(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । उन्होने यह साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकार किए इसके लिए हम हृदय से आभारी हैं। प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की प्रथम कड़ी में उनकी एक कविता “तुम्हें सलाम”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति कोम. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है सुश्री अनुभा जी का आत्मकथ्य। इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)
सपने देखना मानवीय स्वभाव है , यह मानवीय विशेषता ही नही सामर्थ्य भी है, जो अन्य प्राणियों में दुर्लभ है |सामर्थ्य इसलिये कि हम स्वयं भी सपनों को आमंत्रित कर सकते हैं, किसी व्यक्ति, घटना, मौसम, व्यवहार विशेष
के सपने देखना चुन सकते हैं। आप कहेंगे कि सपने तो स्वयं आते हैं उन पर हमारा नियंत्रण कहाँ जो हम तय कर सकें कि हमें किस तरह का सपना देखना है। आप की बात भी सही है, लेकिन यकीन कीजिये आप सपने कहीं भी, कभी भी देख सकते हैं आवश्यक है कि आप सपने देखना जानते हों और इस काम मे आनंद प्राप्त करते हों।
सामान्यत: सपने नींद मे आते हैं और इस प्रकार के सपनों पर हमारा कोई नियंत्रण नही होता। ऐसे सपने पूर्व अनुभवों, भविष्य की चिंता या अन्य किसी भी कारण से आ सकते हैं, चुंकि सपने मस्तिष्क द्वारा देखे जाते हैं इसलिये हमारा निंद्रा मे होना इन सपनों को देखने में बाधक नही, बल्कि सहायक हो जाता है। नींद मे आने वाले सपने हमारी तात्कालिक मानसिक दशा के अनुरुप होते हैं और सामान्यत: अनियंत्रित होते हैं जब हम निंद्रा मे होते हैं तब भी हमारा मस्तिष्क सोचता रहता है, विभिन्न चित्र बनाता रहता है जो चलचित्र के समान बदलते रहते हैं, जिसमे अक्सर अस्पष्ट, और विचित्र घटनाऐ, संवाद और रंगीन अथवा रंगहीन आकृतियाँ हो सकती हैं। ये स्वप्न मनोविज्ञान का विषय हैं.मनोवैज्ञानिक इन स्वप्नों पर व्यापक अनुसंधान कर रहे हैं पर अब तक किसी तार्किक तथ्य तक नहीं पहुंच पाये हैं।
दूसरी ओर ऐसे सपने होते हैं जो हम जाग्रत अवस्था मे देखते हैं जिन्हें हम कभी भी, कहीं भी देख सकते हैं, वास्तव मे ऐसे सपने पूर्णत: सपने न होकर विचार-मग्न होने की उच्चतम अवस्था होते है जिसमे हम भविष्य की कार्य योजना बनाते हैं, ऐसा हम अपना काम करने के दौरान भी बिना किसी बाधा के कर सकते हैं। सपने देखने और सपने आने मे यही बुनियादी अंतर है जो सपने देखने कि प्रक्रिया को महत्वपूर्ण बनाता है।
आखिर यह सपने देखना होता क्या है? सपने देखने का मतलब उन दिवास्वप्नों से नहीं है जो मानसिक जुगाली से ज्यादा कुछ भी नहीं, आशय है उन वैचारिक सपनों से, जो गहन मंथन और किसी संभावित कार्य व उद्देश्य के प्रभावों का पूर्व आकलन करते हैं जिसे अंग्रेजी भाषा मे “विज्युलाइज” करना कहा जाता है। अर्थात सपने सृजन करने से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमे किसी कार्य को करने का संकल्प हो तथा उस कार्य को होते हुए “विज्युलाईज” किया गया हो। हम यह भी कह सकते हैं कि ऐसे सपने देखना एक रचनात्मक कार्य है और ये सपने देखने के लिये दूरदृष्टि, उमंग, उत्साह और साहस की आवश्यकता होती है। ये सपने आपकी कार्य क्षमता को बहुगुणित कर देते हैं, आसन्न कठिनाईयों के प्रति सचेत कर आपकी कार्य योजना को परिष्कृत कर देते हैं. ये ही वे सपने हैं जिन्हें सकारात्मक, सृजन शील, कल्पना कहा जाता है. प्रत्येक महान कार्य होने से पहले मन में विचार रूप में अंकुरित होता है, फिर सपने के रूप में पल्लवित होता है, तब संसाधन जुटाये जाते हैं और फिर उसे मूर्त रूप दिया जाता है. इसका सीधा सा अर्थ है कि हम कितनी और कैसी सफलता प्राप्त करेंगे यह इस पर आधारित है कि हम कैसे सपने बुनते हैं? कितनी गहराई तक उनसे जुड़ते हैं और कितनी तन्मयता से अपने सपनों को सच करने में जुट जाते हैं. तो जीवन में सफलता पाने के लिये आप भी देखिये कुछ ऐसे सकारात्मक सपने, और जुट जाइये उन्हें सच करने में. सपने वे नहीं होते जो हम सोते समय देखते हैं, सपने वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते.
(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं। सुश्री रंजना इस एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं। सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से जुड़ा है एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है। निश्चित ही उनके साहित्य की अपनी एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है ऐतिहासिक कविता – गड किल्ले )
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ा एवं सराहा जाता रहा है। अब आप समय-समय पर उनकी रचनाओं को पढ़ते रहेंगे । इसके अतिरिक्त हम प्रति रविवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक से उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “भलाई” जो निश्चित ही आपको है जीवन में घट रही घटनाओं के विश्लेषण के लिए विचार करने हेतु बाध्य करेगी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 2 ☆
☆ भलाई ☆
बैंक का काउंटर। गहमागहमी। पैसा निकालते, जमा करते, बेंचों पर अपनी बारी का इंतज़ार करते लोग। दरवाज़े पर बंदूकधारी दरबान।
कैश काउंटर पर पैसा निकालकर उसे गिनते हुए एक व्यापारी। नोटों की मोटी मोटी गड्डियाँ। बगल में दबा हुआ चमड़े का बैग।
तभी बगल में खड़ा एक सामान्य वस्त्रों वाला लड़का बोला, ‘देखिए, आपका नोट गिर गया।’
व्यापारी ने गिनना रोककर घूरकर पहले लड़के को देखा, फिर पैरों के पास पड़े दस के नोट की तरफ। फिर उसने बिना गिने ही नोटों को बैग में ठूँसना शुरू कर दिया। सब गड्डियाँ ठूँस देने के बाद उसने बैग कैशियर की तरफ बढ़ा दिया। कहा, ‘ज़रा रखना।’
फिर उसने घूमकर लड़के का कालर पकड़ लिया। घूँसे ही घूँसे। लड़के की नाक से रक्त बहने लगा। दौड़-भाग मच गयी। कर्मचारी भी दौड़े। बाहर से दरबान भागता आया। ‘क्या बात है? क्या हुआ?’
व्यापारी लड़के का कालर पकड़े, हाँफते हाँफते बोला, ‘साला ठग है। नीचे पड़ा हुआ नोट दिखाकर मेरा पैसा पार करना चाहता था।मैं बेवकूफ नहीं हूँ।’
लड़का हतप्रभ और दर्द से बेहाल। तभी बेंच पर से गोल टोपी लगाये एक वृद्ध उठे। लड़के की हालत देखकर मर्माहत होकर बोले, ‘अरे यह क्या? इसे क्यों मारा?’
एक क्लर्क भी बोला, ‘यह शेवड़े जी का लड़का है। महाराष्ट्र स्कूल में पढ़ता है। यह ऐसा काम नहीं करेगा।’
लड़का अपनी साँस वापस पाकर आँखों में आँसू लिये बोला, ‘नोट आपके कुर्ते की जेब से गिरा था। ज़रा देखिए।’ उसने कुर्ते की जेब की तरफ इशारा किया।
व्यापारी ने देखा, एक और दस का नोट कुर्ते की जेब से सटकने के चक्कर में बाहर झाँक रहा है।
व्यापारी सिकुड़ गया। जेब से रूमाल निकालकर लड़के का खून पोंछा। वृद्ध से हाथ जोड़कर बोला, ‘साहब, बहुत गलती हो गयी। मैं क्या करूँ?आजकल लोग इसी तरह ठगते हैं। लड़के ने तो अच्छे मतलब से कहा था, लेकिन मुझे भरोसा नहीं हुआ।’
मामला ठंडा हो गया। जल्दी ही सब कुछ सामान्य हो गया और दरबान फिर दरवाज़े पर मुस्तैद हो गया। लेकिन अति-सावधानी का कीड़ा जो पहले व्यापारी के दिमाग़ में कुलबुलाता था, अब उड़ कर लड़के के दिमाग़ में कुलबुल करने लगा।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला के अंश “स्मृतियाँ/Memories”।
आज प्रस्तुत है इस लेखमाला की दूसरी कड़ी “बटुवा” जिसे पढ़कर आप निश्चित ही बचपन की स्मृतियों में खो जाएंगे। किन्तु, मुझे ऐसा क्यूँ लगता है कि युवा साहित्यकार आशीष का हृदय समय से पहले बड़ा हो गया है या समय ने उसे बड़ा कर दिया है।? बेहद सार्थक रचना। )
☆ स्मृतियाँ/Memories – #2 – बटुवा ☆
बटुवा
स्कूल में एक दोस्त के पास देखा तो मैं भी जिद्द करने लगा
पापा ने दिला दिया, पूरे 9 रूपये का आया था ‘बटुआ’
मैं बहुत खुश था की अपनी गुल्लक में से निकालकर दो, एक रुपये और एक दो रुपये का नोट अपने नए बटुए में रखूँगा
उस बटुए में पीछे की तरफ दो जेबे थी
एक छोटे नोटों के लिए और दूसरी उसके पीछे वाली बड़े नोटों के लिए
उन जेबो में रखे छोटे नोटो के पीछे रखे बड़े नोट ऐसे लगते थे जैसे कि छोटेऔर बड़े छज्जे पर एक दूसरे के आगे पीछे खड़े होकर कॉलोनी से जाती हुई कोई बारात देख रहे हो ।
कुछ नोटो का लगभग पूरा भाग जेब में अंदर छुपा होता था और एक कोना ही दिखता था जैसे बच्चे पंजो पे उचक उचक कर देखने की कोशिश कर रहे हो ।
उन जेबो के आगे एक तरफ एक के पीछे एक, दो जेबे थी जिनमे से एक में पारदर्शी पन्नी लगी थी ।
उसमे मैने कृष्ण भगवान का माखन खाते हुए एक फोटो लगा दिया था ।
उसके पीछे की जेब में मैंने मोरपाखनी की एक पत्ती तोड़कर रख ली थी क्योकि स्कूल मैं कई बच्चे कहते थे की उससे विद्या आती है ।
दूसरी तरफ की जेब में एक बटन भी लगा था, उस जेब में मैंने गिलट के कुछ सिक्के अपनी गुल्लक में से निकालकर रख लिए थे। एक दो रुपये का सिक्का था बाकि कुछ एक रूपये और अट्ठनियाँ थी शायद एक चवन्नी भी थी पर वो चवन्नी बार बार उस जेब के फ्लैप में से जो बीच से उस बटन से बंद था बार बार निकल जाती थी ।
तो फिर मैने उस चवन्नी को गुल्लक में ही वापस डाल दिया था ।
एक दिन तो जैसे बटुवे की दावत ही हो गयी जब घर पर आयी बुआ जाते जाते टैक्टर वाला पाँच रुपये का नोट मुझे दे गयी ।
एक बार सत्यनारायण की कथा में भगवान जी को चढ़ाने के लिए गिलट का सिक्का नहीं था। तो मैने मम्मी को अपने बटुवे की आगे वाली जेब से निकल कर एक रूपये का सिक्का दिया । ये वही सिक्का था जो जमशेद भाई की दुकान पर जूस पीने के बाद उन्होंने बचे पैसो के रूप में दिया था ।
मैं हैरान था कि जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का भगवान जी को चढ़ाने के बाद भी भगवान जी नाराज़ नहीं हुए । शयद आज जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का भगवान जी को चढ़ाता तो वो नाराज़ हो जाते और कहते ‘बेवकूफ़ मुझे किसी पंडित जी का दिया हुआ सिक्का ही चढ़ा’ वैसे अब तो जमशेद भाई और मैं दोनों ही hi tech हो गए है मोबाइल से ही एक दूसरे को पैसे दे देते है ।
लेकिन मुझे ऐसा लगा की उस दिन जमशेद भाई का दिया हुआ सिक्का चढ़ाने के बाद भगवान जी और भी ज्यादा खुश हो गए है ।
अब salary (वेतन) आती है और सीधे bank account में transfer होती है ।
बटुवा तो अब भी है मेरे पास बहुत ज्यादा महंगा और luxurious है ।
पर उसमे अब छोटे छोटे नोट नहीं रखता, एक दो बड़े बड़े नोट होते है और ढेर सारे plastic के card
ऐसा लगता है की इतने समय मे भी बटुवे का उन plastic के कार्डो (cards) के साथ रिश्ता नहीं बन पाया है ।
एक दिन मैने बटुवे से पूछ ही लिया की इतना समय हो गया है अभी तक cards से तुम्हारी दोस्ती नहीं हुई?
तो वो नम आँखो से बोला, ” जब मेरे अंदर नोट रखे जाते थे तो वो मेरा बड़ा आदर करते थे। मुझे तकलीफ ना हो इसलिए अपने आप को ही इधर उधर से मोड़ लिया करते थे । पर ये card तो हमेशा अकड़े ही रहते है और मुझे ही झुक कर अपने आप को इधर उधर से तोड़ मोड़ कर इन्हे अपनाना पड़ता है”
अब मेरे बटुवे में चैन है जिससे कि कोई सिक्का बटुवे से बहार ना गिर पाये
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। हम डॉ. मुक्ता जी के हृदय से आभारी हैं , जिन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया। अब आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनों से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता “अनचीन्हे रास्ते”। डॉ मुक्ता जी के बारे में कुछ लिखना ,मेरी लेखनी की क्षमता से परे है। )
डॉ. मुक्ता जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –
राजकीय महिला महाविद्यालय गुरुग्राम की संस्थापक और पूर्व प्राचार्य
“हरियाणा साहित्य अकादमी” द्वारा श्रेष्ठ महिला रचनाकार के सम्मान से सम्मानित
“हरियाणा साहित्य अकादमी “की पहली महिला निदेशक
“हरियाणा ग्रंथ अकादमी” की संस्थापक निदेशक
पूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी जी द्वारा ¨हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार” से सम्मानित । डा. मुक्ता जी इस सम्मान से सम्मानित होने वाली हरियाणा की पहली महिला हैं।
साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपकी 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता संग्रह, कहानी, लघु कथा, निबंध और आलोचना पर लिखी गई आपकी पुस्तकों पर कई छात्रों ने शोध कार्य किए हैं। कई छात्रों ने आपकी रचनाओं पर शोध के लिए एम फिल और पीएचडी की डिग्री प्राप्त की हैं।
कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा सम्मानित
सेवानिवृत्ति के बाद भी आपका लेखन कार्य जारी है और कई पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं।
(समाज , संस्कृति, साहित्य मेंही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वालेकविराज विजय यशवंत सातपुते जी कीसोशल मीडियाकीटेगलाइन“माणूस वाचतो मी……!!!!”ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए कविराज विजय जी ने यह साप्ताहिक स्तम्भ “समाजपारावर एक विसावा…. !” शीर्षक से लिखने के लिएहमारेआग्रह को स्वीकार किया, इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प पहिले ….” ।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समाजपारावर एक विसावा #-1 ☆
☆ पुष्प पहिले .. . ☆
समाज पारावर माणूस माणसाला भेटतो. माणसाचे अंतरंग उलगडून एक समाज स्पंदन वेचण्याचा अनोखा प्रयत्न या स्तंभलेखनातून करणार आहे संवादी माध्यमातून सोशल नेटवर्किंग साईट वरुन वैचारिक देवाणघेवाण होत आहे.
*अक्षरलेणी* या कवितासंग्रहाच्या दोन यशस्वी आवृत
माणूस माणसाला घडवतो, बिघडवतो आणि सोबत घेऊन अनेक विकासकामे करू शकतो. प्रत्येक व्यक्तीचे विचार वेगवेगळे असतात. विचार पटले की संवाद घडतो. संवादातून नियोजन आखणी केली जाते. कार्य कौटुंबिक असो, सांस्कृतिक असो, साहित्यिक असो परस्परांशी साधलेला संवाद महत्वाचा ठरतो.
हा संवाद व्यक्तीशी संस्कारीत जडण घडण त्याला जीवन प्रवासात नवनवीन वाटा उपलब्ध करून देतो. समाज प्रियतेच किंवा समाजाभिमुख रहाण्याच वरदान माणसाला जन्मजात लाभले आहे.
समाज समाज म्हणजे नेमके काय? समाज म्हणजे कोणतीही जात नव्हे, कोणताही पंथ नव्हे. व्यक्ती स जन्म देणारे त्याचे आई वडील हा पहिला समाज.
बालपणात संपर्कात आलेले समवयस्क सवंगडी, शाळू सोबती हा दुसरा समाज, जीवनाच्या कुठल्याही टप्प्यावर ज्ञानदान करणारे गुरूजन हा तिसरा समाज, बालपण, तारूण्य, वृद्धावस्था यात सुखदुःखात सामिल होणारा चौथा समाज, आणि आपल्या कार्यकर्तृत्वाच्या प्रभावाने प्रेरित होऊन त्याचे बरे वाईट परिणाम भोगणारा पाचवा समाज माणसाला सतत जाणीव करून देतो. तो माणूस असल्याची.
माणसाचं माणूसपण त्याच्या आचारविचारात, दैनंदिन लेखन कला व्यासंगात,त्याच्या कार्य कर्तृत्वात आणि माणसाने माणसावर ठेवलेल्या विश्वासात अवलंबून असते. हा विश्वास माणसाला धरून रहातो तेव्हा तो माणूस समाजप्रिय होतो. समाज प्रिय माणसे जीवनात यशस्वी झाली की आपोआप समाजाभिमुख होतात. हा समाज तेव्हा माणसाला नवा विचार देतो. विचारांची दिशा त्याला कार्यप्रवण ठेवते. त्याच्या या जीवनप्रवात कुठे तरी आपले माणूस सोबत असावेसे वाटते.
ही सोबत, हा विसावा शब्दातून, अक्षरातून, विचारातून, मार्गदर्शनातून ,प्रोत्साहनातून मनाला जेव्हा मिळते ना तेव्हा ही अनुभवांची शिदोरी माणसाला वैचारिक मेजवानी देते. एक निर्भेळ आनंद देते. हे वैचारिक खाद्य माणसाला आयुष्यभर पुरते. त्याचा जीवनप्रवास समृद्ध करते. हा विसावा ही वैचारिक बैठक वेगवेगळ्या जीवनानुभुतीतून माणसाला विसावा देते. जगायचे कसे? याचे उत्तर देखील या पारावर सहजगत्या उपलब्ध होते.
माणूस जेव्हा माणसाच्या संपर्कात येतो ना तेव्हा तो ख-या अर्थाने विकसित होतो. त्याचे हे विकसन त्याला जगाची सफर घडवून आणते. कुठल्याही परिस्थितीत खंबीरपणे जगायला शिकवते. मान, पान, पद, पैसा , प्रतिष्ठा मिळवून देण्याचा राजमार्ग याच समाजपाराला वळसा घालून जातो. इथे जगणे आणि जीवन यातला सुक्ष्म फरक कळतो आणि माणसाचं जीवन प्रवाही बनते. हा जीवनप्रवाह या शब्द पालवीत जेव्हा विसावला तेव्हा नाविन्यपूर्ण आणि वैविध्यविपूर्ण आशय ,विषयांची लेखमाला आकारास आली हा विसावा रंजनातून सृजनाकडे वळतो तेव्हा हाच माणूस माणसाला विचारांचे दान देतो. मानाचे पान देतो. हे आठवणींचे पान समाज पारावर रेंगाळते आणि
माणूस माणसाशी जोडला जातो. हे एकत्रीकरण, हे समाज सक्षमीकरण, अभिव्यक्ती परीवाराशी या लेखमालेतून संलग्न झाले आणि विविध विषयांवरील लेख रसिक सेवेत दाखल झाले. विविध विषयांवर लेख या लेखमालेतून देणार आहे. हे लेख केवळ शब्द बंबाळ आलेख नव्हे तर हा आहे. समाजपार. ह्रदयाचा परीघ. वास्तवाचा आरसा आणि शब्दांचे आलय. . .
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश जी ने इस साप्ताहिक स्तम्भ के लिए हमारे अनुरोध को स्वीकार किया इसके लिए हम उनके आभारी हैं । इस स्तम्भ के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी हृदयस्पर्शी लघुकथा “मैं ऐसा नहीं”। )
☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #1 ☆
☆ मैं ऐसा नहीं ☆
वह फिर गिड़गिड़ाया, “साहब ! मेरी अर्जी मंजूर कर दीजिए. मेरा इकलौता पुत्र मर जाएगा.”
मगर, नरेश बाबू पर कोई असर नहीं हुआ, “साहब नहीं है. कल आना.”
“साहब, कल बहुत देर हो जाएगी. मेरा पुत्र बिना आपरेशन के मर जाएगा.आज ही उस के आपरेशन की फीस भरना है. मदद कर दीजिए साहब. आप का भला होगा,” वह असहाय दृष्टि से नरेश की ओर देख रहा था.
“ कह दिया ना, चले जाइए, यहाँ से,” नरेश बाबू ने नीची निगाहें किए हुए जोर से चिल्लाते हुए कहा.
तभी उस का दूसरा साथी महेश उसे पकड़ कर एक ओर ले गया.
“क्या बात है नरेश! आज तुम बहुत विचलित दिख रहे हो.” महेश बाबू ने पूछा, “वैसे तो तुम सभी की मदद किया करते हो ? मगर, इस व्यक्ति को देख कर तुम्हें क्या हो गया?” वह नरेश का अजीब व्यवहार समझ नहीं पाया था.
नरेश कुछ नहीं बोला. मगर, जब महेश बाबू ने बहुत कुरैदा तो नरेश बाबू ने कहा, “क्या बताऊँ महेश ! यह वही बाबू है, जिस ने मेरी अर्जी रिश्वत के पैसे नहीं मिलने की वजह से खारिज कर दी थी और मेरे पिता बिना इलाज के मर गए थे.”
“क्या !’’ महेश चौंका.
“हाँ, ये वहीं व्यक्ति है.”
“तब तू क्या करेगा?” महेश ने धीरे से कहा, “जैसे को तैसा?”
“नहीं यार, मैं ऐसा नहीं हूं,” नरेश ने कहा, “मैंने इस व्यक्ति की अर्जी कब की मंजूर कर दी है और इलाज का चैक अस्पताल पहुंचा दिया है. यह बात इसे नहीं मालूम है.’’ कहते हुए नरेश खामोश हो गया.
महेश यह सुन कर कभी नरेश को देख रहा था कभी उस व्यक्ति को. जब कि वह व्यक्ति माथे पर हाथ रख कर वहीं ऑफिस में बैठा था.
(श्री सुजित कदम जी की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। श्री सुजित जी ने हमारे इस स्तम्भ के आग्रह को स्वीकारा इसके लिए हम उनके आभारी हैं। अब आप उनकी रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता ” राऊळ….”।)
(प्रत्येक कवि की कविता के सृजन के पीछे कोई न कोई तथ्य होता है, जो कवि को तब तक विचलित करता है, जब तक वह उस कविता की रचना न कर ले। और शायद यही उस कविता की सृजन प्रक्रिया है। किन्तु, इसके पीछे एक संवेदनशील हृदय भी कार्य करता है। ऐसी ही संवेदनशील कवियित्रि सुश्री प्रभा सोनवणे जी ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर “कवितेच्या प्रदेशात” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने हेतु अपनी सहमति दी है। इसके लिए हम आपके आभारी हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार को उनकी रचनाओं को पढ़ सकेंगे।
यह सच है कि- कवि को काव्य सृजन की प्रतिभा ईश्वर की देन है। उनके ही शब्दों में “काव्य प्रतिभा ही आपल्याला मिळालेली ईश्वरी देणगी आहे हे नक्की!” आज प्रस्तुत है काव्य सृजन पर उनका आलेख “निर्मिती प्रक्रिया”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात ☆
☆ निर्मितीप्रक्रिया ☆
मला आठवतंय मी पहिल्यांदा कविता लिहिली ती इयत्ता आठवीत असताना हस्तलिखितासाठी, *माँ पाठशाला* या शीर्षकाची ती हिंदी कविता होती, आठवी ते अकरावी या काळात मी तुरळक हिंदी कविता लिहिल्या, त्या रेडिओ श्रीलंका- रेडिओ लिसनर्स क्लब च्या रेडिओ पत्रिकांमध्ये प्रकाशित ही झाल्या!
१९७० सालापासून कविता सतत माझ्या बरोबर आहे, आयुष्याचा एक अविभाज्य घटक बनली आहे!
चित्र काव्य, विषयावर आधारित काव्य रचताना, कुठली तरी घटना, स्थळ आपल्या मनात येतं आणि आपण कविता रचत जातो,
आपल्याला आवडलेलं, खुपलेलं, खदखदणारं कवितेत उतरत असतं, मी सकाळ नाट्यवाचन स्पर्धेसाठी ग्रामीण भागात परीक्षक म्हणून जात असताना, नुकतीच घडलेली जवळच्या नात्यातल्या तरूण मुलीच्या आत्महत्येची घटना मनाला क्लेश देत होती, भोर च्या शाळेत नाट्यवाचनाचे परिक्षण करत असताना अचानक रडू कोसळले आणि तिथेच पहिला शेर लिहिला—
*तारूण्यातच कसे स्वतःला संपवले पोरी*
*आयुष्याला असे अचानक थांबवले पोरी*
काफिये रदीफ़ काहीच मनात योजले नव्हते, मी एकीकडे नाट्यवाचन ऐकत होते, विद्यार्थ्यांना, नाटकाला गुण देत होते आणि त्याचवेळी मला शेर सुचत होते….