेगळे आहोत इतरांपेक्षा,

हे जाणवले तिला—

त्या सा-याजणीं च्या

घोळक्यात!

 

नवीन  घरात रहायला गेल्यावर

समवयस्क बायकांशी

गप्पा मारायला गेली होती ती,

सोसायटीच्या बागेत!

 

उद्या वटपौर्णिमा आहे…

“कुठे जाणार वडाची पूजा करायला?”

“मी फांदी आणणार आहे.”

अशा  आणि या सारख्याच…

पारंपरिक वळणाच्या…..

गप्पा मधे ती नाही

रमत….

गेली कित्येक वर्षे!

त्या पेक्षा ऐकावी

एकांतात रफी ची जुनी गाणी

लता… आशा…गीता दत्त..

चे तलम रेशमी स्वर..

घ्यावेत लपेटून मनावर…

बाल्कनीत ल्या झोक्यावर बसून

वाचावी गौरी देशपांडे….

सानिया…

अंबिका सरकार…

ईरावती कर्वेंची जुनी संग्रहित

पुस्तके…पुनःपुन्हा!

 

एवढे संपन्न  अनुभव पाठीशी

असताना—

कुठल्याही पठडीत नाही बसवता येत स्वतःला!

आयुष्याची सांज कातर होते…

 

जे हवे  असते ते हरवत जाते….

इथे तिथे….

 

हा ही एक  अनुभवच ….

वेगळेपण जपण्याचा!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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