श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
द्वितीय अध्याय
साँख्य योग
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(सांख्ययोग का विषय)
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तर प्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।13।।
बचपन,यौवन,वृद्धपन ज्यों शरीर का धर्म
वैसे ही इस आत्मा का है हर युग का कर्म।।13।।
भावार्थ : जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ।।13।।
Just as in this body the embodied (soul) passes into childhood, youth and old age, so also does he pass into another body; the firm man does not grieve thereat. ।।13।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
आदरणीय चित्र भूषण श्रीवास्तव जी, श्री मदभगवद्गीता का पद्यानुवाद देखा । अति सुन्दर प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकार करें । हालांकि भगवान की असीम कृपा से मैने भगवद्गीता का गीतों मे रूपांतरण किया है । आपके अध्याय 2 के 13श्लोक का गीतों में रूपांतरण इस तरह है,,,,,,
” देहधारियो का यह तन । पाता शैशव तरूण चौथपन ।।
पाता ऐसे ही अन्य शरीर । ना मोहित होता उसमें मानव धीर ।।