श्रीमद् भगवत गीता
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
एकादश अध्याय
(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ।। 18।।
एकमात्र ज्ञातव्य प्रभु अजर , अनूप , अपार
तुम ही नाथ ! इस विश्व के एकमात्र आधार
तुम ही शाश्वत धर्म के , रक्षक प्राणाधार
मेरा मत, चलता जगत ,प्रभु की मति अनुसार ।। 18।।
भावार्थ : आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात परब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। ऐसा मेरा मत है॥18॥
Thou art the Imperishable, the Supreme Being, worthy of being known; Thou art the great treasure-house of this universe; Thou art the imperishable protector of the eternal Dharma; Thou art the ancient Person, I deem.
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ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर