श्रीमद् भगवत गीता
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
अध्याय १७
(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ।।18।।
जो तप निज सत्कार हित, सहित दंभ अभिमान
वह अस्थिर चंचल तप है राजस यह तू जान ।।18।।
भावार्थ : जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित (‘अनिश्चित फलवाला’ उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो।) एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ।।18।।
The austerity which is practised with the object of gaining good reception, honour and worship and with hypocrisy, is here said to be Rajasic, unstable and transitory. ।।18।।
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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