श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव 

अल्प परिचय 

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।

☆ आलेख ☆ ||छलावा|| ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

बेवकूफ़ बनाना नहीं पड़ता बल्कि स्वयं बन चुकी होती हैं “घर की प्रौढ़ स्त्री“।

जीवन के बीचों-बीच फंसी इन स्त्रियॉं का ना ही मायका होता है और ना ही ससुराल

डाक्टर के पास से आते ही यह पर्ची निकाल टेबल्स पे रख दर्द निवारण दवाई नहीं बल्कि बेलन थाम लेती हैं।

कोई फर्क नहीं पड़ता की डाक्टर ने क्या कहा?  

उनकी हड्डी क्यो घिस रही है? हड्डी ही घिसी है कोई टूट फूट थोडे़ ही हुई है।

बच्चे अब बडे़ हो चुके हैं उन्हे मां की आवश्यकता नहीं बल्कि उनके पास जीवन की तमाम सुविधा हैं।

पति के पास वक़्त की होती है बहुत कमी क्योंकि घर की महिलाओं के पास ही तो है वक़्त ही वक्त।   

एक छलावे से खुद को छल के ना जाने क्यों वह प्रौढ़ स्त्री अपने ही घर में घुटन महसुस करती है।

नहीं पड़ता किसी को फर्क वह मरती है या जीती है हर रोज़।

उसके कंधे पे लादी गयी है जिम्मेवारी अनेकानेक।  

सांस लेने की हिम्मत कम पड़ जाये इस लिए वह खुले में सांस लेना छोड़ चुकी होती है।

उन  तमाम  उलझकर में फंसी कभी कहा नहीं कि – मुझे भी जीना है जीवन कुछ रोज़।

बच्चों के कमरे हो चुके है अलग और पतिदेव माँ की सेवा के बाद सो जाते हैं थककर।  

कमरे के अंधकार में रातभर कहाँ सोती हैं वह दो प्रौढ़ आंखे।

अपनी गृहस्थी बांधकर रखने के लिए रखना होगा सासु माँ को भी खुश।

निर्णय लेने की क्षमता नहीं  है उनके पास, क्योंकि वह प्रौढ़ है और प्रौढ़ की गृहस्थी होती ही कहाँ है?

उन प्रौढ़ स्त्रीयों के लिए कुछ ख़ास नहीं होता है करने के लिए, बस कोल्हू के बैल बनकर अपने घर में घुमना पड़ता है, दिन और रात।

मृत जज्बातों के साथ जीवित रहती है, वह घर की प्रौढ़ स्त्री।

चेहरे पे लकीरें समेटे हुए चिड़चिड़ी महिला का खिताब पा चुकी होती है।

उनके पास कहने सुनने के लिए कुछ खास नही बचा होता बल्कि वह रसोई घर में बावर्ची बनके अपनीं बची खुची हड्डी को भी गलाती नजर आ रही होती है!!

© श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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