सुश्री नीता कुलकर्णी
☆ मन की अदालत… ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆
आईने के सामने खडी थी मैं
इतने में आवाज आयी
आजकल कैसा चल रहा है?
वैसा कुछ खास नहीं
नई किताब लायी नहीं
पूरानी अलमारी से निकाली नहीं
इतना समय नहीं मिलता
मोबाईल….
हाँ हाँ ….रहेने दो
मुझे मालुम है
नया कुछ कंठस्थ किया है?
जी नहीं
नीचे देखना बंद करो
ऑंखें मिलाकर बातें करो
लग रहा था जैसे कटघरे में खडी हूँ
तुम्हारे सामने क्या आयी
तुम तो बस..
मेरी गलतियाँ निकालने लगे
ऑंखे तो अपने आप भर गयी..
अरे पगली समझ भी जाओ
घर में और कोई बडा है क्या
एक मैं जो हूँ..
तुमसे सच्ची बात करता हूँ
वरना तुम आगे बढना भूल जाओगी
चलो अब मुस्कुराओ
आज के लिए इतना काफी है
मै गुस्से में थी..
लेकिन सोचने लगी..
अरे ये सच भी तो है..
बाद में समझ गयी
अरे हाँ….
आईने जैसा सच्चा मित्र नहीं है..
उसका फैसला कभी गलत नहीं होगा
आजकल…
एक अजीब सी बात हो गई है
मेरे उपर ही मेरा मुकदमा चल रहा है
आरोपी भी मैं और जज भी मैं
लेकिन ..
अब मजा आने लगा है
तुम भी कर लो उसी से दोस्ती
आजकल मेरी हो गयी है
मैं खुश हूँ
आप भी रहोगे …
इतने में आवाज आयी
अगली तारीख में फिर सुनवाई होगी
जी हाँ..
हाजिर हो जाऊंगी…
© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी
मो 9763631255
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈