नीलम सक्सेना चंद्रा
आँखें
मंज़र बदल जाते हैं
और उनके बदलते ही,
आँखों के रंग-रूप भी
बदलने लगते हैं…
ख़्वाबों को बुनती हुई आँखें
सबसे खूबसूरत होती हैं,
न जाने क्यों
बहुत बोलती हैं वो,
और बात-बात पर
यूँ आसमान को देखती हैं,
जैसे वही उनकी मंजिल हो…
अक्सर बच्चों की आँखें
ऐसी ही होती हैं, है ना?
यौवन में भी
इन आँखों का मचलना
बंद नहीं होता;
बस, अब तक इन्हें
हार का थोड़ा-थोड़ा एहसास होने लगता है,
और कहीं न कहीं
इनकी उड़ान कुछ कम होने लगती है…
पचास के पास पहुँचने तक,
इन आँखों ने
बहुत दुनिया देख ली होती है,
और इनका मचलनापन
बिलकुल ख़त्म हो जाता है
और होने लगती हैं वो
स्थिर सी!
और फिर
कुछ साल बाद
यही आँखें
एकदम पत्थर सी होने लगती हैं,
जैसे यह आँखें नहीं,
एक कब्रिस्तान हों
और सारी ख्वाहिशों की लाश
उनमें गाड़ दी गयी हो…
सुनो,
तुम अपनी आँखों को
कभी कब्रिस्तान मत बनने देना,
तुम अपने जिगर में
जला लेना एक अलाव
जो तुम्हारे ख़्वाबों को
धीरे-धीरे सुलगाता रहेगा
और तुम्हारी आँखें भी हरदम रहेंगी
रौशनी से भरपूर!
© नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)