श्रीमद् भगवत गीता
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
अध्याय १७
(श्रद्धा का और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय)
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ।।3।।
सबकी श्रद्धा होती है निज स्वभाव अनुसार
जिसकी जैसी भावना, वैसा ही व्यवहार ।।3।।
भावार्थ : हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है॥3॥
The faith of each is in accordance with his nature, O Arjuna! The man consists of his faith; as a man’s faith is, so is he.।।3।।
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈