मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 10 – वृक्षातळी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  कविता वृक्षातळी।  यह  शाश्वत  सत्य है कि जो समय बीत चुका है उसकी पुनरावृत्ति असंभव है।  उस बीते हुए समय के साथ बहुत सी स्मृतियाँ और बहुत से अपने वरिष्ठ भी पीछे छूट जाते हैं और अपनी स्मृतियाँ छोड़ जाते हैं । फिर यह अनंत प्रक्रिया समय के साथ चलती रहती है। आज हमारी स्मृतियों में कोई अंकित है तो कल हम किसी की स्मृतियों में अंकित होंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी चल रही इस प्रक्रिया को सुश्री प्रभा जी ने अत्यंत सहजता से काव्य स्वरूप दिया है। 

आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 10 ☆

 

☆ वृक्षातळी ☆

 

माणसं आपल्या अवतीभवती  असतात तेव्हा ब-याचदा दुर्लक्षिली जातात…..पण ती या जगातून निघून गेल्यावर त्यांची किंमत कळते, उणीव भासते, असं का होतं?आपण या विचाराने अस्वस्थ होतो, दुःखी होतो…  ही जगरहाटी आहे…

“जिन्दगी के सफरमे गुजर जाते है जो मकाम, वो फिर नही आते…..”

आत्ता आईची आठवण येते पण आई खुप दूर निघून गेली…..

एक अतिविशाल वृक्ष ,

अचानक भेटला प्रवासात आणि आठवले,

इथे येऊन गेलोय आपण,

पूर्वी कधीतरी …..

जाग्या झाल्या सा-याच आठवणी  !

पाय पसरून बसलेल्या

या ऐसपैस वृक्षाच्या बुंध्याशी बसून काढली होती

स्वतःचीच अनेक छायाचित्रे !

 

तेव्हा नव्हते जाणवले पण आज

आठवते  आहे आज,

आई घरी एकटीच होती

आणि आपण भटकलो होतो

रानोमाळ जंगलातले नाचरे मोर पहात !

तिला ही आवडले असते—

हसरे थेंब नाच रे मोर …..

ते विहंगम दृश्य आणि हा

अस्ताव्यस्त महाकाय वृक्ष !

आज ती नाही ……

उद्या होईल कदाचित आपलीही तिच अवस्था ,

आपल्याला पहायचे असेल,

फिरायचे असेल रानोमाळ ,

पण दुर्लक्षिले जाऊ आपणही

तिच्यासारखेच !

तेव्हा आपल्यातरी कुठे लक्षात आले होते ते  ??

उद्या “आपल्यांच्या “ही लक्षात रहाणार नाही आपण !त्या अजस्त्र वृक्षातळी ,

काल हसलो खिदळलो ……

पण आज जाणवतेय-

तेव्हाही हरवत होते काहीतरी ,आज ही हरवते आहे काही ……

त्या वृक्षातळी !!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 2 ☆ बांसुरी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “बांसुरी”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 2 

 

☆ बांसुरी ☆

 

मैं तो बस

एक बांस की बांसुरी थी,

मेरा कहाँ कोई अस्तित्व था?

तुम्हारे ही होठों से बजती थी,

तुम्हारे ही हाथों पर सजती थी

और तुम्हारे ही उँगलियों से

मेरी धुन सुरीली होती थी!

 

जब

छोड़ देते थे तुम मुझे,

मैं किसी सूने कमरे के सूने कोने में

सुबक-सुबककर रोती थी,

और जब

बुला लेते थे तुम पास मुझे

मैं ख़ुशी से गुनगुनाने लगती थी!

 

ए कान्हा!

तुम तो गाते रहे प्रेम के गीत

सांवरी सी राधा के साथ;

तुमने तो कभी न जाना

कि मैं भी तुमपर मरती थी!

 

कितनी अजब सी बात है, ए कान्हा,

कि जिस वक़्त तुमने

राधा को अलविदा कहा

हरे पेड़ों की छाँव में,

और तुम चले गए समंदर के देश में,

मैं भी कहीं लुप्त हो गयी

तुम्हारे होठों से!

 

राधा और मैं

शायद दोनों ही प्रेम के

अनूठे प्रतिबिम्ब थे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 10 – दावत ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “दावत”। इस लघुकथा ने  संस्कारधानी जबलपुर, भोपाल और कई शहरों  में गुजारे हुए गंगा-जमुनी तहजीब से सराबोर पुराने दिन याद दिला दिये। काश वे दिन फिर लौट आयें। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के लिए नमन।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 10 ☆

 

☆ दावत ☆

 

दावत कहते ही मुंह में पानी आ जाता है। एक भरी भोजन की थाली जिसमें विभिन्न प्रकार के सब्जी, दाल, चावल, खीर-पूड़ी, तंदूरी, सालाद, पापड़ और मीठा। किसी का भी मन खाने को होता है।

मोहल्ले में कल्लन काले खाँ चाचा की आटा चक्की की दुकान। अब तो सिविल लाइन वार्ड और मार्ग हो गया। पहले तो पहचान आटा चक्की, मंदिर के पास वाली गली। कल्लन  काले खाँ को सभी कालू चाचा कहते थे। क्योंकि उनका रंग थोड़ा काला था। कालू चाचा की इकलौती बेटी शबनम और हम एक साथ खेलते और पढ़ते थे।

शाम हुआ आटा चक्की के पास ही हमारा खेलना होता था। स्कूल भी साथ ही साथ जाना होता। दो दिन से शबनम स्कूल नहीं आ रही थी।

हमारे घर में क्यों कि मंदिर है उसका यहाँ आना जाना कम होता था। बड़े बुजुर्ग लड़कियों को किसी के यहाँ बहुत कम आने जाने देते हैं।

समय बीता एक दिन शाम को शबनम बाहर दौड़ते हुए आई और बताने लगी ” सुन मेरा ‘निकाह’ होने वाला है। अब्बू ने मेरा निकाह तय कर लिया। हमने पूछा “निकाह क्या होता है?”

उसने बहुत ही भोलेपन से हँसकर कहा “बहुत सारे गहने, नए-नए कपड़े और खाने का सामान मिलता है। हम तो अब निकाह करेंगे। सुन तुम्हारे यहां जो “शादी” होती है उसे ही हम मुसलमान में “निकाह” कहा जाता है।” इतना कहे वह शरमा कर दौड़ कर भाग गई। हमें भी शादी का मतलब माने बुआ-फूफा, मामा-मामी और बहुत से रिश्तेदारों का आना-जाना। गाना-बजाना और नाचना। मेवा-मिठाई और बहुत सारा सामान। उस उम्र में शादी का मतलब हमें यही पता था।

ख़ैर निकाह का दिन पास आने लगा कालू चाचा कार्ड लेकर घर आए। हाथ जोड़ सलाम करते पिताजी से कहे  “निकाह में जरूर आइएगा बिटिया को लेकर और दावत वहीं पर हमारे यहाँ  करना है।” बस इतना कह वह चले गए।

घर में कोहराम मच गया दावत में वह भी शबनम के यहाँ!! क्योंकि हमारे घर शुद्ध शाकाहारी भोजन बनता था। लेकिन पिताजी ने समझाया कि “बिटिया का सवाल है और मोहल्ले में है। हमारा आपसी संबंध अच्छा है, इसलिए जाना जरूरी है।”

घर से कोई नहीं गया। पिताजी हमें लेकर शबनम के यहाँ पहुँचे। उसका मिट्टी का घर खपरैल वाला बहुत ही सुंदर सजा हुआ था। चारों तरफ लाइट लगी थी शबनम भी चमकीली ड्रेस पर चमक रही थी। जहां-तहां मिठाई और मीठा भात बिखरा पड़ा था। हमें लगा हमारी भी शादी हो जानी चाहिए। जोर-जोर से बाजे बज रहे थे और कालू चाचा कमरे से बाहर आए उनके हाथ में नारियल औरकाजू-किशमिश का पैकेट था। उन्होंने पिताजी को गले लगा कर कहा “जानता हूँ भैया, आप हमारे यहाँ दावत नहीं करेंगे पर यह मेरी तरफ से दावत ही समझिए।”

पिताजी गदगद हो गए आँखों से आँसू बहने लगे। ये खुशी के आँसू शबनम के निकाह के थे या फिर दावत की जो कालू चाचा ने कराई। हमें समझ नहीं आया। पर आज भी शबनम का निकाह याद है।

शबनम का निकाह और दावत दोनों कुबूल हुई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #10 – हिरवी चादर ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  एवं सार्थक कविता  “हिरवी चादर”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 10 ☆

? हिरवी चादर?

 

स्वाती नक्षत्राचा थेंब

असे चातकाचा प्राण

एका थेंबात भिजतो

त्याचा आषाढ श्रावण

 

धरतीचं हे काळीज

फाटते हो ज्याच्यालाठी

भावविश्व गंधाळते

जेव्हा होती भेटीगाठी

 

तिच्या डोळ्यात पाऊस

त्याची वाट पाहणारा

त्याचा खांदा हा शिवार

तेथे बरसती धारा

 

माझ्या घामाच्या धारांना

तुझ्या धारांचा आधार

काळ्या ढेकळांची व्हावी

येथे हिरवी चादर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #7 – जंगल ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  सातवीं  कड़ी में उनकी  एक सार्थक कविता  “जंगल ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #7  ☆

 

☆ जंगल ☆

 

बियाबान जंगल से

मिलती हैं उसे रोटियां,

अनजान जंगल से

मिटती है बच्चों की भूख,

खामोश जंगल से

जलता है उसका चूल्हा,

परोपकारी जंगल से

बनता है उसका घर,

अनमने जंगल से

बुझती है उसकी प्यास,

बहुत ऊँचे जंगल से

मिलती है उसे ऊर्जा,

उजड़े जंगल से

सूख जाते हैं उसके आंसू,

अब प्यारे जंगल से

भगाने की हो रही हैं बातें।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #10 – कन्या भ्रूण हत्या रोकने में आस्थाओ का महत्व ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  दसवीं कड़ी में प्रस्तुत है “कन्या भ्रूण हत्या रोकने में आस्थाओ का महत्व”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 10 ☆

 

☆ कन्या भ्रूण हत्या रोकने में आस्थाओ का महत्व ☆

 

पुरुषो की तुलना में निरंतर गिरते स्त्री अनुपात के चलते इन दिनो देश में “बेटी बचाओ अभियान”  की आवश्यकता आन पड़ी है.  नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से समाज ग्रस्त है. सबसे दुखद ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमें आत्ममंथन व चिंतन के लिये विवश कर रही है. एक ओर नारी स्वातंत्र्य की लहर चल रही है तो दूसरी ओर स्त्री के प्रति निरंतर बढ़ते अपराध दुखद हैं.  साहित्य की एक सर्वथा नई धारा के रूप में स्त्री विमर्श, पर चर्चा और रचनायें हो रही हैं, “नारी के अधिकार “, “नारी वस्तु नही व्यक्ति है”, वह केवल “भोग्या नही समाज में बराबरी की भागीदार है”, जैसे वैचारिक मुद्दो पर लेखन और सृजन हो रहा है, पर फिर भी नारी के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में वांछित सकारात्मक बदलाव का अभाव है.

हमारे देश की पहचान एक धर्म प्रधान, अहिंसा व आध्यात्मिकता के प्रेमी  और नारी गौरव-गरिमा का देश होने की है,  फिर क्या कारण है कि इस शिक्षित युग में भी बेटियो की यह स्थिति हुई है कि उन्हें बचाने के लिये सरकारी अभियान की जरूरत महसूस की जा रही है. एक ओर कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स जैसी बेटियां अंतरिक्ष में भी हमारा नाम रोशन कर रही हैं, महिलायें राजनीति के सर्वोच्च पदो पर हैं, पर्वतारोहण, खेल, कला,संस्कृति, व्यापार,जीवन के हर क्षेत्र में लड़कियो ने सफलता की कहानियां गढ़कर सिद्ध कर दिखाया है कि ” का नहिं अबला करि सकै का नहि समुद्र समाय ”  तो दूसरी और माता पिता उन्हें जन्म से पहले ही मार देना चाहते हैं. ये विरोधाभासी स्थिति मौलिक मानवाधिकारो का हनन तथा समाज की मानसिक विकृति की सूचक है.

बेटियों की निर्मम हत्या की  कुप्रथा को जन्म देने में अल्ट्रा साउन्ड से कन्या भ्रूण की पहचान की वैज्ञानिक खोज का दुरुपयोग जिम्मेदार है. केवल सरकारी कानूनो से कन्या भ्रूण हत्या रोकने के स्थाई प्रयास संभव नही हैं. दरअसल इस समस्या का हल क़ानून या प्रशासनिक व्यवस्था से कहीं अधिक स्वयं ‘मनुष्य’ के अंतःकरण, उसकी आत्मा, प्रकृति व मनोवृत्ति, मानवीय स्वभाव, उसकी चेतना,  मान्यताओ व धारणाओ और उसकी सोच में बदलाव तथा नारी सशक्तिकरण ही इस समस्या का स्थाई हल है.  समाज की  मानसिकता व मनोप्रकृति  में यह स्थाई बदलाव आध्यात्मिक चिंतन तथा ईश्वरीय सत्ता में विश्वास और पारलौकिक जीवन में आज के अच्छे या बुरे कर्मों का तद्नुसार फल मिलने के कथित धार्मिक सिद्धान्तों की मान्यता पर ढ़ृड़ता से संभव है. विज्ञान  धार्मिक आस्थाओ पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, किन्तु सच यह है कि आध्यात्म, विज्ञान का ही विस्तारित स्वरुप है.  विभिन्न धर्मो के आडम्बर रहित धार्मिक विधिविधान वे सैद्धांतिक सूत्र हैं जो हमें ध्येय लक्ष्यो तक पहु्चाते हैं.

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ नारियो की पूजा होती है वहां देवताओ का वास होता है यह उद्घोष, हिन्दू समाज से कन्या भ्रूण हत्या ही नही, नारी के प्रति समस्त अपराधो को समूल समाप्त करने की क्षमता रखता है, जरूरत है कि इस उद्घोष में व्यापक आस्था पैदा हो. नौ दुर्गा उत्सवो पर कन्या पूजन, हवन हेतु अग्नि प्रदान करने वाली कन्या का पूजन हमारी संस्कृति में कन्या के महत्व को रेखांकित करता है, आज पुनः इस भावना को बलवती बनाने की आवश्यकता है.

पैग़म्बर मुहम्मद  ने कन्या हत्या रोकने के लिये  भाषण देने, आन्दोलन चलाने, और ‘क़ानून अदालत या जेल’ का प्रकरण बनाने के बजाय केवल इतना कहा है कि ‘जिस व्यक्ति के बेटियां हों, वह उन्हें ज़िन्दा गाड़कर उनकी हत्या न कर दे, उन्हें सप्रेम व स्नेहपूर्वक पाले-पोसे, उन्हें नेकी, शालीनता, सदाचरण व ईशपरायणता की उत्तम शिक्षा-दीक्षा दे, बेटों को उनसे बढ़कर न माने, नेक रिश्ता ढूंढ़कर बेटियो का घर बसा दे, तो वह स्वर्ग में मेरे साथ रहेगा’. मुस्लिम समाज कुरानशरीफ की इस प्रलोभन भरी शिक्षा को अपनाकर, बेटी की अच्छी परवरिश से स्वर्ग-प्राप्ति का  अवसर मानकर प्रसन्न हो सकता है और लालच में ही सही पर लड़कियो के प्रति अपराध रुक सकते हैं. जरूरत है इस विश्वास में भरपूर आस्था की.  कुरान में कहा गया है कि परलोक में हिसाब-किताब वाले दिन, ज़िन्दा गाड़ी गई बच्ची से ईश्वर पूछेगा, कि वह किस जुर्म में क़त्ल की गई थी ? इस तरह कन्या-वध करने वालों को अल्लाह ने चेतावनी भी दी है.

ईसाई समाज में भी पत्नी को “बैटर हाफ” का दर्जा तथा लेडीज फर्स्ट की संकल्पना नारी के प्रति सम्मान की सूचक है. जैन संप्रदाय में तो छोटे से छोटे कीटाणुओ की हिंसा तक वर्जित है. इसी तरह अन्य धर्मो में भी मातृ शक्ति को महत्व के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं. किन्तु इन धार्मिक आख्यानो को किताबो से बाहर समाज में व्यवहारिक रूप में अपनाये जाने की जरूरत है.

मनुष्य  कभी कुछ काम लाभ की चाहत में करता है और कभी  भय से, और नुक़सान से बचने के लिए करता है। इन्सान के रचयिता ईश्वर से अच्छा, भला इस मानवीय कमजोरी  को और कौन जान सकता है ? अतः इस पहलू से भी धार्मिक मान्यताओ में रुढ़िवादी आस्था ही सही किन्तु ईश्वरीय सत्ता में विश्वास, पाप पुण्य के लेखाजोखा की संकल्पना, कन्या भ्रूण हत्या के अनैतिक सामाजिक दुराचरण पर स्थाई रोक लगाने में मदद कर सकता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-9 – आधुनिक तंत्रज्ञान  मुलां-मुलींसाठी योग्य की अयोग्य’ ??? ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनके द्वारा  बच्चों के लिए नवीन तकनीकी ज्ञान (विशेषकर मोबाइल, टेलिविजन चैनल एवं मीडिया की महत्ता  पर आधारित बच्चों एवं बड़ों के लिए भी ज्ञानवर्धक आलेख  आधुनिक तंत्रज्ञान  मुलां-मुलींसाठी योग्य की अयोग्य ???।)

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-9 ? 

 

? आधुनिक तंत्रज्ञान  मुलां-मुलींसाठी योग्य की अयोग्य ???  ?

 

उन्हाळ्याच्या सुट्ट्या लागल्या आणि भाऊ, बहीण, दीर इत्यादी नातेवाईकांकडे जाण्याचे योग आले. यांची चुणचुणीत नातवंड पाहून खूप प्रसंन्न वाटलं. गप्पा मारत त्यांनी आम्हा दोघांच्याही मोबाईलचा नकळत ताबा घेतला, अगदी पासवर्ड सहीत. आमची मुले मोठी असल्यामुळे मोबाईलवर गेम्स नव्हते त्यांनी हवे ते डाऊन लोड करून घेतले व ती खेळण्यात रंगून गेली. तीन मुलं असूनही घरं अगदी चिडीचूप, कधीतरी खेळण्यात लवकर नंबर लागला नाहीतर तक्रार येई. अगदी के जी ते तिसरी चौथीची मुलं परंतु मोबाईलचा अचूक सफाईदार वापर पाहून नवीन पिढीच्या कौशल्याचं कौतुक करावं तितकं कमीच आहे असं वाटून गेलं.

कारण स्क्रीन टच मोबाईल वापरताना सुरूवातीला लागलेली पुरेवाट आठवली की आजही हसायला आल्या शिवाय राहत नाही. फक्त गेम नव्हे तर गाणी, गोष्टी, अनेक कार्यानुभवाच्या कलाकृती अभ्यासक्रमाचे सुद्धा अनेक  व्हिडीओ त्यांनी मला वापरून दाखवले.

अवघड वाटणारा इतिहास नाट्य रूपात एकदम सोप्या पद्धतीने मुलांच्या सहज गळी उतरवता येऊ शकतो म्हणण्यापेक्षा तो अगदी आनंददायी पद्धतीने मुलांना  हसत खेळत शिकता येतो. कठीण वाटणाऱ्या गणिताच्या अनेक मनोरंजक पद्धती मुलांना समजावून देता येतात विज्ञानाचे अनेक प्रयोग प्रत्यक्ष पाहाता येतील भूगोलाच्या भूकंप, भूगोलार्धाची रचना, ग्रह तारे सुर्यमाला, उल्कापात, चंद्रावरील मोहीम , मंगळाच्या संदर्भातील दृश्य  माहितीपट अशा अनेक संकल्पना अगदी सहज आणि क्षणार्धात समोर हजर करणारे इंटरनेट म्हणजे पृथ्वीवरील अल्लाउद्दीनचा चिराग म्हटल्यास वावगे ठरणार नाही.

आमच्या लहानपणी एखादी आलेली शंका कुणाला विचारायची हा फार मोठा प्रश्न असायचा कारण ती माहिती कुठे मिळेल हे शोधणे आणि ज्यांना माहीत आहेत ते मुलांच्या प्रश्नांना किती महत्व देतील हाही प्रश्नच! परंतु इंटरनेट हे मुलांच्या अनेक प्रश्नांची अचूक  हमखास उत्तरे देणाऱ्या  बिरबला सारखे रत्न आहे म्हणावे लागेल.

थोड्या मोठ्या वयोगटातील मुले तंत्रज्ञानाचा आणखी कल्पकतेने वापर करताना दिसतात. संदर्भ ग्रंथ अभ्यासणे, आवडत्या लेखक/कविंचे संग्रह अभ्यासणे, बुद्धीबळासारखे बौद्धिक खेळ खेळणे. मित्र मैत्रीणींशी गप्पागोष्टी मेसेज मेल इत्यादीचा कौशल्याने उपयोग करतात आणखी एक सर्वांचाआवडता उपयोग म्हणजे ज्या मालिका टीव्हीवर  पाहता येत नाहीत त्या मोबाईलचा वापर करून पाहताना दिसतात.

एक ना दोन हजारो फायदे या तंत्रज्ञानाचे असले तरीसुद्धा त्याची दुसरी बाजू सुद्धा मानवी जीवनासाठी  तितकीच  महत्त्वाची आहे म्हणून या बाबीचाही तितकाच सखोल अभ्यास आणि विचार करणे महत्त्वाचे आहे.

सुरूवात खेळा पासूनच करूयात थोडंस आपल्या बालपणात जाऊयात. भन्नाट मैदानी खेळ, मित्राच्या टाळ्या, हशा, प्रोत्साहन, जिंकल्याचा आनंद, हारल्याची खंत पण पुन्हा नव्याने जिंकण्याची जिद्द, यातूनच  अपयश पचवण्याची, संकटांना पराजयाला हसत मुखाने सामोरे जाण्याची   खिलाडू वृत्ती, इत्यादी गुण खेळातून कळत नकळत अंगी बाणवले जात. परस्पर प्रेम, सहकार्य, घाम गळे पर्यंत घेतलेली अंग मेहनत, मुक्त आनंददायी  हालचाली,  मोठ्यांचा खोटाच राग/ ओरडा. सारं काही चित्ताकर्षक, मनाला भुरळ घालणारे आजही हवेहवेसे वाटणारे क्षण खरोखरच आजकालच्या एका ठिकाणी  बसून गेम खेळणाऱ्या मुलांना अनुभवायला मिळतात का? हा प्रश्न मनाला विचारलं तरं उत्तर नक्कीच नाही असं येईल, कुठे गल्ली गोळा होई पर्यंत  आरडाओरडा करणारे आपण आणि राग चीड आनंद व्यक्त करण्यासाठी स्वतःशीच  पुटपुटणारी, भावना दाबून  जगणारी आजकालची मुलं पाहिली की यांच्या भावनांचा उद्रेक हा ज्वालामुखीच्या उद्रेका पेक्षाही किती भयानक असेल असेल याची कल्पनाही करवत नाही.

आपल्या लहानपणी मुलं दिवसाकाठी रिकामा मिळालेला जास्तीतजास्त वेळ खेळ गप्पागोष्टी यासाठी वापरत असत, त्यामुळे भरपूर व्यायाम होऊन आरोग्य  शारीरिक सुधारण्यास मदत होत असे. गप्पागोष्टीमुळे मुलांचे संभाषण कौशल्य विकसित होई शिवाय परस्पर नाते संबंध दृढ आणि जिव्हाळ्याचे बनत .अभिव्यक्तीला वाव मिळाल्यामुळे मनातील सल, दुःख, वेदना कमी होण्यास मदत होऊन शारीरिक आरोग्या सोबतच मानसिक आरोग्य सुद्धा संतुलित  राहत असे परंतु  हल्लीच्या मुलांच्या  खूप वेळ एकाच जागी बसून  शरीरावर, डोळ्यांवर ताण येऊन शारीरिक व्याधी निर्माण होण्याची शक्यता नाकारता येत नाही शिवाय मुले एक्कलकोंडी हट्टी चिडचिडी होत चालली आहेत ही गोष्ट वेगळीच!

मुख्य म्हणजे हे सगळे गेम खेळायचे म्हणजे मोबाईल हवा नेट पॕक हवे. म्हणजे जो आनंद फुकट काच कांगऱ्या, बुद्धीबळ, कॕरम, भातुकली खेळभांडे, शाळा शाळा, खार कबुतर या सारखे  बैठे खेळ व चिपलंग, लंगडी, खो-खो, कब्बडी, लपंडाव अंधळी कोशिंबीर यासारख्या मैदानी खेळातून  मित्रांसोबत अतिशय धमाल मस्ती  करून मिळायचा तोच आनंद विकत आणि तोही तुटपुंजा आनंद किती खेदाची बाब आहे ही!   पुन्हा त्यात ज्यांचा मोबाईल भारीचा तो शेखी मिरवणार म्हणजे खेळाच्या निर्मळ आनंदावर विरझन पडणार ते वेगळंच.

दुसरी बाब म्हणाल, तर आपल्या लहानपणीचा रेडिओ असो की, पुढील काळातील दूरदर्शन असो. अगदी आजी आजोबाचे भजन, बाबांच्या बातम्या, आईची आपली आवड असो की ताई दादांची युवावाणी, किंवा  आपलं बालजगत सगळं प्रत्येकाला इतरांसाठी का असेना ऐकावंच लागे. त्याचा परिणाम म्हणून कळत नकळत एक सर्वगुण संपन्न व्यक्तीमत्व आकाराला येई . घरातील इतरांच्या आवडी निवडी,मते यांचा आदर करणे, त्यांची मते जाणून घेणे या गोष्टी सहज साध्य होत परंतु आज मुले कार्टून शो तासन् तास पाहताना किंवा गेम खेळताना दिसतात .पालक सुद्धा मुलं शांत बसलेली आहेत यातच धन्यता मानत असतात परंतु भाऊ- बहीण, आई- वडील, मित्र- मैत्रीणी  यांच्यातील संवाद संपत चालला आहे. मुख्य म्हणजे आजी आजोबांची गोष्टी सांगण्यासाठी  नातवंडांची सलगी एक स्वर्गीय आनंददायी  जिव्हाळा पार नाहीसा झाला आहे. माणूस तंत्रज्ञानाला कवटाळण्याच्या नादात माणूस आणि माणुसकी पासून फारकत घेतो आहे असं खेदाने म्हणावं लागत आहे. मोबाईल टीव्ही यासारख्या माध्यमांचा अतिशयोक्ती वाटावी असा वापर मुलांच्या नव्हे तर कुटुंब आणि समाज व्यवस्थेच्या  शारीरिक व मानसिक आरोग्यासाठी नक्कीच घातक आहे, ही बाबही  नक्कीच दुर्लक्षीत करून चालणार नाही.

‘सुग्रास अन्न शिजवणारा अग्नी घर पेटवण्याचे विघातक कृत्य करू शकतो तद्वतच  मानवाच्या उन्नतीसाठी असलेले तंत्रज्ञान अधोगतीचे कारण व्हायला वेळ लागणार नाही’  याचा विसर पडता कामा नये.

म्हणूनच तंत्रज्ञानाचा वापर मुलांसाठी पालक/ शिक्षक यांच्या मार्गदर्शनाने ठराविक वेळेचे बंधन पाळून..  त्यांच्या किंवा अन्य जाणकारांच्या  नियंत्रणाखाली व योग्य प्रमाणातच होणे आवश्यक आहे.

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 10 – व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग दो ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  व्यंग्य रचना “सनकी बाबूलाल : प्रसंग दो”।  जिस तरह एक झूठ छुपाने के लिए दस झूठ और बोलने पड़ते हैं  उसी तरह आज के जमाने में यदि कोई एक गलती सुधारना चाहे तो सामाजिक प्रणाली उससे दस गलतियाँ और करने के लिए बाध्य करती हैं। ऐसे में हमें बाबूलाल जैसे निरीह प्राणी के चरित्र की बजाय दारोगा जैसे चरित्र पर हँसी आनी चाहिए। किन्तु, अक्सर ऐसा होता नहीं है। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 10 ☆

 

☆ व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग दो ☆

 

बाबूलाल को रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ धर लिया गया है। अब बाबूलाल धीरज की मूर्ति बना, मौन,थाने में बैठा है। आसपास पुलिस वाले घूम रहे हैं।

सामने वाली कुर्सी पर बैठा दरोगा कहता है, ‘अब तुम गये काम से। जेल जाना पक्का है।’

बाबूलाल सहमति में सिर हिलाता है।

दरोगा पूछता है, ‘तुम्हें डर नहीं लगता?’

बाबूलाल ज्ञानी की नाईं कहता है, ‘डरने से क्या होने वाला है? जैसा किया है वैसा भोगेंगे।’

दरोगा कुछ मायूस हो जाता है। थोड़ी देर मौन रहने के बाद जाँघ पर हाथ पटककर जोर-जोर से हँसने लगता है। बाबूलाल आश्चर्य से उसे देखता है।

हँसी रुकने पर दरोगा कहता है, ‘कुच्छ नहीं होगा। बेफिकर रहो। तुम दूध के धुले साबित होगे।’

बाबूलाल मुँह बाये उसकी तरफ देखता है।

दरोगा कहता है, ‘सब परमान-सबूत तो हमारे पास ही हैं न। हम बड़े बड़े केसों का खात्मा अपने लेविल पर कर देते हैं। हम कहेंगे कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं।’ वह फिर ताली पीट कर हँसने लगता है।

बाबूलाल पूछता है, ‘यह कैसे होगा?’

दरोगा जवाब देता है, ‘रोज होता है। कुछ पैसे का त्याग करोगे तो तुम्हारे केस में भी हो जाएगा।’

बाबूलाल थोड़ी देर सोचता है, फिर कहता है, ‘लेकिन यह ठीक नहीं होगा।’

अब दरोगा अचरज में है। पूछता है, ‘क्यों ठीक नहीं होगा?’

बाबूलाल कहता है, ‘हम जीवन भर ईमानदार रहे। सिर्फ इसी बार हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। हम भ्रष्ट तो हो गये, लेकिन अब हम झूठे और बेईमान नहीं होना चाहते। हम अपने किये की सजा भुगतेंगे।’

दरोगा अपने बाल नोचने लगता है, कहता है, ‘तुम पागल हो। हमारी बात मानोगे तो तुम बच जाओगे और हमें भी अपने पेट के लिए तुमसे दो पैसे मिल जाएंगे।’

बाबूलाल असहमति में सिर हिलाता है, कहता है, ‘नईं दरोगा जी,हमसे एक पाप हो गया, दूसरा नईं करेंगे। आप अपना काम करो ।हम सजा के लिए तैयार हैं। झूठ नहीं बोलेंगे।’

दरोगा माथा पीट कर कहता है, ‘ससुरा सनकी कहीं का!’ फिर सिपाहियों की तरफ देखकर कहता है, ‘कुछ लोग ऐसे होते हैं कि दूसरे का नुकसान करने के लिए अपना सिर कटवा दें। खुद मरें और दूसरे को भी नरक में ढकेलते जाएं।’

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #7 – मिट्टी – जमीन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  सातवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 7 ☆

 

☆ मिट्टी – जमीन ☆

 

आदमी मिट्टी के घर में रहता था, खेती करता था। अनाज खुद उगाता, शाक-भाजी उगाता, पेड़-पौधे लगाता। कुआँ खोदता, कुएँ की गाद खुद निकालता। गाय-बैल पालता, हल जोता करता, बैल को अपने बच्चों-सा प्यार देता। घास काटकर लाता, गाय को खिलाता, गाय का दूध खुद निकालता, गाय को माँ-सा मान देता। माटी की खूबियाँ समझता, माटी से अपना घर खुद बनाता-बाँधता। सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक प्रकृति के अनुरूप आदमी की चर्या चलती।

आदमी प्रकृति से जुड़ा था। सृष्टि के हर जीव की तरह अपना हर क्रिया-कलाप खुद करता। उसके रोम-रोम में प्रकृति अंतर्निहित थी। वह फूल, खुशबू, काँटे, पत्ते, चूहे, बिच्छू, साँप, गर्मी, सर्दी, बारिश सबसे परिचित था, सबसे सीधे रू-ब-रू होता । प्राणियों के सह अस्तित्व का उसे भान था। साथ ही वह साहसी था, ज़रूरत पड़ने पर हिंसक प्राणियों से दो-दो हाथ भी करता।

उसने उस जमाने में अंकुर का उगना, धरती से बाहर आना देखा था और स्त्रियों का जापा, गर्भस्थ शिशु का जन्म उसी प्राकृतिक सहजता से होता था।

आदमी ने चरण उटाए। वह फ्लैटों में रहने लगा। फ्लैट यानी न ज़मीन पर रहा न आसमान का हो सका।

अब अधिकांश आदमियों की बड़ी आबादी एक बीज भी उगाना नहीं जानती। प्रसव अस्पतालों के हवाले है। ज्यादातर आबादी ने सूरज उगने के विहंगम दृश्य से खुद को वंचित कर लिया है। बूढ़ी गाय और जवान बैल बूचड़खाने के रॉ मटेरियल हो चले, माटी एलर्जी का सबसे बड़ा कारण घोषित हो चुकी।

अपना घर खुद बनाना-थापना तो अकल्पनीय, एक कील टांगने के लिए भी कथित विशेषज्ञ  बुलाये जाने लगे हैं। अपने इनर सोर्स को भूलकर आदमी आउटसोर्स का ज़रिया बन गया है। शरीर का पसीना बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन चुका। एअर कंडिशंड आदमी नेचर की कंडिशनिंग करने लगा है।

श्रम को शर्म ने विस्थापित कर दिया है। कुछ घंटे यंत्रवत चाकरी से शुरू करनेवाला आदमी शनैः-शनैः यंत्र की ही चाकरी करने लगा है।

आदमी डरपोक हो चला है। अब वह तिलचट्टे से भी डरता है। मेंढ़क देखकर उसकी चीख निकल आती है। आदमी से आतंकित चूहा यहाँ-वहाँ जितना बेतहाशा भागता है, उससे अधिक चूहे से घबराया भयभीत आदमी उछलकूद करता है। साँप का दिख जाना अब आदमी के जीवन की सबसे खतरनाक दुर्घटना है।

लम्बा होना, ऊँचा होना नहीं होता। यात्रा आकाश की ओर है, केवल इस आधार पर उर्ध्वगामी नहीं कही जा सकती। त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है। आदमी ऊपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा, अपने इस प्रश्न पर खुद हँसी आ रही है। आकाश का आकर्षण मिथक हो सकता है पर गुरुत्वाकर्षण तो इत्त्थमभूत है। सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है।

 

?????

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #14 – Calligraphy ! ! ! ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की चौदहवीं कड़ी  Calligraphy ! ! !।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  जिस प्रकार हम वार्तालाप में सुंदर और मन को भाने वाले शब्दों का उपयोग करते हुए अन्य व्यक्तियों के हृदय में अपने प्रति एक अमिट छवि बनाते हैं या  हमारी छवि अपने आप बन जाती है।  उसी प्रकार कागज पर सुंदर मोतियों जैसे अलंकृत लिपिबद्ध शब्द हमें अनायास ही आत्मसात करने के लिए बाध्य करते हैं।  कभी कल्पना कर देखिये।  आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #14 ?

 

☆ Calligraphy ! ! ! ☆

 

शब्दांशी खेळताना, शब्दांवर वापरलं जाणारं आणि मला भावलेलं art…

सगळे साज लेऊनी माझ्या भाषेचं सौन्दर्य जेव्हा शब्दांद्वारे कागदावर अवतरतं, तेव्हा ते काळजावर नक्कीच काही तरी कोरून जातं… कायमचं…

एक गमतीशीर तुलना मनात डोकावते…

Make up केलेली अक्षरं…

अक्षरशः हसून हसून डोळ्यात पाणी आलं…

हसायचं काय त्यात, तू नाही स्टेजवर यायच्या आधी मेक अप करत… प्रसंगानुरूप पेहराव नको करायला ! मला आठवण करून देण्यात आली, माझ्याचकडून !

अय्या, खरच की … आपणही बऱ्याच वेळा आपलं सौन्दर्य खुलावण्याचा प्रयत्न करतो.. मग आपल्या अंतर्मनातील जाणिवेला शब्दात जर मांडू शकलो तर तिलाही दगदागिन्यांनी सजवायला काहीच हरकत नाही… हे सुंदर शब्द किती समरस होऊन बोलतात, वागतात, त्यात नवजात अर्भकाचे निरागस हास्य दडलेलं असेल, नवं वधूची आशा असेल, आईची माया असेल, बापाची कडक शिस्त असेल, नात्यांची गुंफण असेल, समाजातील जबाबदारी असेल, शिक्षकाने दिलेली ज्ञानाची पुंजी असेल, घराची सुरक्षितता असेल, पावसाची चिंब भेट असेल, सागराची अथांगता असेल, आभाळाची काळजी असेल किंवा मातीची साथ असेल…

आपले विचार शब्दांद्वारे प्रवाही होत असताना, त्या शब्दांवरील calligraphic संस्कार, शब्दरूपी भावनांना, विचारांना अजून जवळ आणतात, मोत्यांसारखे श्रीमंती थाटात, आपल्या मनावर गारुड घालतात… अंगोपांगी खुलून दिसतात, हो ना !

 

© आरुशी दाते, पुणे 

Please share your Post !

Shares
image_print