हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #6 – पड़ाव के बाद का मौन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 6 ☆

 

☆ पड़ाव के बाद का मौन ☆

 

एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।

अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।

महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन..। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।

मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति ही बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में जमीन-आसमान।

शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी,-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।

एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं। क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।

इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन..?

 

(माँ सरस्वती की अनुकम्पा से 19.7.19 को प्रातः 9.45 पर प्रस्फुटित।)

आज सुनें और पढ़ें किसी बुजुर्ग का मौन।

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

विशेष: श्री संजय भारद्वाज जी के व्हाट्सएप पर भेजी गई 19 जुलाई 2019 की  पोस्ट को स्वयं तक सीमित न रख कर अक्षरशः आपसे साझा कर रहा हूँ।  संभवतः आप भी पढ़ सकें किसी बुजुर्ग का मौन? आपके आसपास अथवा अपने घर के ही सही!

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 9 – व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग एक ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  व्यंग्य रचना “सनकी बाबूलाल : प्रसंग एक ”।  यह व्यंग्य अनायास  ही हमें सरकारी दफ्तरों की कार्यप्रणाली एवं उस प्रणाली से पीड़ितों की दशा-दुर्दशा बयान करती है। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 9 ☆

 

☆ व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग एक ☆

बाबूलाल का उस दफ्तर में करीब पांच सौ का बिल पड़ा है। तीन-चार महीने गुज़र गये हैं लेकिन बिल का अता-पता नहीं है। जब भी बाबूलाल दफ्तर जाता है, बिल पास करनेवाला बाबू उसकी नाक के सामने अपना रजिस्टर रख देता है। कहता है, ‘यह देखो,हमने तो पास करके भेज दिया है। कैशियर के पास होना चाहिए। हमने अपना काम चौकस कर दिया।’

बाबूलाल गर्दन लम्बी करके रजिस्टर में झाँकता है,पूछता है, ‘किसने रिसीव किया है?’

बाबू कहता है, ‘अरे ये गुचुर पुचुर कर दिया है। पता ही नहीं चलता किसके दस्कत हैं।’

बाबूलाल कहता है, ‘थोड़ा रजिस्टर देते तो मैं कैश में दिखाऊँ।’

बाबू बित्ता भर की जीभ निकालता है, कहता है, ‘अरे बाप रे! आफिशियल डाकुमेंट दफ्तर से बाहर कैसे जाएगा? अनर्थ हो जाएगा।’

कैश वाला बाबू सुंघनी चढ़ाता हुआ अपना रजिस्टर दिखाता है, कहता है, ‘हमारे रजिस्टर में कहीं एंट्री नहीं है। बिल होता तो कहीं एंट्री होती।’ फिर बगल में बैठी महिला से कहता है, ‘देखो, इनका कोई चेक बना है क्या।’

महिला, उबासी लेती, फाइल में रखे चेकों को खंगालती है,फिर सिर हिलाकर घोषणा करती है कि नहीं है।

बाबूलाल पन्द्रह बीस दिन में पाँव घसीटता  पहुँच जाता है। हर बार उसे दोनों रजिस्टर सुंघाये जाते हैं, और हर बार चेक वाली महिला सिर हिला देती है।

एक दिन बाबूलाल भिन्ना जाता है। बिल पास करनेवाले से कहता है, ‘तुम्हारे रजिस्टर को देख के क्या करें? हर बार नाक पर रजिस्टर टिका देते हो।’ गुस्से में अफसर के पास जाकर शिकायत करता है तो वे कहते हैं, ‘डुप्लीकेट बिल बनाकर ले आओ।’

बाबूलाल दुबारा बिल बना देता है। पास करनेवाले बाबू के पास जाता है तो वह बिल पर चिड़िया बनाकर कहता है, ‘कैश से लिखवाना पड़ेगा कि भुगतान नहीं हुआ।’

बाबूलाल सुंघनी वाले बाबू के पास पहुँचता है। बाबू बिल देखकर महिला की तरफ बढ़ा देता है। महिला देखकर सोच में डूब जाती है, बुदबुदाती है, ‘कैशबुक देखनी पड़ेगी।’

फिर भारी दुख से बाबूलाल की तरफ देखकर कहती है, ‘सोमवार को आ जाओ। हम देख लेंगे।’

सोमवार को बाबूलाल पहुँचता है तो कैश वाला बाबू चुटकी से नसवार का सड़ाका लगाता है, फिर कहता है, ‘तुम्हारा पुराना बिल मिल गया।’

बाबूलाल चौंकता है, पूछता है, ‘बिल मिल गया?’

बाबू नाक के निचले गन्दे हिस्से को गन्दे तौलिया से पोंछते हुए कहता है, ‘हाँ,कागजों में दब गया था। ढूँढ़ा तो मिल गया। कल आकर चेक ले लो।’

बाबूलाल के जाने के बाद बाबू तौलिया झाड़ता हुआ महिला से शिकायती लहज़े में कहता है, ‘पाँच सौ रुपल्ली के बिल के पीछे दिमाग खा गया। कुछ लोग बड़े सनकी होते हैं।’

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #13 – Topper… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  तेरहवीं कड़ी Topper… ।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। जीवन के सूर्यास्त के पूर्व जब हम आकलन करते हैं कि वास्तव में Topper कौन रहा?  आप भी कल्पना कर के देखिये और आलेख के अंत में कमेंट बॉक्स में अवश्य लिख भेजिये। आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #13?

 

☆ Topper… ☆

 

दुसरी तिसरीपर्यंत ती वर्गात topper होती… त्यानंतर ती त्यांच्या गावी निघून गेली… मग आमचा संपर्क तुटला… आज जवळ जवळ तीस वर्षांनी भेट झाली, ह्या फेसबुकमुले… भेटल्यावर एवढ्या गप्पा होतील असं वाटलं नव्हतं… ३० वर्षांचा काळ खूप मोठा आहे… कसं, काय कधी अशी चौकशी करत गाडी स्वप्नांवर येऊन थांबली… ह्या स्टेशनवर आम्ही जरा जास्तच मोठा hault घेतला…

साहजिकच होतं ते म्हणा… सुरुवातीला उघडपणे बोलणं थोडं कठीण गेलं… पण मग आतली सगळी जळमटे काढून टाकता आली…

काही नाही गं, एकदा संसारात पडलं की सगळं मागे पडतं, नवरा, मुलं, घर, नातेवाईक, सासू सासरे ह्यांना खुश ठेवण्यात दिवस जातात, आपलं असं काही करता येत नाही… कारण इथेही topper राहायचं असतं… तो मान मिळवायचा असतो… त्यात अयोग्य काहीच नाही… आपणच निवडलेली नाती आहेत ना, मग त्यात काय एवढं…

अशी सुरुवात झाली, आणि आज कालची मुलं किती हुशार आहेत, त्यांना किती साऱ्या गोष्टी माहीत असतात ह्या विषयावर भरभरून बोललो… बोलताना दोघींच्या लक्षात आलं की, कुठे तरी चुकतंय… काही तरी राहून जातंय ह्याची जाणीव तीव्र झाली… आणि मग, जे व्हायला नको होतं तेच नेमकं झालं…

थोडं दुःख वाटू लागलं, आपण करिअर केलं नाही ह्याचं…

मी तिला एक किस्सा सांगितला…

काही वर्षांपूर्वी बंगलोरला असताना मराठी अभिनेत्रीशी गप्पा मारायचा योग आला, तेव्हा त्या जे बोलल्या त्याचा मी माझ्या आयुष्याशी संबंध लावू शकते…

त्या म्हणाल्या… लग्नाआधी सिने सुष्टी असेल, नाटक असेल सगळीकडे खूप काम केलं, पण लग्न झाल्यावर माझ्या जीवनातील priorities बदलल्या, आणि त्या स्वीकारून मी पुढे चालत राहिले, जवळ जवळ 15 वर्ष मी ह्या इंडस्ट्री पासून दूर होते, नवऱ्याची बदली जिथे होईल तिथे त्याच्याबरोबर गेले, घर संसार मुलगा ह्यातच रमले, अभिनयाला विसरले नाही, पण आता त्याच्याकडे बघायची वेळ नव्हती… हे मनाशी पक्क होतं… एवढंच सांगते, माझ्या नवऱ्याला आणि मुलाला जेव्हा माझी साथ हवी होती तेव्हा ती मी दिली… आज मी हक्काने मला जे करायचं आहे ते करते, कारण मी माझी जबाबदारी योग्य वेळी पूर्ण केली आहे, आता मला माझी space हवी आहे… आणि ती मी घरातल्या सगळ्यांकडे मागू शकते… पण त्यासाठी मला 15 वर्ष द्यावी लागली .. आधी द्यावं लागतं निःसंकोचपणे आणि मग जे हवंय ते मिळवणं सोपं जातं… प्रत्येक वेळी माझी space माझी space करून चालत नाही, नाही तर नात्यातील space वाढेल हे लक्षात ठेवायला हवं… धीर सोडून चालत नाही ! अहो, साधं उदाहरण घ्या, एक महिना नोकरी केल्यावरच तुम्हाला पगार मिळतो… अगदी एवढं व्यवहारी राहून पण चालत नाही… तेव्हा येतंय ना लक्षात काय करायचं आहे ते ?

काय, तुम्हालापण पटतंय ना !

आम्ही दोघी ह्या विचारला मनात घोळवत पुढच्या कामाला लागलो…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 1 – स्वयं की खोज में ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   स्वयं की खोज में।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – #1  ☆

 

☆ स्वयं की खोज में  

 

दीवाली या दीपावली शब्द में, ‘दीप’ का अर्थ है प्रकाश और ‘अवली’ का अर्थ है पंक्ति ।तो दिवाली/दीपावली का अर्थ है रोशनी की पंक्ति । दिवाली हिन्दुओं का सबसे प्रमुखएवं बड़ा, रोशनी का त्यौहार है । यह त्यौहार भारत और अन्य देशों में जहाँ भी हिंदू रहते हैं हर साल शरद ऋतु, अक्टूबर या नवंबर माह में मनाया जाता है । आध्यात्मिक रूप से दिवाली त्यौहार अंधेरे पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई, अज्ञानता पर ज्ञान, जुनून पर शांति, और निराशा पर आशा की जीत को दर्शाता है । लोग दिवाली की रात्रि सभी जगहों, बाहरी दरवाजे और खिड़कियों, मंदिरों के आसपास, इमारतों आदि में मिटटी  के दीपक जला कर जश्न मनाते  है। दिवाली की रात्रि चारो ओर चमकीले लाखों रोशनी के पुंज बहुत भव्य दिखाई देते हैं ।

इस त्यौहार की तैयारी और अनुष्ठान आम तौर पर पाँच दिनों तक होते हैं (कुछ स्थानों जैसे महाराष्ट्र में छह दिनों तक) । लेकिन दिवाली की मुख्य उत्सव रात्रि हिंदू चंद्र सौर माह ‘कार्तिक’ की सबसे अंधेरी, अमावस्या (नई चंद्रमा की रात्रि ) को होती है । दीवाली रात्रि  मध्य अक्टूबर और मध्य नवंबर के बीच होती है ।

दिवाली की रात्रि से पहले, लोग अपने घरों और कार्यालयों को कई अलग-अलग तरीकों से साफ, पुनर्निर्मित और सजाते हैं । दिवाली की रात्रि  को, लोग नए कपड़े पहनते हैं, अपने घर के अंदर और बाहर प्रकाश के लिए दीये (मिट्टी का दीपक) और मोमबत्तियां जलाते हैं, परिवार के साथ देवी लक्ष्मी जी (प्रजनन क्षमता और समृद्धि की देवी) एवं गणेश जी की पूजा (प्रार्थना) में भाग लेते हैं । पूजा के बाद, बच्चे और बड़े मिलकर आतिशबाजी चलाते हैं, फिर सब मिलकर मिठाई और कई अन्य स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को परिवार के सदस्यों के साथ खाते हैं और करीबी दोस्तों एवं रिश्तेदारों के बीच उपहारों का आदान-प्रदान होता है । दीपावली के आसपास का समय एक प्रमुख खरीदारी अवधि को भी चिह्नित करता है । भारत के क्षेत्र के आधार पर उत्सव के दिनों के साथ-साथ दिवाली के कुछ महत्वपूर्ण अनुष्ठान हिंदुओं के बीच कुछ भिन्न भिन्न रूप से होते हैं । भारत के कई हिस्सों में, दिवाली उत्सव गोवत्स द्वादशी से शुरू होते हैं, इस दिन गायों और बछड़ों की पूजा की जाती है । अगले दिन भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग  में धनतेरस होती है। (अधिकतर लोग धनतेरस से दिवाली उत्सव शुरू करते हैं और दिवाली उत्सव की प्रार्थना का पहला दिन गोवत्स द्वादशी को नहीं मानते हैं बल्कि धनतेरस को ही पहला दिन मानते हैं) उससे अगला तीसरा दिन नर्क चतुर्दशी के नाम से मनाया जाता है चौथा दिन दिवाली के रूप में मनाया जाता है पाँचवा दिन गोवर्धन या गोबर्धन पूजा (गोबार अर्थात गाय का गोबर, क्योंकि पुराने समय में गांवों में लोग गाय के गोबर का प्रयोग बहुत से कार्यो में करते थे और उसमे कई औषधिय गुण भी होते हैं और उस समय में और कई जगह आज भी गाय के गोबर को भी एक प्रकार का धन ही माना जाता है) के नाम से मनाया जाता है जो की पति एवं पत्नी के रिश्ते को समर्पित है ।

छठे दिन भाई दूज, जो बहन-भाई के संबंध को समर्पित है, के साथ उत्सव समाप्त होता है । धनतेरस आमतौर पर दशहरा के अठारह दिन बाद आता है । जिस रात्रि हिन्दू दिवाली मनाते हैं उसी रात्रि, जैन भी भगवान महावीर द्वारा मोक्ष की प्राप्ति को चिन्हित करने के लिए दिवाली नामक त्यौहार मनाते हैं एवं दिवाली के दिन ही सिख लोग मुगल साम्राज्य की जेल से गुरु हरगोबिंद जी की मुक्तई को चिन्हित करने के लिए ‘बंधी छोड़ दिवस’ मनाते हैं ।

दिवाली हिंदू कैलेंडर महीने कार्तिक में ग्रीष्मकालीन फसल कटने के बाद त्यौहार के रूप में भारत में प्राचीन काल से मनाया जाता है । दिवाली त्यौहार का उल्लेख संस्कृत ग्रंथों जैसे पद्म पुराण और स्कंद पुराण में किया गया है- दोनों ग्रन्थ सहस्राब्दी ईस्वी के दूसरे छमाही में पूरा हुए थे, लेकिन माना जाता है कि इन ग्रंथो का पहले के युग के मुख्य लेखन से विस्तार किया गया था।  स्कन्द पुराण में दीया (मिट्टी का दीपक) का उल्लेख प्रतीकात्मक रूप से सूरज के कुछ हिस्सों को दर्शाता है- जो सभी के जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का ब्रह्मांडीय दाता हैं, एवं अंधेरे के डर को दूर करने के लिए हिंदू कैलेंडर के कार्तिक माह में मौसमी रूप से संक्रमण करता है । भारत के कुछ क्षेत्रों में हिंदू कार्तिक अमावस्या (दिवाली रात्रि) पर यम और नचिकेता (ज्ञान की अग्नि) की किंवदंती के साथ दिवाली को जोड़ते हैं ।कठ उपनिषद में नचिकेता की कहानी, सही बनाम गलत, वास्तविक धन बनाम क्षणिक धन, और अज्ञान बनाम ज्ञान, के वास्तविक अंतर के रूप में दर्ज की गई है । दुनिया भर के सबसे ज्यादा हिंदू भगवान राम, उनकी पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण के 14 साल वन में रहने के बाद भगवान राम के द्वारा राक्षस राजा रावण को पराजित करने के बाद भगवान राम, उनकी पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण की अयोध्या वापसी के सम्मान में दिवाली मनाते हैं । लंका से भगवान राम, देवी सीता और लक्ष्मण की वापसी का सम्मान करने के लिए, और अपने मार्ग को उजागर करने के लिए, ग्रामीणों ने बुराई पर भलाई की जीत का जश्न मनाने के लिए सबसे पहले मिट्टी के दीये जलाये और तब ही से दिवाली मनाने का चलन शुरू माना जाता है । कुछ लोगों के लिए महाभारत के अनुसार, दीवाली को पांडवों के बारह वर्षों के वनवास (निर्वासन) और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद की वापसी के जश्न के रूप में मनाते हैं ।इसके अतरिक्त, दीपावली को देवी लक्ष्मी के उत्सव से जोड़ा जाता है, जिनकी हिन्दुओं में धन और समृद्धि की देवी के रूप में पूजा की जाती है, और जो भगवान विष्णु की पत्नी है । दिवाली का 5 दिवसीय त्यौहार उस दिन शुरू होता है जब देवी लक्ष्मी का जन्म, सुर (देवता) और असुर (राक्षसों) द्वारा दूध के लौकिक महासागर के मंथन से हुआ था (धन तेरस); जबकि दिवाली की रात्रि  वह दिन है जब देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को अपने पति के रूप में चुना और उनका विवाह हुआ था ।

दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी के साथ साथ भक्त, भगवान गणेश को प्रसाद अर्पित करते हैं, जो नैतिक शुरुआत और बाधाओं को निडरता से हटाने के प्रतीक हैं । एवं देवी सरस्वती, जो संगीत, साहित्य और शिक्षा की प्रतीक हैं और भगवान कुबेर, जो पुस्तक रखने, छुपा खजाना और धन प्रबंधन का प्रतीक है,की भी पूजा करते हैं । अन्य हिंदुओं का मानना ​​है कि दीवाली वह दिन है जब भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी वैकुंठ में उनके निवास स्थान पर आये थे । जो लोग दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं उन्हें लक्ष्मी माँ की अच्छी मनोदशा का लाभ मिलता है, और इसलिए आगे के वर्ष के लिए मानसिक और भौतिक कल्याण का आशीर्वाद मिलता है । भारत के पूर्वी क्षेत्र, जैसे ओडिशा और पश्चिम बंगाल में हिंदू, दिवाली की रात्रि देवी लक्ष्मी के बजाय देवी काली की पूजा करते हैं, और त्यौहार को काली पूजा कहते हैं ।

गोवर्धन के दिन भारत के ब्रज और उत्तर मध्य क्षेत्रों में, भगवान कृष्ण व्यापक रूप से पूज्येहैं। इस दिन लोग गोवर्धन पर्वत की प्रार्थना करते हैं । भारत के कुछ क्षेत्रों में, गोवर्धन पूजा (या अनाकूट) के दिन, कृष्ण भगवान को 56 या 108 विभिन्न व्यंजनो का भोग लगाया जाता है और प्रसाद वितरित किया जाता है । पश्चिम और भारत के कुछ उत्तरी हिस्सों में, दिवाली का त्यौहार एक नए हिंदू वर्ष की शुरुआत को चिन्हित करता है ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 8 ☆ दोस्ती क्या? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनका  विचारणीय आलेख  “दोस्ती क्या?”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 8 ☆

 

☆ दोस्ती क्या? ☆

 

प्यार, वफ़ा, दोस्ती के/सब किस्से पुराने हो गए/एक छत के नीचे रहते हुए/एक-दूसरे से बेग़ाने हो गए/ अजब-सा है व्याकरण ज़िन्दगी का/हमें खुद से मिले जमाने हो गए/यह फ़साना नहीं, हक़ीक़त है जिंदगी की,आधुनिक युग की….जहां इंसान एक-दूसरे से आगे बढ़ जाना चाहता है, किसी भी कीमत पर…. जीवन मूल्यों को ताक पर रख, मर्यादा को लांघ, निरंतर बढ़ता चला जाता है। यहां तक कि वह किसी के प्राण लेने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करता। औचित्य -अनौचित्य व मानवीय सरोकारों से उसका कोसों दूर का नाता भी नहीं रहता। रिश्ते-नाते आज कल मुंह छिपाए जाने किस कोने में लुप्त हो गए हैं।

प्यार, वफ़ा, दोस्ती अस्तित्वहीन हो गये हैं, क्योंकि संसार में केवल स्वार्थ का बोलबाला है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में चारों ओर बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अविश्वास, संत्रास आदि का भयावह वातावरण सुरसा के मुख की भांति निरंतर फैलता जा रहा है तथा स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, परोपकारादि भावनाओं को अजगर की भांति लील रहा है।

इन विषम परिस्थितियों में संशय, संदेह व आशंका के कारण, केवल दूरियां ही, नहीं बढ़ती जा रहीं, मानव भी आत्म-केंद्रित हो रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी के मध्य पसरा मातम-सा सन्नाटा, अजनबीपन का अहसास, संवादहीनता का परिणाम है, जो मानव को संवेदन-शून्यता के कग़ार पर लाकर नितान्त अकेला छोड़ देता है और मानव एकांत की त्रासदी झेलता हुआ अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है। उसे कोई भी अपना नहीं लगता क्योंकि उसकी संवेदनाएं, अहसास, जज़्बात उसे मृत्तप्राय: प्रतीत होते हैं…किसी वे किसी दूसरे लोक के भासते हैं।

वह लौट जाना चाहता है, अतीत की स्मृतियों में….

जहां उसे बचपन की धमाचौकड़ी,मान-मनुहार,पल- प्रति पल बदलते मनोभावों की यादें आहत-विकल करती हैं। युवावस्था की दोस्ती एक-दूसरे पर जान लुटाने तथा मर-मिटने की कसमें, उसके अंतर्मन को कचोटती हैं। वह निश्छल प्रेम की तलाश में भटकता रहता है, जो समय के साथ नष्ट हो चुकी होती हैं। मानव उसे पा लेना चाहता है,जो कहीं नि:सीम गगन में लुप्त हो चुका होता है, जिसे पाना कल्पनातीत व असंभव हो जाता है। वे नदी के दो किनारों की भांति कभी मिल नहीं सकते, परंतु क्षितिज के उस पार मिलते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु उसकी अंतहीन  तलाश सदैव जारी रहती है।

सुक़ून के चन्द पलों की तलाश में वह आजीवन भटकता रहता है, जहां उसके हाथ केवल निराशा ही लगती है। वह स्वयं से बेखबर, अजनबी सम बनकर रह जाता है। वह मृग-मरीचिका सम भौतिक सुख- सुविधाओं की तलाश में निरंतर भटकता रहता है और एक दिन इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाता है, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

काश! इंसान का अंतर्मन दैवीय गुणों से लबरेज़ से रहता और सहृदयता व सदाशयता को जीवन में धारण कर, अहं को शत्रु सम त्याग देता,तो विश्व में समन्वय,सामंजस्य व समरसता का सुरम्य वातावरण रहता। किसी के मन में किसी के प्रति शत्रुता-प्रतिद्वंद्विता का भाव न रहता…चारों ओर शांति का साम्राज्य प्रतिस्थापित रहता। वह मौन को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार, नवनिधि सम संजो कर रखता व आत्मलीन रहता…. अंतरात्मा के आदेश को स्वीकारता। इस स्थिति में वह राग-द्वेष, स्व-पर से निज़ात पा लेता। उसे प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता। वह संत एकनाथ की भांति कुत्ते में भी प्रभु के दर्शन पाता और रोटी पर घी लगाकर उसे रोटी खिलाने के लिए पीछे-पीछे दौड़ता। वह हर पल अनहद नाद की मस्ती में खोया अलौकिक आनंद को प्राप्त होता क्योंकि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है …जीते जी मुक्ति पाना।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 6 ☆ स्त्री क्या है? ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “स्त्री क्या है ?”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 6  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ स्त्री क्या है ? 

 

क्या तुम बता सकते हो

एक स्त्री का एकांत

स्त्री

जो है बेचैन

नहीं है उसे चैन

स्वयं की जमीन

तलाशती एक स्त्री

क्या तुम जानते हो

स्त्री का प्रेम

स्त्री का धर्म

सदियों से

वह स्वयं के बारे में

जानना चाहती है

क्या है तुम्हारी नजर

मन बहुत व्याकुल है

सोचती है

स्त्री को किसी ने नहीं पहचाना

कभी तुमने

एक स्त्री के मन को है  जाना

पहचाना

कभी तुमने उसे रिश्तों के उधेड़बुन में

जूझते देखा है..

कभी उसके मन के अंदर झांका है

कभी पढ़ा है

उसके भीतर का अंतर्मन.

उसका दर्पण.

कभी उसके चेहरे को पढ़ा है

चेहरा कहना क्या चाहता है

क्या तुमने कभी महसूस किया है

उसके अंदर निकलते लावा को

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के रिश्ते का समीकरण

क्या बता सकते हो

उसकी स्त्रीत्व की आभा

उसका अस्तित्व

उसका कर्तव्य

क्या जानते हो तुम ?

नहीं जानते तुम कुछ भी..

बस

तुम्हारी दृष्टि में

स्त्री की परिभाषा यही है ..

पुरुष की सेविका ……

 

© डॉ भावना शुक्ल

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प आठवे # 8 ☆ स्री भ्रूण हत्या  एक समाजविकृती ! . . . समाज पारावरून . . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये  स्त्री भ्रूण हत्या जैसी एक सामाजिक विकृति पर विचारणीय आलेख “स्री भ्रूण हत्या  एक समाजविकृती ! . . .  समाज पारावरून . . . !”

 

☆ समाज पारावरून – साप्ताहिक स्तंभ  – पुष्प  आठवे # 8 ☆

 

☆ स्री भ्रूण हत्या  एक समाजविकृती ! ☆

आजकाल तरूण पिढी विवाह बद्ध झाल्यावर हम दो हमारा एक  असा विचार सर्रासपणे करताना आढळून येते.  मग  अशा वेळी  *आपला वंश पुढे नेण्यासाठी  आपले नाव लावणारा मुलगाच  आपल्याला हवा* अशी मानसिकता प्रत्येकाने  राजरोस पणे करून घेतली आहे.  उच्च शिक्षित समाजात याचे प्रमाण जास्त आहे. या साठी पैशाच्या बळावर गर्भ लिंग तपासणी करून योग्य ती खबरदारी घेण्याची चढाओढ आपापसात लागली आहे. अपत्य जन्माला घालणारी माता देखील कधी कधी स्वेच्छेने या प्रकरणी होकार देऊन दोषी ठरत आहे.  स्वार्थ साधू वृत्ती  असल्याने  मला  अमुक एक हवे आहे त्यासाठी मी वाट्टेल ते करायला तयार आहे हा दुराग्रह स्त्री भ्रूण हत्या समस्येचे मूळ बनला आहे.

मुलीला पणती मानण्यात धन्यता मानणारे स्वतःवर वेळ आली की  मुलाला जन्म देण्यात जास्त धन्यता मानतात.  आज समाजात *मुलगा झाला* या बातमीत सामावलेला  आनंद  आणि *मुलगी झाली * या बातमीतील खेद विसरून चालणार नाही. ही समाज मानसिकता बदलायला हवी.

गर्भातील  अपत्य जर स्त्री भ्रूण  आहे असे समजले तर तीला  गर्भातच नष्ट करण्यासाठी हजारो प्रयत्न केले जातात. यात समाज विकृती हे महत्वाचे कारण आहे  असे मला वाटते. जोपर्यंत  कुटुंब या प्रकरणात  दोषी ठरत नाही तोपर्यंत मुलगा हवा हा दुराग्रह समाजात पहायला मिळणार.  विवाह करताना जात, पात ,  धर्म  इत्यादी बंधने झुगारून जेव्हा आपण विवाह बंधन स्विकारतो तेव्हा च खर तर  एकमेकांनी शपथ घ्यायला हवी की  गर्भजल परीक्षण न करता  आम्ही  अपत्यास जन्म देऊ.  मुलगा  असो वा मुलगी  आम्ही तितक्याच  आत्मियतेने अपत्याचे पालन पोषण करू.

आज वैद्यकीय सेवेत असलेल्या ब-याच जणांनी या सेवेस व्यवसायाचे स्वरूप दिले आहे.  पैसा फैको नीट तमाशा देखो हा वाक्प्रचार दुर्दैवाने प्रत्येक  क्षेत्रात लागू पडतो  आहे. माणसाला माणूस पैशाच्या बळावर विकत घेतो आहे हे वास्तव स्वीकारण्याची वेळ आता आली आहे. गर्भपात  करणे,  गर्भलिंग तपासणी हे गुन्हे  आहेत हे मान्य असूनही कित्येक सुशिक्षित तो गुन्हा करून मोकळे होतात.  आज मी समाजाचा आहे  या ही पेक्षा माझ्या मुळे समाज आहे ही भावना  माणसाचं माणूस पण हिरावून नेते आहे.

“लेक द्यावी श्रीमंताघरी अन सून आणावी गरीबा घरची ” हा  विचार केव्हाच मागे पडला आहे.  एकटय़ाच्या  पगारात भागत नाही हे कारण पुढे करून भरमसाठ पैसे कमवायचे  आणि याच पैशाच्या जोरावर हवी तशी मनमानी करायची या वृत्ती मुळे आज मुलींची संख्या कमी होत चालली आहे. जातीत मुलगी मिळत नाही म्हणून परजातीय विवाहास मान्यता दिली जाते. पण तिथे ही मुलगा हवा  असा आग्रह दिसल्याने विचारांचे मागासले पण  या समस्येला  अधिक खतपाणी घालते.

समाजातील विविध ठिकाणी  मुलगी वाचवा म्हणून विविध  उपक्रम राबविले जात आहेत. पण कौटुंबिक पातळीवर मात्र *वंशाचा दिवा* कसा  आपल्या घरात तेवत राहिल या कडे लक्ष दिले जात आहे.  नास्तिक मनुष्य देखील मुलगा झाल्यावर देवदर्शन करायला जातो आहे. ही समाज विकृती बदलायची असेल तर प्रत्येकाने  स्वतःच्या कुटुंबापासून या चळवळीची सुरवात केली पाहिजे.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 6 ♥ ब्राण्डेड-वर-वधू ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “ब्राण्डेड-वर-वधू”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 6 ☆ 

 

ब्राण्डेड-वर-वधू

 

हर लड़की अपने उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ घर-वर देखकर शादी करती है, पर जल्दी ही, वह कहने लगती हैं- तुमसे शादी करके तो मेरी किस्मत ही फूट गई है। या फिर तुमने आज तक मुझे दिया ही क्या है? इसी तरह प्रत्येक पति को अपनी पत्नी `सुमुखी` से जल्दी ही सूरजमुखी लगने लगती है। लड़के के घर वालों को तो बारात के वापस लौटते-लौटते ही अपने ठगे जाने का अहसास होने लगता है। जबकि आज के इण्टरनेटी युग में पत्र-पत्रिकाओं, रिश्तेदारों, इण्टरनेट तक में अपने कमाऊ बेटे का पर्याप्त विज्ञापन करने के बाद जो श्रेष्ठतम लड़की, अधिकतम दहेज के साथ मिल रही होती हैं, वहीं रिश्ता किया गया होता हैं यह असंतोष तरह तरह प्रगट होता है । कहीं बहू जला दी जाती हैं, कहीं आत्महत्या करने को विवश कर दी जाती हैं पराकाष्ठा की ये स्थितियां तो उनसे कहीं बेहतर ही हैं, जिनमें लड़की पर तरह तरह के लांछन लगाकर, उसे तिल तिल होम होने पर मजबूर किया जाता हैं।

 

नवयुगल फिल्मों के हीरो-हीरोइन से उत्श्रंखल हो पायें इससे बहुत पहले ननद, सासकी एंट्री हो जाती है। स्टोरी ट्रेजिक बन जाती है और विवाह जो बड़े उत्साह से दो अनजान लोगों के प्रेम का बंधन और दो परिवारों के मिलन का संस्कार हैं,एक ट्रेजडी बन कर रह जाता है। घुटन के साथ, एक समझौते के रूप में समाज के दबाव में मृत्युपर्यन्त यह ढोया जाता है। ऊपरी तौर पर सुसंपन्न, खुशहाल दिखने वाले ढेरो दम्पत्ति अलग अलग अपने दिल पर हाथ रख कर स्वमूल्यांकन करें, तो पायेंगे कि विवाह को लेकर अगर-मगर, एक टीस कहीं न कहीं हर किसी के दिल में हैं। यहाँ आकर मेरा व्यंग्य लेख भी व्यंग्य से ज्यादा एक सीरियस निबंध बनता जा रहा है। मेरे व्यंग्यकार मन में विवाह की इस समस्याका समाधान ढूँढने का यत्न किया । मैंने पाया कि यदि दामाद को दसवां ग्रह मानने वाले इस समाज में, यदि वर-वधू की मार्केटिंग सुधारी जावें, तो स्थिति सुधर सकती है। विवाह से पहले दोनों पक्ष ये सुनिश्चित कर लेवें कि उन्हें इससे बेहतर और कोई रिश्ता उपलब्ध नहीं है। वधू की कुण्डली लड़के के साथसाथ भावी सासू माँ से भी मिलवा ली जावे। वर यह तय कर ले कि जिन्दगी भर ससुर को चूसने वाले पिस्सू बनने की अपेक्षा पुत्रवत्, परिवार का सदस्य बनने में ही दामाद का बड़प्पन हैं, तो वैवाहिक संबंध मधुर स्वरूप ले सकते है।

अब जब वर वधू की एक्सलेरेटेड मार्केटिंग की बात आती है तो मेरा प्रस्ताव है ब्राण्डेड वर, वधू सुलभ कराने की। यूँ तो शादी डॉट कॉम जैसी कई अंर्तराष्ट्रीय वेबसाइट सामने आई हैं। माधुरी दीक्षित जी ने तो एक चैनल पर बाकायदा एक सीरियल ही शादी करवाने को लेकर चला रखा था। अनेक सामाजिक एवं जातिगत संस्थाये सामूहिक विवाह जैसे आयोजन कर ही रही हैं। लगभग प्रत्येक अखबार, पत्रिकायें वैवाहिक विज्ञापन दे रहें है, पर मेरा सुझाव कुछ हटकर है। यूँ तो गहने, हीरे, मोती सदियों से हमारे आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, पर हमारे समय में जब से ब्राण्डेड `हीरा है सदा के लिये´ आया हैं, एक गारण्टी हैं, शुद्धता की। रिटर्न वैल्यू है। रिलायबिलिटी है। आई एस ओ प्रमाण पत्र का जमाना है साहब। खाने की वस्तु खरीदनी हो तो हम चीज नहीं एगमार्क देखने के आदी हैं पैकेजिंग की डेट, और एक्सपायरी अवधि, कीमत सब कुछ प्रिंटेड पढ़कर हम, कुछ भी सुंदर पैकेट में खरीदकर खुश होने की क्षमता रखते है। अब आई एस आई के भारतीय मार्के से हमारा मन नहीं भरता हम ग्लौबलाईजेशन के इस युग में आई एस ओ प्रमाण पत्र की उपलब्धि देखते है। और तो और स्कूलों को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिलता है, यानि सरकारी स्कूल में दो दूनी चार हो, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, पर यदि आई एस ओ प्रमाणित स्कूल में यदि दो दूनी छ: पढ़ा दिया गया, तो कम से कम हम कोर्ट केस करके मुआवजा तो पा ही सकते हैं।

हाल ही एक समाचार पढ़ा कि अमुक ट्रेन को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिला है। मुझे उस ट्रेन में दिल्ली तक सफर करने का अवसर मिला, पर मेरी कल्पना के विपरीत ट्रेन का शौचालय यथावत था जहाँ विशेष तरह की चित्रकारी के द्वारा यौन शिक्षा के सारे पाठ पढ़ाये गये थे, मैं सब कुछ समझ गया। खैर विषयातिरेक न हो, इसलिये पुन: ब्राण्डेड वर वधू पर आते हैं! आशय यह है कि ब्राण्डेड खरीदी से हममें एक कान्फीडेंस रहता है। शादी एक अहम मसला है। लोग विवाह में करोड़ो खर्च कर देते है। कोई हवा में विवाह रचाता है, तो कोई समुद्र में। हाल ही भोपाल में एक जोड़े ने ट्रेकिंग करते हुए पहाड़ पर विवाह के फेरे लिये, एक चैनल ने बकायदा इसे लाइव दिखाया। विवाह आयोजन में लोग जीवन भर की कमाई खर्च कर देते हैं, उधार लेकर भी बड़ी शान शौकत से बहू लाते हैं, विवाह के प्रति यह क्रेज देखते हुये मेरा अनुमान है कि ब्राण्डेड वर वधू अवश्य ही सफलतापूर्वक मार्केट किये जा सकेगें। ब्राण्डेड बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनी सफल विवाह की कोचिंग देगी। मेडिकल परीक्षण करेगी। खून की जांच होगी। वधुओं को सासों से निपटने के गुर सिखायेगी। लड़कियो को विवाह से पहले खाना बनाने से लेकर सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि ललित कलाओ का प्रशिक्षण दिया जावेगा। भावी पति को बच्चे खिलाने से लेकर खाना बनाने तक के तरीके बतायेगी, जिससे पत्नी इन गुणों के आधार पर पति को ब्लेकमेल न कर सके। विवाह का बीमा होगा।

इसी तरह के छोटे-बड़े कई प्रयोग हमारे एम बी ए पढ़े लड़के ब्राण्डेड दूल्हे-दुल्हन पर लेबल लगाने से पहले कर सकते है। कहीं ऐसा न हो कि दुल्हन के साथ साली फ्री का लुभावना आफर ही कोई व्यवसायिक प्रतियोगी कम्पनी प्रस्तुत कर दें। अस्तु! मैं इंतजार में हूँ कि सुदंर गिफ्ट पैक में लेबल लगे, आई एस ओ प्रमाणित दूल्हे-दुल्हन मिलने लगेंगे, और हम प्रसन्नता पूर्वक उनकी खरीदी करेगें, विवाह एक सुखमय, चिर स्थाई प्यार का बंधन बना रहेगा। सात जन्म का साथ निभाने की कामना के साथ, पत्नी हीं नहीं, पति भी हरतालिका व्रत रखेगें।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #8 ☆ खाके ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “खाके”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #8 ☆

 

☆ खाके ☆

 

गोपाल ‘खाके’ फिल्म के विरोध के लिए रूपरेखा बना रहे थे. किस तरह फिल्म के पोस्टर फाड़ना है ? कहाँ  कहाँ विरोध करना है ? किस किस को ज्ञापन देना है ? किस साइट पर क्या क्या लिखना है ? ऐसी अधार्मिक फिल्म का विरोध होना ही चाहिए जो लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाए.

तभी ‘खाके’ फिल्म के निर्माता ने प्रवेश किया.

“अरे! आप.” गोपाल चकित होते हुए बोले, “आइए बैठिए, मोहनजी”, कहते हुए उन्होंने नौकर से इशारा किया. वह चाय-पानी रख कर चला गया.

मोहनजी कुछ बोलना चाहते थे. उन्होंने मेरी ओर देखा.

“ये अपने ही आदमी है,” गोपाल ने आश्वस्त किया, “आप इन के सामने निश्चिन्त हो कर अपनी बात कह सकते हैं.”

“अच्छा जी,” कहते हुए मोहनजी ने एक सूटकेस सामने रख दिया. “आप ने बहुत अच्छा प्रचार किया है. आप ‘खाके’ फिल्म का जितना विरोध करेंगे उतनी ही यह फिल्म फेमस होगी.

“आप का आयडिया अच्छा है. इसलिए आप इस के विभिन्न दृश्यों की जम कर आलोचना कीजिए. बताइए कि इस में क्या-क्या खराब है?”

यह सुन कर मैं चकित रह गया. मेरे मन में मंथन चलने लगा. मेरा ध्यान भटक गया.

एक ओर सूटकेस में पड़े नोट मुझे मुँह चिढ़ा रहे थे, वहीं दूसरी ओर गोपाल का यह रूप मुझे चकित कर रहा था.

“वाह! क्या तरीका निकाला है आप ने, “मोहनजी कहे जा रहे थे, “आप का भी प्रचार हो गया और मेरी फिल्म भी हिट हो गई.”

यह सुन कर मैं ‘खाके’ फिल्म की सार्थकता पर विचार करने लगा. फिल्म सार्थक है या ये लोग ?

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 8 – कॅनव्हास…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। यह सच है कि अक्सर हमारे  जीवन  के रंग हृदय के कॅनव्हास से नहीं उतर पाते और प्रकृति के रंग उस पर चढ़ नहीं पाते।   आज प्रस्तुत है उनकी  एक संस्मरणात्मक भावुक कविता  “कॅनव्हास…!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #8 ☆ 

 

☆ कॅनव्हास…! ☆ 

 

गेल्या कित्येक वर्षात

माझ्या कॅनव्हास वर

पावसाचं चित्रंच उमटलं नाही…

का कोणास ठाऊक

आता पहील्या सारखा पाऊस

रंगामध्ये दाटूनच येत नाही

कितीतरी वेळ मी

कॅनव्हास समोर ठेवून

त्याच्याकडे एक टक पहात रहातो

आता तर

कॅनव्हास वर श्वास घेणारे रंग ही

पाऊस म्हटलं तरी

ब्रश वर गोठायला लागलेत कारण…

माझ्या बापाला

माझी माय गेल्यावर रडताना पाहीलं

आणि तेव्हाच काय तो हवा तेवढा

पाऊस नजरेत साठवला

त्या वेळी त्या पावसाचं चित्र

काळजाच्या इतक्या खोलवर जाऊन

उमटलं की तेव्हापासून

हा बाहेर कोसळणारा पाऊस

कॅनव्हास वर कधी उतरवावासाच वाटला नाही

आणि काळजातल्या त्या पावसा समोर

रंगाचा हा पाऊस कॅनव्हॅसवर

कधी बोलकाच झालाच नाही….!

 

© सुजित कदम

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