हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 4 ☆ गीत –  रौनक मिटी मकानों में ☆ – डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक लाख पचास हजार के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं उनका एक अतिसुन्दर गीत   “ रौनक मिटी मकानों में.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 4 ☆

☆   रौनक मिटी मकानों में  ☆ 

 

झूठे रिश्ते ढोए हमने

प्यार कहाँ मेहमानों में

आँखों ने क्या-क्या देखा है

सुना रोज ही कानों में

 

अर्थों की डोली में झूलें

बिना बात के यों ही फूलें

अर्थहीन बातों पर सब ही

खूब हिलाते मन की चूलें

 

इधर-उधर की सुनते -सुनते

उम्र कटी है तानों में

 

बौराई है अमराई भी

रोज दिखाए चतुराई

बिछुवे बदले पायल बदलीं

बदले भाई -भौजाई

 

कोयल -बुलबुल के स्वर बदले

रौनक मिटी मकानों में

 

उड़ते हैं कुछ नीलगगन में

कहाँ दीखते पंख कटे

चौराहों पर बाज झपटते

दर्शक भी सब बँटे-बँटे

 

बंदूकें अड़ियल शेरों पर

चीख उठीं मैदानों में

 

मोबाइल है सोनचिरैया

टीवी प्रेम पुजारी – सा

सुविधाएं सब भोग -भोग कर

मन है खाली खाली सा

 

आँखें सूखीं, तालू सूखा

रस कब रहा जुबानों में

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य – # 24 ☆ व्यंग्य – वाटर स्पोर्ट्स ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “वाटर स्पोर्ट्स”.  श्री विवेक रंजन जी का यह  व्यंग्यआत्मावलोकनात्मक व्यंग्य के बहाने पाठक को भी वाटरस्पोर्ट्स में भाग लेने के लिए मजबूर कर  देता है।  अब किसकी आँखों का पानी बचा है सभी दूसरों की आँखों के पानी से वाटर स्पोर्ट्स में भाग लेने का मौका ढूंढते रहते हैं। इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 24 ☆ 

☆ वाटर स्पोर्टस ☆

 

विवेक रंजन जी कालेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर, इंजीनियर बन चुके थे. उन्हें इंजीनियर का सहायक बनने के लिये मतलब, “सहायक इंजीनियर” की नौकरी के लिये इंटरव्यू देना पड़ा.  इंटरव्यू का पैनल एक्सपर्ट्स का था, उसने इंजीनियरिंग से संबंधित कोई सवाल ही नही किया, जरूर उन्हें कालेज से मिली मार्कशीट से भरोसा हो गया होगा कि विवेक रंजन मेधावी इंजीनियर हैं. अलबत्ता एक एक्सपर्ट ने पूछा आपने कभी कोई वाटर स्पोर्टस किया है ? विवेक जी को यह बिल्कुल समझ नही आया कि वाटर स्पोर्टस में योग्यता का इंजीनियरिंग की नौकरी में भला क्या काम ? पर उनका विवेक जागा, उन्होनें बताया कि नन्हें विवेक बाथ टब में ही पानी छप छप किया करते थे, शायद इसीलिये वे बचपन से ही लगातार अखबारो में छपा करते हैं. जैसे ही कुछ बड़े हुये अपनी बहनो के साथ “गोल गोल रानी इत्ता इत्ता पानी ” का प्रतीकात्मक वाटर स्पोर्टस भी उन्होने खेला है, उसके बाद अपनी स्लेट को गीले स्पंज से पोंछने के बाद ” नदी का पानी नदी में जा, कुंए का पानी कुंए में जा, मेरी स्लेट सूख जा ” वाला सुरमयी गान भी उन्होने गाया है, यद्यपि इसे वाटर स्पोर्ट्स माना जावे या नही यह पैनल पर निर्भर करता है. रही तैराकी, नौकायन की बात तो बंदा मण्डला में नर्मदा तट पर  पैदा हुआ है, ब्रेस्ट स्ट्रोक से लेकर बटरफ्लाई और फ्रीस्टाईल तक हर कुछ जानता है. इंटरव्यू बोर्ड हंस पड़ा. हंसा सो फंसा, विवेक रंजन जी सहायक इंजीनियर की नौकरी पर रख लिये गये. तब से अब तक बस रखे ही रखे हैं. असली काम की जगहो पर पोस्टिंग कभी नही हुई, शायद उसके लिये पानी पी पी कर मख्खन लगा सकने वाले स्पोर्ट्स में वे कमजोर हैं. यानी सहायक इंजीनियर से चीफ इंजीनियर बनने के इस बेदाग सफर में महाशय  सब कुछ हुये पर “इंजीनियर” कभी न हो पाये.

बात वाटर स्पोर्ट्स की हो रही है, तो याद आया  हमारे नये एम डी साहब को स्वीमिंग में रुचि थी, उनका कहना था कि तैराकी सबसे अच्छा व्यायाम है, जिससे सारे बदन की वर्जिश हो जाती है. तन मन में स्फूर्ति बनी रहती है, सारे दिन आदमी तरोताजा और चैतन्य रहा आता है. एम डी साहब की अभिरुचि के अनुरूप स्वाभाविक था कि अचानक सारे डिपार्टमेंट में स्वीमिंग के प्रति सोया हुआ अनुराग पुनर्जागृत हो गया. हर अधिकारी पूल में वही स्लाट लेने को लालायित रहने लगा जिसमें एम डी साहब सपरिवार पूल जाते थे. नई नई स्वीमिंग कास्ट्यूम खरीद कर लोग तैरने के लिये जुटने लगे. जिन्हें तैराकी नही आती थी वे गूगल पर स्विंमिंग सर्च कर उसकी बारीकियां और रिकार्ड्स पढ़ने लगे, जिससे चाय पर चुस्कियो के साथ वार्तालाप के लिये कुछ मसाला मिल सके. एन्युअल इंटर रीजन स्विंमिंग कम्पटीशन आयोजित किया गया. फ्री स्टाईल रेस में खुद एम डी साहब का बेटा हिस्सेदारी कर रहा था,रेफरी से लेकर दर्शको तक सबकी विशेष अभिरुचि इस  इवेंट में  जाग गई थी.  पता नही यह रेफरी की स्टाप वाच की गलती थी या रेफरी ने अज्ञानता वश यह कारनामा कर दिखाया था, दरअसल जब परिणाम घोषित किया गया तो एम डी साहब के बेटे की टाइमिंग नेशनल रिकार्ड से भी कम थी, मैं मन ही मन मुस्कराकर चुप रह गया. एम डी साहब का होनहार तैराक बेटा फर्स्ट प्राइज की शील्ड लेकर प्रसन्नता पूर्वक फोटो के लिये पोज दे रहा था, हम तालियां पीटकर खुशियां बांट रहे थे.

एक और तरह के वाटर स्पोर्ट्स से भी मैं परिचित हूं. जिस वाटर स्पोर्टस् में भारतीय बेटियां बहुत निपुण होती हैं. अपने हर दर्द को आंसू में बहा देने की कला, और उन आंसुंओ को बेवजह मुंह धोकर अपना दुख छिपा जाने,  मुस्कराने की योग्यता, अंयत्र दुर्लभ है. वाटर स्पोर्टस् के लिये सबसे जरूरी होता है पानी,  रहीम बहुत पहले लिख गये हैं, “रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून ” सो इल्तिजा यही है कि आंखो का पानी कभी भी सूखने न दीजीयेगा.

 

लेखक पुरस्कृत व्यंग्यकार हैं, व्यंग्य की ५ पुस्तकें प्रकाशित हैं. संप्रति मुख्य अभियंता म. प्र विद्युत मण्डल जबलपुर

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 25 – जगायला शिकू… ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता जगायला शिकू… )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #25☆ 

 

☆  जगायला शिकू… ☆ 

 

श्वास घेऊनीच आलो

श्वास होऊनीच जाऊ

आयुष्यात सुख दुःख

थोडं देऊ थोडं घेऊ. . . . !

 

कुणी असा कुणी तसा

प्रश्न रोजचाच आहे

माझ्या त्यांच्या मनामध्ये

राग लपलेला आहे…!

 

सूत्र जीवनाचे साधे

नाही कळले कोणाला

जन्म गेला माणसात

माणसाला शोधण्याला . . . . !

 

मातीमध्ये उगवलो

आस आभाळाची ठेऊ

ऊन, पाऊसा सारखे

जरा जगायला शिकू…!

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆ गणना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक सार्थक लघुकथा  “गणना ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆

☆ गणना ☆

 

अनीता बहुत परेशान थी.  250 बच्चों की गणना करना, फिर उन्हें जातिवार बांटना, लड़का- लड़की में छांटना – यह वह अकेली कर नहीं पा रही थी . आखिर थक हर कर अपने एक शिक्षक साथी से कहा , “आप मेरी गणना करवा दीजिए.”

साथी मुंहफट था “मैं आप  का काम करवा देता हूँ, बदले मुझे क्या मिलेगा ?”

“जो आप चाहे,” कहने को अनीता कह गई, मगर बाद में उस ने बहुत सोचा और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि घर से दूर रह कर यह गठबंधन करने में ही उसे ज्यादा फायदा है. अन्यथा वह यहाँ अकेली नौकरी नहीं कर पाएगी. इसलिए चुपचाप साथी के साथ गणना करने चल दी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 27 – मी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “मी.  सुश्री प्रभा जी  ने  ‘मी ‘ अर्थात ‘ मैं ‘  शीर्षक से  अपने बारे में जो बेबाक विचार लिखे, हैं वे अकल्पनीय है। वास्तव में स्वयं के बारे में  लिखना अथवा आत्मावलोकन कर लिपिबद्ध करना अत्यंत कठिन है। किन्तु, उन्होंने इतने कठिन तथ्य को अत्यंत सहज तरीके से कलमबद्ध कर दिया है कि कोई भी बिना उनसे मिले या बिना उनके बारे में जाने भी उनके व्यक्तित्व को  जान सकता है।  स्वाभिमान एवं सम्मानपूर्वक मौलिक व्यक्तित्व एवं मौलिक रचनाओं की सृष्टा, एक सामान्य इंसान की तरह, बिना किसी बंधन में बंधी  एकदम सरल मुक्तछंद कविता की तरह। मैं यह लिखना नहीं भूलता कि  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 27 ☆

☆ मी ☆ 

 

मी नाही देवी अथवा

समई देवघरातली!

मला म्हणू ही नका

कुणी तसले काही बाही !

 

कुणा प्रख्यात कवयित्री सारखी

असेलही माझी केशरचना,

किंवा धारण केले असेल मी

एखाद्या ख्यातनाम कवयित्री चे नाव

पण हे केवळ योगायोगानेच !

मला नाही बनायचे

कुणाची प्रतिमा किंवा प्रतिकृती,

मी माझीच, माझ्याच सारखी!

 

एखाद्या हिंदी गाण्यात

असेलही माझी झलक,

किंवा इंग्रजी कवितेतली

असेन मी “लेझी मेरी” !

 

माझ्या पसारेदार घरात

राहातही असेन मी

बेशिस्तपणे,

किंवा माझ्या मर्जीप्रमाणे

मी करतही असेन,

झाडू पोछा, धुणीभांडी,

किंवा पडू ही देत असेन

अस्ताव्यस्त  !

कधी करतही असेन,

नेटकेपणाने पूजाअर्चा,

रेखितही असेन

दारात रांगोळी!

 

माझ्या संपूर्ण जगण्यावर

असते मोहर

माझ्याच नावाची !

मी नाही करत कधी कुणाची नक्कल

किंवा देत ही नाही

कधी कुणाच्या चुकांचे दाखले,

कारण

‘चुकणे हे मानवी आहे’

हे अंतिम सत्य मला मान्य!

म्हणूनच कुणी केली कुटाळी,

दिल्या शिव्या चार,

मी करतही नाही

त्याचा फार विचार!

 

कुणी म्हणावे मला

बेजबाबदार, बेशिस्त,

माझी नाही कुणावर भिस्त!

मी माणूसपण  जपणारी बाई

मी मानवजातीची,

मनुष्य वंशाची!

मला म्हणू नका देवी अथवा

समई देवघरातली!

मी नाही कुणाची यशोमय गाथा

मी एक मनस्वी,

मुक्तछंदातली कविता!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 25 – किससे कहें, सुनें अब मन की—- ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक  विचारोत्तेजक कविता   “किससे कहें, सुनें अब मन की—–। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 24 ☆

 

☆ किससे कहें, सुनें अब मन की—– ☆  

 

किससे कहें, सुनें

अब मन की।

 

नित नूतन आडंबर लादे

घूम रहे,  राजा के प्यादे

गुटर-गुटर गूँ  करे कबूतर

गिद्ध, अभय के करते वादे,

बात शहर में

जंगल, वन की।

किससे कहें……..

 

सपनों में, रेशम सी बातें

स्वर्ण-कटारी, करती घातें

रोटी  है  बेचैन, – कराहे

वे खा-खा कर नहीं अघाते,

बातें भूले

अपनेपन की।

किससे कहें……….

 

अब गुलाब में, केवल कांटे

फूल, परस्पर  खुद  में बांटे

गेंदा, जूही, मोगरा- चंपा

इनको है, मौसम के चांटे,

रौनक नहीं, रही

उपवन की ।

किससे कहें……….

 

है अपनों के बीच दीवारें

सद्भावों के, नकली नारे

कानों में, मिश्री रस घोले

मिले स्वाद,किन्तु बस खारे

कब्रों से हुँकार

गगन की ।

किससे कहें ………

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 3 ☆ गीत ☆ पर्यावरण को चोट ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है पर्यावरण संरक्षण पर एक गीत  “पर्यावरण को चोट”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 3 ☆

☆ कविता/ गीत  – पर्यावरण को चोट ☆

ना काटो,ना काटो, ना काटो सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– एक –
पेड़ पौधे  दवाइयों के तुमने काटे,
पीपल, अश्वगंधा  और बरगद सारे.
नीम ,चंदन,तुलसी के पेड़ काट डारे.
धरती की पीर सुनो,ओ काटन हारे.
– दो –
सुन्दर फूलों की बगिया उजारी
चम्पा, गुलाब, गेंदा, और चमेली
जारुल ,पलास और कमल भी उजारे.
धरती की पीर सुनो,ओ काटन हारे.
– तीन –
बांस, बबूल, शीशम, इमली निबुआ,
अमरुद, आम, केला, तरबूज तेन्दुआ,
 पानी न दे पाये, सब मिट गये सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– चार –
काट सारे पेड़ दिये, हवा पानी रोक लिये
कहाँ रूके बदरा कहाँ पानी बरसे
उड़ उड़ निकर के विखर गये सारे
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.
– पाँच –
धरती की बोली समझ लो सारे
पेड़ और पौधे फिर से लगाओ रे
छोटे बड़े सभी लग जाओ सारे.
धरती की पीर सुनो ओ काटन हारे.

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 7 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 7 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

 

प्रश्न :-  यह तो कपडे के बारे में हुआ। लेकिन यंत्र की बनी तो अनेक चीजें हैं। वे चीजें या तो हमें परदेश से लेनी होंगी या ऐसे यंत्र हमारे देश में दाखिल करने होंगे।

उत्तर:- सचमुच हमारे देव (मूर्तियाँ) भी जर्मनी के यंत्रों से बनकर आते हैं; तो फिर दियासलाई या आलपिन से लेकर कांच के झाड-फानूस की तो बात क्या? मेरा अपना जवाब तो एक ही है। जब ये चीजें यंत्र से नहीं बनती थी तब हिन्दुस्तान क्या करता था? वैसा ही वह आज भी कर सकता है। जब तक हम हाथ से आलपिन नहीं बनायेंगे तब तक हम उसके बिना अपना काम चला लेंगे। झाड-फानूस को आग  लगा देंगे। मिटटी के दिए में तेल डालकर और हमारे खेत में पैदा हुई रुई की बत्ती बनाकर दिया जलाएंगे। ऐसा करने से हमारी आँखे (खराब होने से) बचेंगी, पैसे बचेंगे और हम स्वदेशी रहेंगे, बनेंगे और स्वराज की धूनी जगायेंगे।

यह सारा काम सब लोग एक ही समय में करेंगे या एक ही समय में कुछ लोग यंत्र की सब चीजें छोड़ देंगे, यह संभव नहीं है। लेकिन अगर यह विचार सही होगा, तो हमेशा थोड़ी-थोड़ी चीजें छोड़ते जायेंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो दूसरे लोग भी ऐसा करेंगे। पहले तो यह विचार जड़ पकडे यह जरूरी है; बाद में उसके मुताबिक़ काम होगा। पहले एक आदमी करेगा, फिर दस, फिर सौ- यों नारियल की कहानी की तरह लोग बढ़ते ही जायेंगे। बड़े लोग  जो काम करते हैं उसे छोटे भी करते हैं और करेंगे। समझे तो बात छोटी और सरल है। आपको मुझे और दूसरों  के करने की राह नहीं देखना है। हम तो ज्यों ही समझ ले त्यों ही उसे शुरू कर दें। जो नहीं करेगा वह खोएगा। समझते हुए भी जो नहीं करेगा, वह निरा दम्भी कहलायेगा।

प्रश्न:- ट्रामगाडी और बिजली की बत्ती का क्या होगा?

उत्तर :- यह सवाल आपने बहुत देर से किया। इस सवाल में अब कोई जान नहीं रही। रेल ने अगर हमारा नाश किया है, तो क्या ट्राम नहीं करती? यंत्र तो सांप का ऐसा बिल है, जिसमें एक नहीं सैकड़ों सांप होते हैं। एक के पीछे दूसरा लगा ही रहता है। जहाँ यंत्र होंगे वहाँ बड़े शहर होंगे वहाँ ट्राम गाडी और रेलगाड़ी होगी। वहीं बिजली की बत्ती की जरूरत रहती है। आप जानते होंगे विलायत में भी देहातों में बिजली की बत्ती या ट्राम नहीं है। प्रामाणिक वैद्य और डाक्टर आपको बताएँगे कि जहाँ रेलगाड़ी, ट्रामगाडी वगैरा साधन बढे हैं, वहाँ लोगों की तंदुरुस्ती  गिरी हुई होती है। मुझे याद है कि यूरोप के एक शहर में जब पैसे की तंगी हो गई थी तब ट्रामों, वकीलों, डाक्टरों की आमदनी घट गई थी, लेकिन लोग तंदुरस्त हो गए थे।

यंत्र का गुण तो मुझे एक भी याद नहीं आता, जब कि उसके अवगुणों से मैं पूरी किताब लिख सकता हूँ।

प्रश्न :- यह सारा लिखा हुआ यंत्र की मदद से छापा जाएगा और उसकी मदद से बांटा जाएगा, यह यंत्र का गुण है या अवगुण?

उत्तर :- यह ‘जहर की दवा जहर है’ की मिसाल है। इसमें यंत्र का कोई गुण नहीं है। यंत्र मरते-मरते कह जाता है कि ‘मुझसे बचिए, होशियार रहिये; मुझसे आपको कोई फायदा नहीं होने का।‘ अगर ऐसा कहा जाय कि यंत्र ने इतनी ठीक कोशिश की, तो यह भी उन्ही के लिए लागू होता है, जो यंत्र के जाल में फँसे हुए हैं।

लेकिन मूल बात न भूलियेगा। मन में यह तय कर लेना चाहिए कि यंत्र खराब चीज है। बाद में हम उसका धीरे-धीरे नाश करेंगे। ऐसा कोई सरल रास्ता कुदरत ने बनाया ही नहीं है कि जिस चीज की हमें इच्छा हो वह तुरंत मिल जाय। यंत्र के ऊपर हमारी मीठी नजर के बजाय जहरीली नजर पड़ेगी, तो आखिर वह जाएगा ही।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆ विसाल ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “विसाल”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 20 ☆

☆ विसाल

ज़ाफ़रानी* शामों में

मैं जब भी घूमा करती थी

नीली नदी के किनारे,

नज़र पड़ ही जाती थी

उस बेक़रार से दरख़्त पर

और उस कभी न मानने वाली

बेल पर!

 

आज अचानक देखा

कि पहुँचने लगी है वो बेल

उस नीली नदी किनारे खड़े

अमलतास के

उम्मीद भरे पीले दरख़्त पर,

एहसास की धारा बनकर|

 

शायद

वो खामोश रहती होगी,

पर अपनी चौकन्नी आँखों से

देखती रहती होगी

उस दरख़्त के ज़हन के उतार-चढ़ाव,

महसूस किया करती होगी

उस दरख़्त की बेताबी,

समझती होगी

उस दरख़्त की बेइंतेहा मुहब्बत को…

 

एक दिन

बेल के जिगर में भी

तलातुम** आना ही था,

और आज की शाम वो

अब बिना किसी बंदिश के

बह चली है

एहसास की धारा बनकर

विसाल*** के लिए!

 

*ज़ाफ़रानी = saffron

**तलातुम = waves

***विसाल = to meet

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्त्रीत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज

 

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  स्त्रीत्व

 

उन आँखों में

बसी है स्त्री देह,

देह नहीं, सिर्फ

कुछ अंग विशेष,

अंग विशेष भी नहीं

केवल मादा चिरायंध,

सोचता हूँ काश,

इन आँखों में कभी

बस सके स्त्री देह..,

केवल देह नहीं

स्त्रीत्व का सौरभ,

केवल सौरभ नहीं

अपितु स्त्रीत्व

अपनी समग्रता के साथ,

फिर सोचता हूँ

समग्रता बसाने के लिए

उन आँखों का व्यास

भी तो बड़ा होना चाहिए!

 

समाज की आँख का व्यास बढ़ाने की मुहिम का हिस्सा बनें। आपका दिन सार्थक हो।

 

संजय भारद्वाज
[email protected]

प्रात: 9.24 बजे, 5.12.19

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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