ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–15   

मैं ईश्वर का अत्यंत आभारी हूँ जिन्होने मुझे e-abhivyakti के माध्यम कई वरिष्ठ, समवयस्क एवं नवोदित साहित्यकार मित्रों से जोड़ दिया है। कई मित्रों से व्यक्तिगत तौर से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अधिकतर  मित्रों से फोन पर बात हुई और कई मित्रों से ईमेल पर।

जीवन भी अजीब पहेली है, अजीब खेल खेलता है। वह हमें जीवन में कई मित्रों से मिलाता है। कई मित्र जिनके नाम से हम परिचित होते हैं किन्तु कभी मिल नहीं पाते। कई मित्र जीवन के किसी भी मोड पर मिल जाते हैं। कई तो अंजाने ही मिल जाते हैं जिसकी हमने कभी कल्पना ही नहीं की थी।  कई मित्र तो हमारे जीवन से इतने जुड़ जाते हैं कि हम यह जान ही नहीं पाते कि वे कब मित्र से परिवार के सदस्य बन गए। कई मित्र तो किसी गलतफहमी का शिकार होकर रूठ भी जाते हैं। कई बहकावे में भी आ जाते हैं। फिर शक का तो कोई इलाज ही नहीं होता।कुछ मित्र चालाकी से अपना काम निकाल कर अपनी राह चल देते हैं। कई मित्र तो ऐसे भी होते हैं जिनसे हम जीवन में कभी भी नहीं मिले किन्तु, वे मित्र धर्म निभाना नहीं भूलते। कई मित्रों की संवेदना देखते ही बनती है। फिर संवेदनशील मित्र ही मित्र की भावना को परख लेता है। अधिकतर साहित्यकार मित्र संवेदनशील हैं अन्यथा वे अपनी कविता, कहानी, आलेखों में अनदेखे स्वप्नों को साहित्यिक स्वरूप नहीं दे पाते।

आज कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की मराठी कविता *उन्हाळी सुट्टी* ने तो अनायास ही बचपन के कई मित्रों की याद दिला दी जिनके साथ गर्मियों छुट्टियों बिताया करते थे।

उनकी निम्न पंक्तियाँ अनायास ही हमारा गुजरा बचपन याद दिला देता है ।

आला उन्हाळा, घरी बसा रे , दटावती सारे
बैठे खेळ ते बुद्धीबळाचे ,देऊ गेमला सुट्टी.
अशी ऊन्हाळी सुट्टी आमच्या होती बालपणात
सोडून गेले  शाळू सोबती, आता नाही बट्टी. . . !

इस संदर्भ में मुझे अपनी कविता की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

 

इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी

खो गए कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा ना मिले मुझको। 

आज बस इतना ही

हेमन्त बावनकर

31 मार्च 2019

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