कविराज विजय यशवंत सातपुते

(मेरे विशेष अनुरोध पर  (डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)  द्वारा रचित मेरी प्रिय कविता  “पहले क्या खोया जाए ” का मराठी भावानुवाद  “काय राह्यलय हरवण्यासारखं ?” कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  द्वारा किया गया। 

यह कविता इतनी मार्मिक है कि मैं कविराज विजय सातपुते जी के शब्दों में – “ये कविता इतनी भावपूर्ण थी कि  मै खुद को रोक न सका. रोते रोते ये अनुवाद संपन्न हुआ. मूल रचनाकार जी को शत शत नमन.  आज जिन चुनिन्दा लोगों को ये कविता और अनुवाद दिखाया सभी ने एक ही प्रतिक्रिया भेजी . . . . . निःशब्द.”

और मैं स्वयम भी निःशब्द हूँ। )

हिन्दी की मूल कविता एवं मराठी भावानुवाद दोनों ही स्वरूप आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।

इस अतुलनीय साहित्यिक कार्य के लिए श्री विजय जी का विशेष आभार और मेरा मानना है कि ऐसे प्रयोग होते रहने चाहिए। 

 

काय राह्यलय हरवण्यासारखं ? 

 

सर्वात  अगोदर

काय  असत हरवायच ?

आता  काय राह्यलय

हरवण्यासारख ?

मऊ,रेशमी  मुलायम,

पश्मीना शालीच्या नादात

आधीच हरवून बसलोय

माझा मौल्यवान बाप.

आता हरवायला

 

आई तेवढी  बाकी राह्यलीय.

काही केल्या हरवतच नाही.

आपल्याच नादात गुणगुणत रहाते

”अशी हरवल्यावर थोडीच कळते

आपल्या माणसांची किंमत.”

.”तुझा बाप समजुतदार ,

वेळीच हरवला  आणि

दाखवून दिली  आपली किंमत.

येईल. . . माझीही वेळ येईल.

कळेल तुला माझी ही किंमत”

मला एक कळत नाही

कधीतरी वेळ येणारच

कशाला लावतेय  इतका वेळ

द्यायची दाखवून  आपली किंमत

विनाकारण करावी लागते

निरर्थक धडपड

आईला विसरण्याची

करतो प्रयत्न ती

एखाद्या तीर्थक्षेत्री

हरवून जाण्यासाठी

किंवा एखाद्या जत्रेत

दिसेनाशी होण्यासाठी.

आईची किंमत जाणून घेण्यासाठी

आणि  . .

हरवतो माझ्याच विचारात.

माणूस  असताना

त्याचे मोल जाणले नाही

आता हरवल्यावर तरी

त्याचे मोल जाणून घेऊ.

हाच  एक यशस्वी  उपाय

जो तो करतो आहे.

पण  अशा वागण्यात

हरवत चाललीय नाती

हरवताहेत माणस

आजी आजोबा,  काका काकू

मामा, मामी  माझा बाप

आता तर कोणी

देवदूत देखिल नाही

किंवा मार्क्स एखादा

माझ्या शिलकित . .

या गरीबा जवळ

एकुलती एक

आई फक्त  उरलेय

किंवा एखादी फाटकी गोधडी.

या दोनच वस्तू

हरवायच्या बाकी राह्यल्यात.

या दोघात अधिक मौल्यवान कोण

जो मला मायेची  ऊब देईल

आता मी देखिल

इतका लहान राहिलो नाही

की आईच्या कुशीत शिरून

ती ऊब मिळवू शकेन.

अशा परिस्थितीत

कुणीतरी सांगा

काय राह्यलय हरवण्यासारख

फाटकी गोधडी की

जीर्ण झालेली माझी माय. . . . !

 

(भावानुवाद –  विजय सातपुते)

विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798

मूल कविता 

पहले क्या खोया जाए  
पशमीना की शाल-से
पिता जी भी थे तो बेशकीमती
पर खो दिए मुफ्त में
माँ है
अभी भी खोने के लिए
कितना भी कुछ कर लो
खोती  ही नहीं
कुछ समझती भी नहीं
ऊपर से गाती रहती है
‘खोने से ही पता चलती है कीमत
बेटे!
पिता जी तो समझदार थे
समय पर
खोकर  बता गए कीमत
खो जाऊँगी मैं भी
किसी समय, एक दिन
तब पता चलेगी कीमत मेरी भी
पर पता नहीं
यह क्यों  नहीं चाहती
बतानी कीमत अपनी भी
समय पर
देर क्यों कर रही है
निरर्थक ही
हम  भरसक कोशिश में रहते हैं
खो जाए किसी मंदिर की भीड़ में
छोड़ भी देते हैं
यहाँ-वहाँ मेले-ठेले में
कभी तेज़-तेज़ चलकर
कभी बेज़रूरत ठिठक कर
और
जानना चाहते हैं कीमत
माँ  की भी
सोचता हूँ
होने  की कीमत जान न पाया  तो
खोने की ही जान-समझ लूँ
कुछ तो कर लूँ  समय पर
कीमत समझने का ।
यही कामयाब तरीका चल रहा है
इन दिनों
इसी तरीके से  तो एक-एक कर
खोते रहे  हैं रिश्ते दर रिश्ते
दादा-दादी,नाना-नानी
ताऊ,ताई,मामा-मामी
और पिताजी भी
अब तो
‘एंजेल’ या ‘मार्क्स’ भी तो नहीं  बचे हैं
इस गरीब के पास
या तो एक अदद माँ बची है
या फिर  एक अदद फटा कंबल
कीमत दोनों  की जानना ज़रूरी है
अब इतने छोटे  भी नहीं रहे जो,
माँ के सीने से चिपक कर
बिताई जा सकें  सर्द रातें
फिर कोई तो बताए
आखिर पहले क्या खोया जाए ?
अधफटा कंबल या
अस्थि शेष माँ?
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 
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Sunita Ghule

भावपूर्णअनुवाद

Amol Meghe

Excellent…… speechless……

Amol Meghe

Awesome…….Excellent…… speechless……

Swapna

छान ..

Umesh joshi

Chhn