स्वतन्त्रता दिवस विशेष 
डॉ कुंवर प्रेमिल

 

(आज प्रस्तुत है डॉ कुंवर प्रेमिल जी  द्वारा स्वतन्त्रता दिवस  के अवसर पर  रचित  सामाजिक चेतना का संदेश देता हुआ एक नाटक  “स्वतन्त्रता दिवस “। ) 

 

☆ नाटक – स्वतन्त्रता दिवस

 

एक मंच पर कुछेक पुरुष-महिलाएं एकत्रित हैं। वे सब विचारमग्न प्रतीत होते हैं। मंच के बाहर पंडाल में भी कुछेक पुरुष-महिलाएं-बच्चे बड़ी उत्सुकता से मंच की ओर देख रहे हैं।

तभी एक विदूषक जैसा पात्र हाथ में माइक लेकर मंच पर पहुंचता है।

विदूषक – भाइयों-बहिनों आज स्वतन्त्रता दिवस है। आज के दिन हमारा देश स्वतंत्र हुआ था। तभी न हम सिर उठाकर जीते हैं। अपना अन्न-पानी खाते-पीते हैं।

‘हम स्वतंत्र हैं’ – कहकर-सुनकर कितना अच्छा लगता है। बोलिए, लगता है कि नहीं। ‘

पंडाल से –  आवाजें आती हैं अच्छा लगता है जी बहुत अच्छा लगता है, बोलो स्वतन्त्रता की  जय, स्वतन्त्रता दिवस की जय।

(सभी स्त्री-पुरुष स्वतन्त्रता की जय बोलते हैं।)

मंच से – तभी एक महिला ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगती है- ‘अरे काहे की स्वतन्त्रता, और कैसा स्वतन्त्रता दिवस। हम महिलाएं कुढ़-कुढ़कर जिंदगी व्यतीत करती हैं। शक का साया उन पर पूरी जिंदगी छाया रहता है।  उन्हें अविश्वास में जीना पड़ता है। न पति न सास-ससुर कोई उनकी नहीं सुनता है। जिनकी अभिव्यक्ति समाज-परिवार के साथ गिरवी रखी हो, उनकी कैसी स्वतन्त्रता। कपड़े-लत्ते, गहने सब दूसरों की पसंद के, उनका अपना कुछ नहीं है। बच्चे भी वे दूसरों की अनुमति के बिना पैदा नहीं कर सकतीं।  इक्कीसवीं सदी में भी उनकी हालत हंसी-मज़ाक से कम नहीं है।

पंडाल से – तभी पंडाल से एक आदमी बिफरकर बोला – स्त्रियों का हम पुरुषों पर मिथ्या आरोप है। हम पूरी कोशिश करते हैं उन्हें प्रसन्न रखने की फिर भी वे पतंग सी खिंची रहती हैं। हम उत्तर-दक्षिण कहेंगे तो वे पूरब-पश्चिम कहेंगी। माँ-बाप उलटे हमें ‘औरत के गुलाम’ कहकर पुकारते हैं। मज़ाक उड़ाते हैं।  छींटाकशी करते हैं। हमें तो इधर कुआं उधर खाई है। साथ में जग हँसाई है।

मंच से – एक बूढ़ा एक बूढ़ी लगभग रोते हुए बोले – ‘हमें न तो बहू पसंद करती है न हमारा सपूत ही। हमारी जमीन-जायदाद पर अपना हक बताते हैं पर सेवा से जी चुराते हैं।

बहुएँ वक्र चाल चलती हैं। पुत्र बहुओं के मोह जाल में फँसकर उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। अवसान होती जिंदगी का आखिर रखवाला कौन है? मँझधार में हमारी जीवन-नैया है। बेहोशी में नाव खिवैया है। उनके पास हमारे लिए समय नहीं है। ये हमें तिल-तिल जलाते हैं। हमें वृद्धाश्रमों में छोड़ आते हैं।

पंडाल से – तभी कुछ लड़के-लड़कियां पंडाल में उठकर खड़े होकर शुरू हो जाते हैं। हमारे दादा-दादी की मुसीबतें हमसे देखी नहीं जाती हैं। पूछा जाए तो उन्हीने हमें पाला है। माताएँ हमें दादी के पास सुलाकर खुद निर्विघ्न सोती हैं। बेचारी दादी रात भर हमारे गीले कपड़े बदलती हैं। खुद गीले में सॉकर हमें सूखे में सुलाती हैं।

दादाजी लोग बिस्कुट – टॉफी – खिलौने, बाल मेगज़ीन ला लाकर देते हैं।  बिजली जाने पर दादियाँ रात भर अखबार से मच्छर उड़ाकर हमें चैन की नींद सुलाती हैं।  आखिर क्यों है ऐसा?  क्या कोई हमें बताएगा?

(मंच एवं पंडाल दोनों में अफरा-तफरी मच जाती है।  छोटा सा नाटक जी का जंजाल बन जाता है। किसी को क्या पता था कि इतनी बड़ी उलझन आकार खड़ी हो जाएगी।)

विदूषक बोला – हम सब आखिर अंधे कुएं के मेंढक ही साबित हुए। ऐसे में तो परिवार उजाड़ जाएंगे हम सब एक दूसरे पर आरोप ही लगाते रह जाएँगे। परिवार/समाज में मोहब्बत के बीज कौन डालेगा?  समाज में जो घाट रहा है – अक्षम्य है।  ऐसे में मेलजोल की भरपाई कब होगी। कब पूरा परिवार होली-दशहरा-रक्षाबंधन-स्वतन्त्रता दिवस हंसी-खुशी मनाएगा।

कब बच्चे मौज में नाचेंगे। बूढ़ा-बूढ़ी कब आँगन में रांगोली डालेंगे। कब दादा सेंतकलाज बनाकर बच्चों को उपहार बांटेंगे। कब दादा-दादी के दुखते हाथ-पैर दबाये जाएंगे। बच्चों को कब रटंत विद्या, घोंतांत पानी से निजात मिलेगी। कब प्यार-स्नेह-आत्मीयता से छब्बीस जनवरी मनेगी।

माइक बजाकर राष्ट्रगीत बजाकर मोतीचूर के लड्डू बांटने से कुछ नहीं मानेगा।  केवल स्वतन्त्रता रटने भर से स्वतन्त्रता का एहसास नहीं होगा।  जब तक आपस में प्यार-मोहब्बत,  आदर-सेवभाव, विनम्रता विकसित नहीं होगी, असली स्वतन्त्रता के दर्शन नहीं होंगे। कभी नहीं होंगे। बोलिए – स्वतन्त्रता दिवस की जय, भाई-चारे की जय, माता-पिता की जय-गुरुओं कि जय।

भाइयों, आजकल न तो पहले जैसे गुरु हैं और न पहले जैसे विद्यार्थी। स्वतन्त्रता दिवस की जय बोलने से पहले यह सब करना होगा। वरना वही ढाक के तीन पात हाथ में लगेंगे। जयहिन्द!

(इतना कहकर विदूषक नाचने लगता है। उसे नाचते देख, मंच और पंडाल में सभी नाचने लगते हैं।)

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल 
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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