श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी

अल्प परिचय 

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।

☆ आलेख ☆ श्रापित गर्भ… ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

अक्सर घरों में किसी के निधन के बाद उसकीं पुण्यतिथि मनाई जाती हैं और सार्मथ्य अनुसार दान-पुण्य किया जाता हैं ताकि आत्मा को शांति मिले।

मगर हर तबके में एक मृत्यु के बाद ना तो पुण्यतिथि मनाई जाती हैं न ही आँसू बहाये जाते हैं और ना ही दान पुण्य होता है क्योंकि मृतका माँ के कोख में ही दम तोड़ देती है।

बात कड़वी हैं लेकिन 100% सही है।

जी हाँ मैं बात कर रहीं हूँ माँ के उस गर्भ की जो पुत्र मोह के लिए पुत्री के हत्या से रंग जाते हैं।

कहते है कंस अपनी बहन के बच्चों की हत्या जन्म के बाद कारागार में करता रहा क्योंकि उसे डर था अपने प्राणों का।

मगर माँ के गर्भ गृह में मारने वाला कंस कौन है?

वह भी अपने अबोध अंश का, उसे किसी का डर नहीं।

बस पुत्र रत्न प्राप्ति की अभिलाषा और यही से शुरू होने लगता है, पाप-पुण्य का वह खेल जो मानव रुपी पिता से वह अपराध करवाने लगता है जो ना चाह कर भी माता पिता कर बैठते हैं।  

खैर मेरा काम था लिखना।

क्योंकि गीता -कुरान बाकी धार्मिक किताबों में केवल लिखा गया है बाकी तो सभी समझदार हैं ही।

 

अपने आंगन के नन्ही दूब को फैलने दें।

कोई फर्क नहीं पड़ता समाज को कि आपके घर बेटा है या बेटी!

उन्हें अपने हाथों से कुचलने की चेष्टा ना करें🙏

सृष्टि हैं तभी शिव हैं वरना पत्थरों पे फूल खिलते नहीं।

 

अजन्मा- भ्रूण हत्या

व्यक्तिगत सोच है, मजबूरी नहीं

फिर खुद के हाथों

अपनी उस कली को कैसे कुचल सकते हैं?

जिसके अंदर हमारा रक्त यहाँ तक कि धडकन भी साथ-साथ धड़क रही हो और वह नन्ही सी जान हाथों में आने के लिए पल- पल प्रतीक्षा कर रही हो।

माँ तो मिट्टी से बनी हुई दुर्गा की वह प्रतिमा होती है जिसका स्वभाव ही मातृत्व फिर अपने कोख की रक्षा करने में असर्मथ कैसे हो सकती है? क्योंकि पुरुष के साथ साथ वंश की चाहत प्रंचड हावी स्त्री मन में भी होती है।

और अंधकार में छोटी सी पवित्र लौ अपनी अस्तित्व खो देती है।

अगर स्त्री स्वयं के भ्रूण हत्या को होने से नहीं बचा सकती तो उसे फिर माँ कहलाने का हक कैसा?

माँ तो जननी होती है। उसके लिए पुत्र और पुत्री का क्या भेद?

© श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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