मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक १२ ते २०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक १२ ते २०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।

यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥१२॥

*

व्योम जरी व्यापुनिया ये तेजे सहस्र सूर्याच्या

तुल्य व्हायचे ना तेजा विश्वरूप परमात्म्याच्या ॥१२॥

*

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।

अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥१३॥

*

अनेक देवांना विविध रूपे दिसली दृष्टीला

श्रीकृष्णा देही पाहुन स्थित धन्य पार्थ झाला ॥१३॥

*

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।

प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥१४॥

*

चकित होऊनिया तदनंतर रोमांचित झाला पार्थ 

हात जोडुनी नमन करूनी परमात्म्या झाला कथित ॥१४॥

अर्जुन उवाच

पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्‍घान्‌ ।

ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्‌ ॥१५॥

कथित अर्जुन 

दिसती मजला तव देहात भूत विशेष देव

महादेव कमलस्थ ब्रह्मा ऋषी सर्प दिव्य ॥१५॥

*

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्‌ ।

नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥१६॥

*

तुमच्या ठायी विश्वेश्वरा मजला दिसती

अनेक बाहू उदर नयन आनन ते किती

आदि मध्य ना अंत जयाला ऐसे हे रूप

आकलन ना दृष्टी होई अगाध विश्वरूप ॥१६॥

*

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्‌ ।

पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्‌ ॥१७॥

*

गदा चक्र मुकुट युक्त दिव्य तेजःपुंज रूप

दाहीदिशांनी प्रकाशमान तेजोमय रूप

ज्योती अनल भास्कर यांच्या तेजाचे रूप

प्रमाण नाही कसले ऐसे तुमचे दिव्य रूप ॥१७॥

*

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ ।

त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥१८॥

*

तुम्हीच परब्रह्म शाश्वत परमात्मा आश्रय विश्वाचा 

तुम्ही सनातन पुरुष अविनाशी रक्षक अनादि धर्माचा॥१८॥

*

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्‌ ।

पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्‌ ॥१९॥

*

आदिमध्यअंत नाही चंद्रसूर्य नयन तुमचे

अनंत भुजा तुम्हाला सामर्थ्य अनंत तुमचे 

दर्शन मज तुमच्या हुताशनीपूर्ण आननाचे 

तम हटवुनी उजळितसे विश्वा तेज तयाचे ॥१९॥

*

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।

दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्‌ ॥२०॥

*

आस्वर्ग वसुंधरा तुम्हीच व्यापिले अवकाश

अलौकिक तुमच्या या उग्र विराट रुपास

त्रैलोक्यवासी समस्त  अवलोकून चकित

अंतर्बाह्य जाहले विचलित होउनी भयभीत ॥२०॥

 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 205 ☆ जाहि निकारि गेह ते… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जाहि निकारि गेह ते…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 205 ☆ जाहि निकारि गेह ते

वैचारिक रूप से समृद्ध व्यक्ति सही समय पर सही फैसले करता है। जनकल्याण उसके जीवन का मूल उद्देश्य होता है। कहते हैं-

प्रतिष्ठा का वस्त्र जीवन में कभी नहीं फटता, किन्तु वस्त्रों की बदौलत अर्जित प्रतिष्ठा, जल्दी ही तार- तार हो जाती है।

अक्सर लोग कहते हुए दिखते हैं- चार दिन की जिंदगी है, मौज- मस्ती करो, क्या जरूरत है परेशान होने की। कहीं न कहीं ये बात भी सही लगती है। अब बेचारा मन क्या करे? सुंदर सजीले वस्त्र खरीदे, पुस्तकें पढ़े, सत्संग में जाए या मोबाइल पर चैटिंग करे?

प्रश्न तो सारे ही कठिन लग रहे हैं, एक अकेली जान अपनी तारीफ़ सुनने के लिए क्या करे क्या न करे?

15 लोगों का समूह जिन्हें एक जैसी परिस्थितियों में रखा गया , भले ही वे अलग- अलग पृष्ठभूमि के थे किन्तु मिलजुलकर रहने लगे। इस सबमें थोड़ी बहुत नोकझोक होना स्वाभाविक है। यहाँ अवलोकन इस आधार को ध्यान में रखकर किया गया कि सबसे ज्यादा सक्रिय कौन सा सदस्य है। जो लगातार न केवल स्वयं को योग्य बना रहा है वरन वो सब भी करता जा रहा है जिसके कारण उसका चयन यहाँ हुआ है।

देखने में स्पष्ट रूप से पाया गया कि जमीन से जुड़ी प्रतिभा न केवल शारीरिक दृष्टि से मजबूत है बल्कि उसकी सीखने की लगन भी उसे शिखर पर पहुँचा रही है। वहाँ उपस्थित सभी लोग उसका लोहा मान रहे हैं। कुछ लोग दबी जुबान से उसकी तारीफ करते हैं।

कहने का अर्थ यही है कि लगातार सीखने की इच्छा आपको सर्वश्रेष्ठ बनाती है। केवल एक पल का विजेता बनना आपको शीर्ष पर भले ही विराजित कर दे किंतु हर क्षण का सदुपयोग करने वाला सच्चा विजेता होता है। उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 14 – आधुनिक गधे की कहानी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना आधुनिक गधे की कहानी।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 14 – आधुनिक गधे की कहानी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

किसी गाँव में एक सीधा-सादा गधा रहता था, जिसका नाम गधेराम था। गधेराम बेहद मेहनती था, दिन-रात अपने मालिक के खेतों में काम करता था। गाँव के लोग उसे सम्मान की नजर से देखते थे, क्योंकि वह कभी किसी से शिकायत नहीं करता था और हमेशा अपने काम में लगा रहता था। लेकिन क्या मेहनत और ईमानदारी का जमाना सच में बीत चुका है?

एक दिन, गधेराम के मालिक ने सोचा, “क्यों न गधेराम को शहर ले जाया जाए और वहाँ उसका इस्तेमाल किया जाए?” मालिक की यह सोच सुनकर गधेराम बहुत उत्साहित हुआ। उसने सोचा, “शहर की चमक-धमक और आराम की जिंदगी का मजा लूंगा।” लेकिन क्या सच में शहर की चमक-धमक गाँव की सादगी से बेहतर है?

गधेराम को शहर लाया गया और उसे एक बड़े उद्योगपति के हवाले कर दिया गया। उद्योगपति ने गधेराम को देखा और हँसते हुए कहा, “यह गधा हमारे ऑफिस के लिए एकदम सही रहेगा।” अब सोचिए, एक गधे को ऑफिस में काम करने के लिए सही कैसे माना जा सकता है? क्या यह आधुनिक समाज की मानसिकता पर एक तंज नहीं है?

गधेराम को अब एक नयी जिम्मेदारी सौंपी गई – ऑफिस के कागजात और फाइलें इधर-उधर ले जाना। शहर के ऑफिस की जिंदगी बिल्कुल अलग थी। गधेराम ने देखा कि वहाँ के लोग अपने काम के लिए नहीं बल्कि अपनी चालाकी और होशियारी के लिए जाने जाते हैं। ऑफिस में सभी लोग एक-दूसरे की तारीफ करते थे, लेकिन पीठ पीछे बुराई करने से बाज नहीं आते थे। क्या यह सच में तरक्की का रास्ता है?

गधेराम ने अपने काम में पूरी मेहनत और लगन दिखाई, लेकिन ऑफिस के लोग उसे कभी गंभीरता से नहीं लेते थे। वे हमेशा उसे नीचा दिखाने की कोशिश करते थे। एक दिन, ऑफिस के एक कर्मचारी ने गधेराम से कहा, “अरे गधेराम, तुम तो बड़े मेहनती हो, लेकिन इस ऑफिस में मेहनत से नहीं, चालाकी से काम होता है।” क्या यह सीखने की बात है या फिर एक कटाक्ष?

गधेराम ने सोचा, “शायद मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि यहाँ कैसे काम किया जाता है।” उसने अपने आप को बदलने की कोशिश की। अब वह भी ऑफिस की राजनीति में शामिल हो गया। लेकिन क्या ईमानदारी और सच्चाई को छोड़कर सफल होना सही है?

अब गधेराम भी चालाकी और धूर्तता की राह पर चल पड़ा। लेकिन फिर भी, उसके साथियों ने उसे कभी स्वीकार नहीं किया। ऑफिस के लोग उसे पहले से भी ज्यादा परेशान करने लगे। उसे छोटे-मोटे कामों में उलझा कर रखा जाने लगा, ताकि वह कभी अपने असली काम में सफल न हो सके। गधेराम के आँखों में आँसू आने लगे। उसे अपने गाँव और वहाँ की सादगी भरी जिंदगी याद आने लगी। क्या वास्तव में सच्चाई और ईमानदारी का कोई मोल नहीं?

एक दिन, गधेराम ने अपने मालिक से कहा, “मालिक, मुझे गाँव वापस जाने दो। यहाँ की जिंदगी मेरे लिए नहीं है।” मालिक ने गधेराम की बात सुनी और उसे गाँव वापस भेजने का फैसला किया। लेकिन क्या वापस लौटने से समस्याओं का समाधान हो जाएगा?

गधेराम जब गाँव लौटा, तो वहाँ के लोगों ने उसका स्वागत किया। सभी ने देखा कि गधेराम ने शहर की चमक-धमक से क्या सीखा है। गधेराम ने गाँव के लोगों से कहा, “शहर की जिंदगी में चमक-धमक तो बहुत है, लेकिन सच्चाई और ईमानदारी का कोई मूल्य नहीं। वहाँ हर कोई एक-दूसरे को नीचे गिराने की कोशिश करता है। लेकिन यहाँ गाँव में, सादगी और मेहनत का सम्मान होता है।” क्या यह हमारे समाज की असली तस्वीर नहीं है?

गधेराम की यह बात सुनकर गाँव के लोग भावुक हो गए। उन्होंने गधेराम से वादा किया कि वे कभी भी अपनी सादगी और ईमानदारी नहीं छोड़ेंगे। गधेराम ने भी यह वादा किया कि वह हमेशा अपने गाँव और वहाँ की सादगी भरी जिंदगी के लिए मेहनत करेगा। लेकिन क्या वास्तव में यह वादे निभाए जा सकते हैं?

यह कहानी हमें सिखाती है कि चाहे दुनिया कितनी भी बदल जाए, सादगी और ईमानदारी का मूल्य हमेशा बना रहता है। गधेराम की कहानी एक प्रेरणा है उन सभी के लिए जो अपनी मेहनत और सच्चाई से कभी पीछे नहीं हटते। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम वास्तव में इस प्रेरणा को अपनाते हैं? क्या हम भी गधेराम की तरह सच्चाई और ईमानदारी की राह पर चल सकते हैं? या फिर हम भी आधुनिक समाज की चालाकियों में उलझ कर रह जाएंगे?

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 292 ☆ कविता – सेवा निवृत्ति पर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 292 ☆

? कविता – सेवा निवृत्ति पर ?

तीस-पैंतीस साल पहले, एक नौजवान,

मिठाई बांट रहा था नौकरी में चयन पर,

मां खुश थी, बहनें हर्षित,

पिता की चिंता थी खत्म हुई।

 

आज वही युवक बन चुका है एक परिपक्व पुरुष,

कुछ खिचड़ी बाल अब वह रखता है,

साथ ब्लड प्रेशर और शुगर की दवाएं,

नौकरी की गाथा पूरी हुई,

पत्नी प्रसन्न हुई,

अब आपका समय सिर्फ मेरा होगा।

 

खूब मेहनत की है आपने,

अब समय है आराम और सुकून का,

घूमना है दुनियां,

अब यादें हैं अनगिनत,

अनुभव हैं अमूल्य,

डायरियां भर भर,

सीखा और जिया है जीवन,

नित नई चुनौतियों की फाइलों के बीच।

 

अब समय है खुद के लिए समय निकालने का,

अपने सपनों को पूरा करने का,

नई उम्मीदों के साथ,

जीवन के नए मुकाम की ओर बढ़ने का,

जीवन के नए अध्याय रचने हैं,

कुछ खुद के लिए,

कुछ परिवार के लिए,

और कुछ समाज के लिए।

 

जुड़ना है अब दोबारा गांव की मिट्टी से,

करने हैं पूरे अपने शौक,

बेरोकटोक जीना है अपने आप के लिए।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 212 ☆ बाल गीत – पुस्तक बाँचें ज्ञान-वान की ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 212 ☆

बाल गीत – पुस्तक बाँचें ज्ञान-वान की  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चिड़िया बैठी शमी-डाल पर

करती आज सवेरा।

आँख दिखाई चिड़िया ने जब

भागा दूर अँधेरा।।

एक-एक करके बहुतेरी

चिड़ियाँ हैं आईं।

पुस्तक बाँचें ज्ञान-वान की

मन से करें पढ़ाई।

 *

पढ़तीं क,ख,ग,घ,अं,अः,

कोई ठ से पढ़े ठठेरा।।

 *

कोई पढ़ती ए,बी,सी,डी,

पढ़तीं अ , आ , इ , ई।

गणित और विज्ञान पढ़ें सीखें

तकनीकें नई -नई।

 *

कोई पढ़ती बाल पत्रिका

उपवन में उनका डेरा।

 *

शिक्षा से ही ज्योतिर्मय हो

मिटती द्वेष कुरीती।

देश प्रेम जगता है मन में

बढ़े सुमति सँग प्रीती।

 *

अहंकार भी मिट जाता है

मन से तेरा – मेरा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #179 – आलेख – ओजोन कवच की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “ओजोन कवच की आत्मकथा )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 179 ☆

☆ आलेख – ओजोन कवच की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मैं हूं ओजोन कवच, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद हूं, जहां से मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करता हूं। ये विकिरण मनुष्यों, पौधों और जानवरों के लिए बहुत ही हानिकारक होते हैं। वे त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान और अन्य कई बीमारियों का कारण बन सकते हैं।

मेरी खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। उन्होंने सूर्य से आने वाले प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कुछ काले रंग के क्षेत्रों को देखा, जो पराबैंगनी विकिरण के अवशोषण के कारण थे।

मेरा निर्माण सूर्य से आने वाले ऑक्सीजन के अणुओं से होता है। ये अणु वायुमंडल में ऊपर उठते समय, उच्च तापमान और ऊर्जा के कारण टूट जाते हैं और ऑक्सीजन के तीन अणुओं से बने ओजोन अणुओं में बदल जाते हैं।

मैं पृथ्वी के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच हूं। मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके, जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं।

अंतर्राष्ट्रीय ओजोन परिषद की स्थापना 1985 में हुई थी। इस परिषद ने ओजोन परत के संरक्षण के लिए कई समझौते किए हैं। इन समझौतों के तहत, दुनिया भर के देश ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करने या समाप्त करने पर सहमत हुए हैं।

ओजोन परत के संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप, ओजोन परत में क्षरण की दर में कमी आई है। हालांकि, ओजोन परत पूरी तरह से ठीक होने में अभी भी कई वर्षों का समय लगेगा।

मैं पृथ्वी के लिए एक अनिवार्य हिस्सा हूं। मैं जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। मैं सभी लोगों से मेरा संरक्षण करने का आग्रह करता हूं।

मेरा संदेश

मैं ओजोन कवच हूं, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं आप सभी को याद दिलाना चाहता हूं कि मैं आपके लिए कितना महत्वपूर्ण हूं। मैं आपके जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। कृपया मेरा संरक्षण करें।

मैं आपसे निम्नलिखित बातें करने का अनुरोध करता हूं:

मुझे यानी ओजोन परत के बारे में जागरूकता बढ़ाएं।

मुझको नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करें या समाप्त करें।

अपने आसपास के पर्यावरण की रक्षा करें।

मैं आपके सहयोग की सराहना करता हूं। मिलकर हम मुझे यानी ओजोन परत को बचा सकते हैं और एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

12-09-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #238 – कविता – ☆ है उम्मीद अभी भी बाकी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता है उम्मीद अभी भी बाकी…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #238 ☆

☆ है उम्मीद अभी भी बाकी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

बीता वक्त साथ में

बीत गए स्वर्णिम पल

मची हुई स्मृतियों में हलचल।

*

शिथिल पंख अनंत इच्छाएँ

कैसे अब उड़ान भर पाएँ

आसपास पसरे बैठे हैं

लगा मुखौटे छल-बल के दल

मची हुई स्मृतियों में हलचल…

*

कल परसों सी रही न बातें

अनजानी सी अंतरघातें

सद्भावी नहरे हैं खाली

हुआ प्रदूषित नदियों का जल

मची हुई स्मृतियों में हलचल…

*

सूरज से थे आँख मिलाते

चंदा से जी भर बतियाते

कैद दीवारों में एकाकी

शेष शून्यमय मन की हलचल

मची हुई स्मृतियों में हलचल…

*

ऋतु बसंत अब भी है आती

होली दिवाली शुभ राखी

परंपरागत करें निर्वहन

पर न प्रेम वह रहा आजकल

मची हुई स्मृतियों में हलचल…

*

है उम्मीद अभी भी बाकी

उदित सूर्य किरणें उषा की

आलोकित होंगे अंतर्मन

होंगे फिर जीवन पथ उज्जवल

मची हुई स्मृतियों में हलचल…

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 62 ☆ रोशनी की आस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “रोशनी की आस…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 62 ☆ रोशनी की आस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(पहाड़ों पर प्रकृति की विध्वंसक लीला पर एक गीत)

पास सब कुछ

पर है लगता

कुछ नहीं है पास।

*

आस्थाओं

पर है भारी

प्रकृति का यह दंड

हो गया

है आदमी का

उजागर पाखंड

*

रो रही है

धरा पावन

हँस रहा आकाश ।

*

हाहाकारों

से पटी

छाती हिमालय की

हिल गईं

सब मान्यताएँ

पूजा शिवालय की

*

डगमगा कर

रह गया है

लोगों का विश्वास ।

*

दृष्टियाँ

बस खोजती हैं

अपनेपन की धूप

बेचती है

नियति पल-पल

विवशता के रूप

*

मौन करुणा

में छुपी है

रोशनी की आस ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 66 ☆ दोस्त इसको मरे जमाना हुआ… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “दोस्त इसको मरे जमाना हुआ“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 66 ☆

✍ दोस्त इसको मरे जमाना हुआ… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ढूढती क्या है ज़िन्दगी मुझमें

इश्क़ की आग जल रही मुझमें

 *

मैं उठाता हूँ ज़िन्दगीं का मज़ा

जब से आयी है सादगी मुझमें

 *

 डूब जाएगी दहर की नफ़रत

है रवाँ प्यार की नदी मुझमें

तेरी नजदीकियों का क्या कहना

खिल रही ख़ूब चाँदनी मुझमें

 *

इक तेरे बज़्म छोड़ देने से

रक़्स-फरमा है तीरगी मुझमें

 *

दोस्त इसको मरे जमाना हुआ

ढूढता क्यूँ है आदमी मुझमें

 *

अच्छे लोगों का फैज़ है ये अरुण

ज़िंदा है अब भी मुख़लिसी मुझमें

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 31 – सृजन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सृजन।)

☆ लघुकथा – सृजन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अभाव में जूझकर बच्चों को स्कूल भेजने वाली अशिक्षित मां को हर चीज को महत्व देना आता था। बच्चों की मशक्कत और मेहनत से पसीना बहा कर उसने अपने बेटे को आज एक सर्वश्रेष्ठ मकान पर प्रतिस्थापित किया था। उसके बेटे का उद्घाटन समारोह सारा गांव देख रहा था आज उसकी मेहनत का फल मिल रहा था जो उसने बरसों से की थी। बेटा तो कॉम्पिटेटिव एक्जाम में पास करके कलेक्टर बन गया था आज मां ने भी कंपटीशन पास किया था उसके चेहरे पर एक विजेता मुस्कान थी वर्षों की घिसावत के बाद सोना तपकर खराब होता है और मां की बरसों की घिसावत के बाद बाल सफेद और चेहरे पर झुरिया गई थी उसका स्वयं का खरा सोना जैसा मन फीका हो रहा था। समय की मार पर किसी का बस नहीं रहता अपने मन को किसी तरह संभाला और सोचा मैं अपने बेटे को एक अच्छा जींस और टीशर्ट भी तो नहीं दे पाई थी जब से मेरे पति का देवगमन हुआ था किसी तरह कपड़े सिलचर और लोगों के घरों में खाना बनाकर आज मुझे यह दिन नसीब हुआ है और गार्डन समारोह पर उसने देखा कि बड़ा सूट बूट पहने कुछ व्यक्ति आय और उनके साथ एक लड़की भी थी वह उसके बेटे अमित के साथ बहुत अच्छे से बातें कर रही थी मैं दूर बैठकर सब देख रही थी वह लड़की मेरे पास आई और अमित ने उसे पैर छूने को कहा कहा मां यह तुम्हारी होने वाली बहू है कुछ दिनों बाद इसे भी बड़ा हमारी शादी का फंक्शन होगा अब मन के चेहरे पर विजय मुस्कान भी  छोड़ रही थी मन में तरह-तरह के सवाल थे लेकिन वह क्या करती अब उसने यह सोच लिया था कि मेरे जीवन में सुख नहीं है और मुझे अब जो कार्य कर रही हूं यह जीवन भर करना पड़ेगा। समारोह समाप्त होते ही बेटे के साथ वह लड़की और उसके परिवार के लोग हमारे घर में आए और वह शादी की बात करने लग गए बोले आप परेशान नहीं हुई है आपको कुछ खर्च नहीं करना पड़ेगा दो दिन बाद ही हम इनका विवाह कर देंगे और मेरी बहू की मां ने मुझे गले से लगाया और एक छोटी सी टोकरी में सजी-धजी ढेर सारी चॉकलेट दी और एक बहुत सुंदर गुलदस्ता पकड़ा उसे देखकर मेरा मन कप्स गया और समझ नहीं आ रहा था इस बुढ़ापे में मेरे दांत भी ठीक नहीं है मिठाई होती तो एक बार खाती भी इसका मैं क्या करूं और यह टोकरी फूलों की देने का क्या मतलब है दोनों समान में यह लोग कैसे पैसे उड़ा देते हैं मुझे लगा कि अब यह सौगात जो मुझे सौंप दिए हैं इसका क्रिया कर्म अब मुझे ही करना पड़ेगा हद हो गई निर्दयता की लेकिन अपने बेटे के चेहरे की खुशी देखकर वह एक पल में खुशी हो गई और जब सब लोग चले गए तब उसने सोचा की मैं जिनके घरों में जाती थी उनके बच्चों को यह बांट देता हूं। अपने बेटे से कहीं कि मैं जा रही हूं यह ट्रॉफी उन्हें दे देता हूं। ठीक है मां आप खाने की चिंता मत करो मैं ऑनलाइन ऑर्डर कर देता हूं कहो तो और मिठाई मंगवा दूं नहीं बेटा रहने दो कुछ देर बाद जानकी देवी सभी लोगों की बधाई लेते हुए अपने घर में आती हैं और सारे फूलों को तोड़ने लगते हैं। उसमें गेंदे के और गुलाब के फूल थे सबको वह साफ करती हैं तभी उन्हें उसमें कुछ तुलसी के भी फल नजर आते हैं उन्हें भी वह तोड़कर  थाली में रख देती हैं । यह देखकर बेटा कहता है मां यह क्या कर रही हो कुछ दिन तक तो फूलों से घर को महकने देती चलो खाना आ गया है हम तुम कहते हैं बेटा तुम खा लो आज के समझ में तुम्हारी उन्नति देखकर मेरा पेट भर गया मुझे सृजन करने की आदत है मैं हमेशा घर फूलों से महके इसीलिए इसे अपने बगीचे में लगाऊंगी। आप मुझे नींद आ रही है तू मुझे आप मेरे हाल पर छोड़ दें।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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