मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

 

 

 

 

विकास की दौड़ में खुद को खोते गाँव

(सुश्री मालती मिश्रा जी का यह आलेख आपको जीवन  के उन  क्षणों का स्मरण करवाता है जो हम विकास की दौड़ में अपने अतीत के साथ खोते जा  रहे हैं। यह मेरे लिए अत्यन्त कठिन था कि इस आलेख को जीवन यात्रा मानूँ या संस्मरण। अब आप स्वयं ही तय करें कि यह आलेख जीवन यात्रा है अथवा संस्मरण।)

वही गाँव है वही सब अपने हैं पर मन फिर भी बेचैन है। आजकल जिधर देखो बस विकास की चर्चा होती है। हर कोई विकास चाहता है, पर इस विकास की चाह में क्या कुछ पीछे छूट गया, ये शायद ही किसी को नजर आता हो। या शायद कोई पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता। पर जो इस विकास की दौड़ में भी दिल में अपनों को और अपनत्व को बसाए बैठे हैं उनकी नजरें, उनका दिल तो वही अपनापन ढूँढ़ता है। विकास तो मस्तिष्क को संतुष्टि हेतु और शारीरिक और सामाजिक उपभोग के लिए शरीर को चाहिए, हृदय को तो भावनाओं की संतुष्टि चाहिए जो प्रेम और सद्भावना से जुड़ी होती है।

मैं कई वर्षों बाद अपने पैतृक गाँव आई थी मन आह्लादित था…कितने साल हो गए गाँव नहीं गई, दिल्ली जैसे शहर की व्यस्तता में ऐसे खो गई कि गाँव की ओर रुख ही न कर पाई पर दूर रहकर भी मेरी आत्मा सदा गाँव से जुड़ी रही। जब भी कोई परेशानी होती तो गाँव की याद आ जाती कि किस तरह गाँव में सभी एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होते, गाँव में किसी बेटी की शादी होती थी तो गाँव के हर घर में गेहूँ और धान भिजवा दिया जाता और सभी अपने-अपने घर पर गेहूँ पीसकर और धान कूटकर आटा, चावल तैयार करके शादी वाले घर में दे जाया करते। शादी के दो दिन पहले से सभी घरों से चारपाई और गद्दे आदि मेहमान और बारातियों के लिए ले जाया करते। लोग अपने घरों में चाहे खुद जमीन पर सोते पर शादी वाले घर में कुछ भी देने को मना नहीं करते और जब तक मेहमान विदा नहीं हो जाते तब तक सहयोग करते। उस समय सुविधाएँ कम थीं पर आपसी प्रेम और सद्भाव था जिसके चलते किसी एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी और एक की इज़्जत पूरे गाँव की इज़्ज़त होती थी।

बाबूजी शहर में नौकरी करते थे लिहाजा हम भी उनके साथ ही रहते, बाबूजी तो हर तीसरे-चौथे महीने आवश्यकतानुसार गाँव चले जाया करते थे पर हम बच्चों को तो मई-जून का इंतजार करना पड़ता था, जब गर्मियों की छुट्टियाँ पड़तीं तब हम सब भाई-बहन पूरे डेढ़-दो महीने के लिए जाया करते।

उस समय स्टेशन से गाँव तक के लिए किसी वाहन की सुविधा नहीं थी तो हमें तीन-चार कोस की दूरी पैदल चलकर तय करनी होती थी। हम छोटे थे और नगरवासी भी बन चुके थे तो नाजुकता आना तो स्वाभाविक है, फिर भी हम आपस में होड़ लगाते एक-दूसरे संग खेलते-कूदते, थककर रुकते फिर बाबूजी का हौसलाअफजाई पाकर आगे बढ़ते। रास्ते में दूर से नजर आते पेड़ों के झुरमुटों को देकर आँखों में उम्मीद की चमक लिए बाबूजी से पूछते कि “और कितनी दूर है?” और बाबूजी बहलाने वाले भाव से कहते “बस थोड़ी दूर” और हम फिर नए जोश नई स्फूर्ति से आगे बढ़ चलते। गाँव पहुँचते-पहुँचते सूर्य देव अपना प्रचण्ड रूप दिखाना शुरू कर चुके होते। हम गाँव के बाहर ही होते कि पता नहीं किस खबरिये से या गाँव की मान्यतानुसार आगंतुक की खबर देने वाले कौवे से पता चल जाता और दादी हाथ में जल का लोटा लिए पहले से ही खड़ी मिलतीं। हमारी नजर उतारकर ही हमें घर तो छोड़ो गाँव में प्रवेश मिलता। खेलने के लिए पूरा गाँव ही हमारा प्ले-ग्राउंड होता, किसी के भी घर में छिप जाते किसी के भी पीछे दुबक जाते सभी का भरपूर सहयोग मिलता। रोज शाम को घर के बाहर बाबूजी के मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहता। अपनी चारपाई पर लेटे हुए उनकी बातें सुनते-सुनते सो जाने का जो आनंद मिलता कि आज वो किसी टेलीविजन किसी म्यूजिक सिस्टम से नहीं मिल सकता।

डेढ़-दो महीने कब निकल जाते पता ही नहीं चलता और जाते समय सिर्फ आस-पड़ोस के ही नहीं बल्कि गाँव के अन्य घरों के भी पुरुष-महिलाएँ हमें गाँव से बाहर तक विदा करने आते, दादी की हमउम्र सभी महिलाओं की आँखें बरस रही होतीं उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता कि किसका बेटा या पोता-पोती बिछड़ रहे हैं।

धीरे-धीरे गाँव का भी विकास होने लगा, सुविधाएँ बढ़ने लगीं और सोच के दायरे घटने लगे। जो सबका या हमारा हुआ करता था, वो अब तेरा और मेरा होने लगा था। पहले साधन कम थे पर मदद के लिए हाथ बहुत थे अब साधन बढ़े हैं पर मदद करने वाले हाथ धीरे-धीरे लुप्त होने लगे हैं।

अब तो गाँव का नजारा ही बदल चुका है, सुविधाएँ बढ़ी हैं ये तो पता था पर इतनी कि जहाँ पहले रिक्शा भी नहीं मिल पाता था वहाँ अब टैम्पो उपलब्ध था वो भी घर तक। गाँव के बदले हुए रूप के कारण मैं पहचान न सकी , जहाँ पहले छोटा सा बगीचा हुआ करता था, वहाँ अब कई पक्के घर हैं। लोग कच्ची झोपड़ियों से पक्के मकानों में आ गए हैं, परंतु जेठ की दुपहरी की वो प्राकृतिक बयार खो गई जिसके लिए लोग दोपहर से शाम तक यहाँ पेड़ों की छाँह में बैठा करते थे।

कुछ कमी महसूस हो रही थी शायद वहाँ की आबो-हवा में घुले हुए प्रेम की। लोग आँखों में अचरज या शायद अन्जानेपन का भाव लिए निहार रहे थे, मुझे लगा कि अभी कोई दादी-काकी उठकर मेरे पास आएँगीं और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए प्रेम भरी झिड़की देते हुए कहेंगी-“मिल गई फुरसत बिटिया?” पर ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि मैं उस समय हतप्रभ रह गई जब मैंने गाँव की अधेड़ महिला से रास्ता पूछा, मुझे उम्मीद थी कि वो मेरा हाल-चाल पूछेंगी और बातें करते हुए घर तक मेरे साथ जाएँगीं पर उन्होंने राह तो बता दी और अपने काम में व्यस्त हो गईं। एक पल में ही ऐसा महसूस हुआ कि गाँवों में शहरों से अधिक व्यस्तता है।

अपने ही घर के बाहर खड़ी मैं अपना वो घर खोज रही थी जो कुछ वर्ष पहले छोड़ गई थी। मँझले चाचा के घर की जगह पर सिर्फ नीव थी जिसमें बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ खड़ी अपनी सत्ता दर्शा रही थीं, छोटे बाबा जी का घर वहाँ से नदारद था और उन्होंने नया घर हमारे घर की दीवार से लगाकर बनवा लिया था। छोटे चाचा जी का वो पुराना घर तो था पर वह अब सिर्फ ईंधन और भूसा रखने के काम आता सिर्फ हमारा अपना घर वही पुराने रूप में खड़ा था और सब उसी घर में रहते हैं पर वो भी इसलिए क्योंकि बाबूजी ने भी गाँव के बाहर एक बड़ा घर बनवा लिया है पर वो अभी तक अपनी पुरानी ज़मीन से जुड़े हुए हैं, इसीलिए मँझले चाचा की तरह नए घर में रहने के लिए पुराने घर को तोड़ न सके।

विकास का यह चेहरा मुझे बड़ा ही कुरूप लगा, एक बड़े कुनबे के होने के बाद भी सुबह सब अकेले ही घर से खेतों के लिए निकलते हैं, इतने लोगों के होते हुए भी शाम को घर के बाहर वीरानी सी छाई रहती है। पड़ोसी तो दूर अपने ही परिवार के सदस्यों को एक साथ जुटने के लिए घंटों लग जाते हैं। विकास के इस दौड़ में गाँवों ने आपसी प्रेम, सद्भाव, सहयोग, एक-दूसरे के लिए अपनापन आदि अनमोल भावनाओं की कीमत पर कुछ सहूलियतें  खरीदी हैं। आज लोगों के पास पैसे और सहूलियतें तो हैं पर वो सुख नहीं है, जो एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर सहयोग से हर कार्य को करने में था। विकास ने गाँवों को नगरों से तो जोड़ दिया पर आपसी प्रेम की डोर को तोड़ दिया। विकास का ऊपरी आवरण जितना खूबसूरत लगता है भीतर से उतना ही नीरस है।

© मालती मिश्रा ‘मयंती’

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