श्री सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है।
ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है – शब्बो-राजा। )
☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #6 – शब्बो-राजा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
ज्येष्ठ-आषाढ़ यानि मई-जून के महीनों में पलकमती नदी के तन का पानी सूख जाता है। किनारे फटने लगते हैं। शहर के मवेशियों के झुंड सुबह-सुबह खुरों से धूल उड़ाते हुए जंगल में घास चरने जाते और शाम को वापस अपने ठौर पर लौटते हैं। बस्ती के लोग भी गरमी से बेहाल अपने घरों में क़ैद हो जाते थे। बारिश की आस में सोहागपुरी सुराहियों के ठंडे पानी से प्यास बुझाते थे।
सावन-भादों यानी जुलाई-अगस्त के महीनों में मानसूनी बादल पहाड़ों के शिखरों से नर्मदा की तलहटी तक पूरी ज़मीन को तर-बतर करके वातावरण को एक रूमानी ख़ुशबू से सराबोर कर देते हैं। पलकमती नदी किनारों को तोड़ती हुई बहने लगती थी। पहाड़ों से तेज़ बहाव के उन्माद में बहकर आतीं बड़ी छोटी इमारती और जलाऊ लकड़ी पकड़ने के लिए तारबाहर के कुछ दुस्साहसी युवक नदी में कूदकर लकड़ियों को पकड़ते थे। उनमें राजाराम, मुराद खान और मुन्ना खान प्रमुख थे। साथ में लखन यादव, हरि शंकर ग्वालि, सुरेश पटवा भी मुझ उफनती नदी में एक किनारे से कूद लकड़ी पर सवार होकर दूसरे किनारे लग जाया करते थे। जैसा उन्माद मेरे बहाव में होता था वैसा ही ख़ून का उबाल उन जवानों के ख़ून और अरमानों में था। वे उफान से भरी नदी में कूद भँवर से बचते हुए लकड़ी के भारी लक्कड़ पर सवार होकर अपने आपको अकबर बादशाह समझते हुए दूसरी पार लग जाते थे।
आज़ादी के बाद अंग्रेज़ यहाँ से चले गए। लेकिन एक एडवर्ड डेरिक वॉन अपने पाँच लड़कों जॉर्ज, विन्स्टोन, एडवर्ड, एडविन और हेनरी व एक लड़की गार्ड़िनिया के साथ यहीं तारबाहर में रेल लाइन के किनारे बस गए। रनिंग-रूम के मुख्य ख़ानसामा शेख़ हयात और उनके दो सहायक असग़र और दिलावर भी परिवार बसा कर उनके पास ही जम गए थे। असग़र का मुराद और दिलावर का मुन्ना नाम का लड़का था। दिलावर की एक लड़की शबनम भी थी। घर-मुहल्ले में उसे शब्बो के नाम से बुलाते थे। उनके पीछे कल्लू और दम्मु धोबी के भरेपूरे परिवार रहते थे।
मुराद और मुन्ना रेल्वे लाइन के किनारे बने घरों में पड़ोसी थे। वे मुहल्ले की बकरियाँ और कुछ गाय-भैंस जंगल में ले जाकर चराया करते थे। रामचरन धोबी का लड़का राजाराम भी कभी-कभी उनके साथ जाया करता था। वे तीनो एक साथ गिल्ली-डंडा, गड़ा-गेंद सुआ-कंचा या अण्डा-डावरी खेला करते थे। तीनो की उम्र यही कुछ 18-20 के बीच थी। मार्च के महीने में एक दिन राजाराम दोपहर में मुन्ना को खेलने के लिए बुलाने आया। मुन्ना और मुराद बकरी चराने गए हुए थे। माता-पिता भी काम से बाहर गए थे।
मुन्ना की बहिन शब्बो घर पर अकेली थी। उसकी उम्र यही 16-17 साल के आसपास थी। शादी की बात चलती लेकिन दहेज की रक़म न होने से बात बन नहीं पाती थी। यौवन उसका शबाब पर था। उसके उरोजों और नितम्बों में पुष्ट भराव और कटि पर दुबलापन उसकी चाल में एक लहर पैदा करता था। उसकी चाल की मस्ती जवान लड़कों के दिलों में तीर की तरह उतर जाती थी। ऋषि वात्सायन के हिसाब से वह मृगी जातक की कन्या थी। जब चलती थी तो उसके सुडौल गोलाकार नितम्ब आपस में टकरा कर देखने वाले के दिल में स्पंदन पैदा करते थे। उसे इसका अहसास रहता कि लड़के उसे पीछे से निहारते हैं। वह और भी लहरिया चाल से चलती थी।
राजाराम सुबह भट्टी से कपड़े उतारने से लेकर शाम को धुलाई से प्रेस तक के काम दिन भर करता था। माँ-बाप का सबसे छोटा लड़का होने से उसकी खिलाई पिलाई अच्छी थी। मटन-मछली उसके रोज़ के खाने में शामिल रहती थी। राजाराम औसत क़द का भरी-भरी पुष्ट माँसपेशियों वाला वृषभ जाति का गबरू जवान पुरुष था। क्रिकेटर सचिन और धोनी जैसा ऊर्जा और उत्साह से लबालब भरा।
जब राजा शब्बो के घर पहुँचा तब वो बोरों से ढाँक कर बने कच्चे गुसलखाने में नहा रही थी। उसने बोरों की झीनी परत से राजा को आते देख लिया। राजा गुसलखाने के बिलकुल नज़दीक आकर आवाज़ लगा रहा था। शब्बो साँस थामकर बैठी रही। राजा की आवाज़ आनी बंद हो गई तो उसने नहाने के लिए बदन पर पानी उँडेला। राजा वहीं खड़ा था उसने चौंक कर गुसलखाने में झाँका तो वह शबनम में भीगे जादुई सौंदर्य को देखता ही रह गया। शब्बो ने उसी समय ऊपर देखा तो वह भी अपलक राजा की आँखों में खो गई। जिसे लोग पहले नज़र का इश्क़ कहते हैं, दोनो को वही हो गया था। राजा और शब्बो के दिलों में कामदेव विराजमान हो चुके थे। वे अपने आप में खोए-खोए रहने लगे। शब्बो आँटा गूँथते, कुएँ से पानी भरकर लाते, बकरियों को दुहते और चौका-बर्तन समेटते हर समय अनमनी और खोई-खोई सी रहने लगी। माँ के बुलाने पर उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उससे बात करता तो एकटक उसे देखे जाती। उसकी आँखों में एक नशा सा छाया रहता था। उसका शबाब पहले से और भी ज़्यादा निखर आया था। मुहल्ले की सारी औरतें उससे जलतीं और उसकी ग़ज़ब की सुंदरता का राज पूछती वह बेचारी हल्की सी मुस्कान छोड़कर चली जाती।
ऐसा ही कुछ हाल राजा का था। वह नदी किनारे धोबी घाट की सिल पर कपड़े फींचता तो कपड़े फटने तक फींचता जाता था। प्रेस करता तो एक ही कपड़े पर स्त्री चलाता जाता था। काम से फ़ुरसत होकर वह केबिन से सिगनल खींचने वाले साँडे पर आकर बैठ जाता, जहाँ से शब्बो का घर सीधा दिखता था। शाम होते ही यह रिवाज सा था कि गोपाल सेठ की हवेली से पंडा बाबू और वॉन साहिब के घर से पोटर खोली तक लोग चड्डी-बनियान पर ही वहाँ आकर बतियाते रहते थे। लेकिन वॉन साहिब हमेशा ख़ाकी ड्रेस में घुटनों तक जुराबें पहनकर जूतों में टिपटाप आते थे। उनका हैट हमेशा सिर पर रहता था। नसवार सूँघी लाल नाक उसके ऊपर दो पैनी गोल आँखें सामने वाले को तौलती हुई सी देखतीं रहतीं थीं।
सोहागपुर में आज भी ऐसी जगह नहीं है जहाँ इश्क़ज़दा लोग एक दूसरे को जी भरकर देख सकें, बातें कर सकें, मिल सकें। एक ही उपाय है कि भाई-बहन का दिखावटी रिश्ता क़ायम कर लो तब मिलना सम्भव है। अब थोड़े लोग मड़ई तरफ़ मोटर साइकल पर निकलने लगे हैं। लेकिन उस ज़माने में मोटर साइकल के बारे में तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे। साइकिल भी लोगों के पास नहीं होती थी। दोनो कसमसाकर रह जाते थे। मुहब्बत न रिवाज जानती है, न धर्म और न हैसियत, बस हो जाती है। बिना कुछ सोचे-समझे। सोच-समझ कर रिश्ता तो हो सकता है पर मुहब्बत नहीं। जो मुहब्बत के पचड़े में पड़ते हैं उनमें से गिने चुने सफल होते हैं बाक़ी नाकाम होकर उसी नाकामी के साथ ज़िंदगी गुज़ारते हैं या उसे अंदरूनी ताक़त बनाकर सारी मुश्किलों से पार निकल जाते हैं। कुछ भाई-बहन के रिश्ते के रास्ते से मुहब्बत के बारीक धागे को ज़माने की सुई में पिरोकर इश्क़ का पैरहन उधेड़-उधेड़ कर ताज़िंदगी सीते रहते हैं। देखें, हमारे इन दो मुहब्बतज़दा किरदारों की क़िस्मत में क्या लिखा है।
मिलने की सूरत या तो डोल ग्यारस की रात को जब बच्चे बूढ़े जवान पूरी रात गणेश प्रतिमा और झाँकी देखने निकलते, तब सम्भव थी या मुहर्रम की रात या दशहरा की रात जब थाने के पीछे जहाँ अब दुकानें लग गयीं हैं वहाँ ताज़िये मुहर्रम पर या दुर्गा मूर्ति दशहरे पर पूरी रात रखी जातीं थीं। तब तक दिल में लगी आग सुलगते रहती रही। ऊपर राख जम जाती थी परंतु अंदर शोले भड़कते रहते थे।
उस साल मुहर्रम और दशहरा एक ही दिन पड़े थे। दुर्गा प्रतिमा थाने के पीछे और ताज़िये पलकमती नदी किनारे मछली बाज़ार तरफ़ रखे गए थे। हिंदू मुसलमान बिना किसी भेद-भाव के दुर्गा दर्शन और ताज़िये के नीचे से निकलने की रस्म निभा रहे थे। शब्बो अपनी अम्मी के साथ बस्ती के रिश्तेदारों के बीच वहाँ बैठी थी जहाँ ताज़िये रखे थे। राजा दुर्गा प्रतिमा देख कर दोस्तों के साथ ताज़िये की तरफ़ जा रहा था वहीं शब्बो ताज़िये देख कर दुर्गा प्रतिमा की तरफ़ जा रही थी। दोनों की नज़रें मिली। बात हो गई। राजा तबियत ठीक न होने का बहाना करके दोस्तों से विदा होकर घर की तरफ़ चला। थोड़ी दूर जाकर वह शब्बो को ढूँढने दशहरा मैदान की तरफ़ मुड़ लिया। उसकी आँखें शब्बो से मिलीं। आँखों-आँखों में मिलने का इकरार हुआ। थोड़ी देर बाद शब्बो निस्तार के बहाने एक छोटी लड़की के साथ निकली और रास्ते में से उसे वापस विदा करके राजा का हाथ थाम के पुल के नीचे आ पहुँची। दोनो आलिंगनबद्ध होकर सुधबुध भूल कर खड़े रहे। जैसे अब कभी जुदा नहीं होना है।
मुराद और मुन्ना पुल की दूसरी ओर से जहाँ ताज़िये रखे थे वहाँ से निस्तार के लिए पुल के नीचे पहुँचे तो वहाँ कुछ साये उनको दिखाई दिए। कौतूहल वश वे वहाँ पहुँचे तो राजा और शब्बो को एक दूसरे की बाहों में समाए देखा। राजा ने कहा कि वो शब्बो को निस्तार के लिए लाया था।
मुराद मन ही मन शब्बो को चाहता था। वह सब समझ गया। उसके तन बदन में आग लग गयी। बात आयी गई हो गई। मुराद राजा और शब्बो पर नज़र रखने लगा। उसका शक पक्का हो गया कि मुहब्बत का खेल चल रहा है। जो उसे पूरी चाहिए थी शायद बँट गई है। शब्बो की मुस्कान जूठी हो गई है। शब्बो का राजा से लिपटता साया सोते जागते उसकी आँखों के सामने नाचता रहता था। उसकी सांसें तेज़ और तेज़ होती जाती थीं। वह अपनी मज़बूत बाँहों में ऐसी ताक़त महसूस करता था कि यदि चाँद को पकड़ पाए तो उसे लोंच खरोंच कर रुई के फ़वबों की तरह आसमान में बिखेर दे। चाँद के हल्के काले दाग़ में हाथ घुसेड़ कर बीच से चीर दे। वह रोटी का एक टुकड़ा हड्डी वाले मटन टुकड़े के साथ मुँह में डालता और चबाता रहता जब तक कि गोश्त लिपटी हड्डी चूर-चूर होकर उसके ऊदर में न समा जाती। सुख-दुःख, मिलन-विछोह, रात-दिन की तरह मुहब्बत-अदावत का भी चोली-दामन का साथ है। ये कभी अलग नहीं होती हैं। एक दूसरे के पीछे चिपकी चली आती हैं। ईसा से 600 साल पहले बुद्ध ने कहा था कि राग के साथ द्वेष भी सहज ही उत्पन्न होता है। दो लोग प्रेम में रहते हैं तो दुनिया के लोगों को सहज ही अच्छा नहीं लगता। माँ भी जब एक बच्चे को दुलार करती है तो दूसरे को अच्छा नहीं लगता। लोग प्रेम का जाप ज़रूर करते हैं लेकिन दुनिया को चलाने वाली चीज़ द्वेष है। राजा और शब्बो के प्रेम प्रसंग में भी राजा, मुराद और मुन्ना के बीच घातक द्वेष ने जन्म ले लिया। मुराद बार-बार मुन्ना से राजा और शब्बो के प्रसंग की बात उनके माता-पिता को बताने को कहता। मुन्ना के पिता को हृदय रोग था। तनावपूर्ण स्थिति उनकी जान ले सकती थी। इसलिए मुन्ना उन्हें नहीं बताना चाहता था। इस स्थिति से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता था।
दूसरी तरफ़ आशिक़ और माशूक़ के दिलों में मुहब्बत की आग भड़क रही थी। दशहरे की रात के आलिंगन से उनके बदन की ख़ुशबू एक दूसरे में समा चुकी थी। वह ख़ुशबू उन्हें एक दूसरे के पास खींच लाती थी। शब्बो का चेहरा और दमकने लगा था। जब राजा रेल्वे लाइन के नज़दीक कैबिन से निकल कर सिग्नल तक जाते सांडों पर आकर बैठता तो शब्बो दालान में बड़ा आईना लेकर ऐसे कोण पर रखकर सँवरने लगती जहाँ से उसके पीछे बैठा राजा उसे पूरा दिखता और राजा वहाँ से उसका चेहरा देख पाता था। मुराद और मुन्ना यह देख कर जल-भुन कर रह जाते। मुन्ना शब्बो के बाल खींचकर आईना उठा उसे कमरे के अंदर धकेल कर कुँडी चढ़ा देता। प्रेमी-प्रेमिकाओं के मार्ग की बाधाएँ उनकी आग और भड़का देती।
पलकमती नदी सोहागपुर में घुसने के पहले ईसाई क़ब्रिस्तान तक पूर्व से पश्चिम की तरफ़ बहती है। वहाँ से उत्तर की ओर घूम जाती है। नदियों की चाल कुछ-कुछ साँपों जैसी होती है, सीधी-सपाट न चलकर सर्पाकार चलती हैं। जहाँ ऊँची ज़मीन या रुकावट आई वहाँ से मुड़ जाती हैं। ऐसा लचीलापन आदमी को भी ज़िंदगी गुज़ारने में सहायक होता है। डारविन ने भी विकासवाद का सिद्धांत गढ़ते समय जल की इसी विशेषता को ध्यान में लाकर उन जीवों की सूची बनाई थी जो सामने कठिनाई आने पर बदलना शुरू कर देते हैं। उसने दुनिया के सामने origin of species जैसी महानतम खोज दुनिया को दी जिससे आज के मानव जीवन को सरल स्वस्थ और आनंददायक बनाया जा सके।
नदी किनारे क़ब्रिस्तान के बाद बाएँ हाथ पर तीन-चार घर चर्मकारों के फिर बसोडों के थे। वे आसपास के गाँव में मरे मवेशियों का चमड़ा नदी किनारे पर डालकर ही उतारा करते थे। जानवर के शव को जंगली कुत्ते या सियार न ख़राब कर पाएँ, उसके पहले ही उनको यह काम करना होता था क्योंकि हिंसक जानवर मृत पशु के चमड़े को जगह-जगह से काट कर ख़राब कर देते थे। चमड़ा उतारने वाले अपनी खुरपी से पुट्ठों की तरफ़ से चमड़ा उतरना शुरू करते थे। कंधों तक एक पूरा चमड़ा उतार लेते थे। जंगली कुत्ते, सियार, गिद्द, कौवे उनके ऊपर मँडराते रहते थे। वे किसी योगी की साधना से काम में रत रहते थे। काम कोई भी हो लगन से ही कुशलता आती है। जानवरों की हड्डियाँ एकत्र करके बड़े शहरों में उद्योगपतियों को बेच आते थे। वे उनको गोली-कैप्सूल पैक करने की जिलेटिन बनाने या शक्कर बनाने के लिए सल्फ़र के रूप में उपयोग कर लेते थे।
चमार-बसोड के घरों के बाद ग्वालियों की बस्ती शुरू होती थी। पहला घर जैरमा ग्वाली का पड़ता था। जिसकी ग्वालिन बहुत मोटी थी। साठ चुन्नट का बड़ा घेरदार लहंगा पहनती थी। सामने करबला घाट था। वहाँ उस समय चार-पाँच पुरुष पानी भरा रहता था। लड़के बीस फ़ुट ऊँचाई से डाई लगाकर नदी के अंदर ड़ुपकी लगाते थे। मुराद, मुन्ना, राजा, सुरेश, इमरत, लखन, मदन, सुमा सब वहाँ नहाने आते थे। घाट की दूसरी तरफ़ रेत का बड़ा सा मैदान था, जिसमें शंकर लाल पहलवान आठ दस पट्ठों को कुश्ती सिखाया करते थे। लड़के उन्हें शंकर भैया कह कर बुलाते थे। सोहागपुर के लोगों में यह चलन है कि वे जिसे सम्मान देना हो उसे भैया कहकर सम्बोधित करने लगते थे। जैसे अरविन्द भैया, रज्जन भैया, रवि भैया, शरद भैया, रम्मु भैया आदि-आदि।
कुश्ती सीखने वालों में राजा का बड़ा भाई गुड्डा भी आता था। एक दिन उसके साथ राजा भी आया। वो सुरेश के पास बैठ गया। कुश्ती-रियाज़ ख़त्म होने के बाद उसने अपनी प्रेम कहानी सुरेश को सुनाई और मुश्किल बताई कि मुराद और मुन्ना सब जान गए हैं। सुरेश उस समय लंगोट का पक्का और हनुमान भक्त पहलवान था। किताबें और कुश्ती उसके शौक़ थे। वह रोज़ हनुमान चालीसा और शनिवार को सुंदरकाण्ड का पाठ करता था। उसने राजा को अपनी सोच के हिसाब से और दोनो के अलग धर्म की दुहाई देकर शब्बो को भुलाने की समझाइश दी परंतु वह उलटे घड़े पर पानी डालने जैसा था। राजा के दिमाग़ के अंदर कुछ भी नहीं गया।
प्रेमांध लोग कुछ भी कर सकते हैं। तुलसीदास साँप को रस्सी समझ कर हवेली पर चढ़ रत्नावली के पास पहुँचे थे। उस समय गरमियों में लोग खटिया डालकर आँगन में सोया करते थे। वह चैत की चाँदनी भरी रात थी। राजा को नींद नहीं आ रही थी। वह आसमान में खिले चाँद सितारों को निहार रहा था। अचानक उठा और शब्बो के घर की तरफ़ चल दिया। साँड़े पर जाकर बैठ गया। सामने आँगन में शब्बो अपनी माँ के साथ सो रही थी। थोड़ी दूर से पलंग से उसके पिता उठे और शब्बो की माँ को धीरे से जगाकर घर के भीतर ले गए। खिली चाँदनी में राजा ने देखा तो उससे रहा नहीं गया वह उठा और खटिया के नज़दीक पहुँचा। देखा ज़माने से बेख़बर उसकी शब्बो गहरी नींद में सोई हुई थी। उसने शब्बो के चेहरे पर हाथ फेरा तो वो चौंककर उठ पड़ी। उसने राजा को भींचकर गले लगा लिया। अगले ही क्षण वह काँप उठी। उसने राजा को धक्के देकर भाग जाने को कहा। राजा खटिया से नीचे गिरा। आवाज़ से मुन्ना जाग गया। राजा उठ कर भागा। तब तक बाजु के आँगन में मुराद भी जाग गया था। दोनों ने राजा को भागते हुए देख लिया।
चीता जब शिकार पर झपट्टा मारता है तो थोड़ा पीछे झुक जाता है। मुराद और मुन्ना ने राजा पर कुछ भी प्रकट न होने दिया। खेलना कूदना सामान्य रखा। शाम को राजा को घर बुलाया ताज़ी मछली सालन के साथ रोटी चावल खाया। उसके अगली दोपहर को बंशी लेकर मछली पकड़ने का कार्यक्रम बन गया। मुराद मुन्ना और राजा तीनों वंशी, तिलेंडा, केंचुए, आँटे की गोलियाँ और रोटियों के बीच में तली मिर्चियाँ रखकर ईसाई क़ब्रिस्तान के किनारे से निकलकर नयागाँव के बाहर-बाहर नदी किनारे बस्ती से तक़रीबन तीन मील दूर वहाँ पहुँचे जहाँ पानी गहरा था और मछली ख़ूब थीं।
तीनों अपनी वंशी डालकर तिलेंडा हिलने का इंतज़ार करते। जब गल का हुक मछली के गलफड़ें में फँस जाता तो ऊपर का तिलेंडा हिलता। ठीक उसी समय जिस दिशा में वह हिल रहा है उसकी उलटी दिशा में वंशी को तेज़ी से खींच देते। मछली फड़फड़ातीं हुई हाथ में आ जाती। शाम हो चली थी। पक्षी अपने डेरों पर लौटने लगे थे। उन तीनो ने रोटी मिर्ची खाईं, फिर लेट गए। मुराद ने एक लम्बी रस्सी निकाली और एक खेल की पेशकश की। रस्सी से एक के हाथ पैर बाँध दिए जाएँगे उसे ख़ुद खोलना होगा। पहले कौन बँधेगा कहने भर की देर थी। राजा बोला मैं। उसे जोखिम भरे खेल खेलने का बहुत शौक़ था। मुराद और मुन्ना ने राजा को नदी किनारे ही एक ऊँची जगह पर पैर लटका कर बिठाया। मुन्ना राजा के हाथ पीछे बाँधने लगा। बाँधकर उसने रस्सी नीचे मुराद की तरफ़ फेंकी। हाथ पर रस्सी की कसावट से राजा को कुछ शक हुआ लेकिन वो बैठा रहा। मुराद उसके पैर में रस्सी खींचकर बाँधने लगा। उसका ग़ुस्से से तमतमाता चेहरा राजा के सामने था। राजा ने उसे देखा तो दहल गया। उसने पैर फेंकना शुरू ही किया था कि मुराद ने अपनी कमर में शर्ट के अंदर रखा हुआ ख़ंजर निकाला और राजा के पेट में सीधा भौंक दिया। राजा सीधा मुराद के ऊपर गिरा। मुराद ने ख़ंजर नहीं छोड़ा। राजा के पेट से निकाल कर तीन बार और उसकी आँतों में घुसा कर घुमा दिया। राजा की आँते बाहर लटक गईं। मुराद और मुन्ना सन्न रह गए। मुन्ना बोला- यार अपन ने तो सोचा था कि इसे रस्सी से बाँधकर नदी में डाल देंगे। दम निकल जाने पर रस्सी खोलकर डूबकर मर जाने की बात बता देंगे। फिर उन्होंने वहीं गड्डे में लाश को दबाया, काँटेदार झड़ियाँ लाकर उसके ऊपर रख दीं। नदी में ख़ंजर और कपड़े धोकर घर लौट गए।
रात को क़बरबिज्जु और सियारों ने राजा के शव को निकाल कर खाया। सुबह गिद्द मँडराने लगे। चमारों ने देखा की गिद्द कहाँ उड़ रहे हैं। वे खुरपी लेकर उस दिशा में चल दिए। जो देखा उसकी ख़बर पुलिस को दी। पोस्टमार्टम हुआ। प्रेमी की लाश सुपुर्देख़ाक कर दी गई। मुराद और मुन्ना को ख़ंजर सहित बंदी बनाया गया। सोहागपुर में सनसनी फैल गई। प्रकरण चला सरकारी वक़ील डब्लू. एन. शर्मा ने अभियोजन पक्ष की ओर से एवं मूसा वक़ील ने बचाव पक्ष की ओर से पैरवी की। घटना का कारण एक ख़ूनी-अदावत थी। अब घटना की चीरफाड़ एक अदालत में होने लगी। वह अदालत भी नदी किनारे पर ही है। राजा को जब ख़ंजर मारा तो वह मुराद के ऊपर गिरा उस समय ख़ंजर उसके फेंफड़ों तक गप गया था और उसकी तत्काल मौत हो गई थी। क़ब्रिस्तान के चौकीदार और नयागाँव ने खेतों में मौजूद किसानों ने उन तीनों को जाते देखा था और मुराद व मुन्ना ही लौटकर आए थे। ख़ंजर और ख़ून सने कपड़े अभियुक्तों से बरामद हुए थे। उनका इक़बालिया बयान पुलिस ने अदालत के सामने रखा था। हत्या का आरोप सिद्ध हुआ। उस समय लोगों की उम्र बाप से पूछकर तय की जाती थी। जन्म प्रमाण पत्र नहीं होते थे। मूसा वक़ील ने मुराद और मुन्ना के वालिदान से एक शपथ-पत्र दिलवा कर यह सिद्ध करने की कोशिश की थी, कि आरोपी अपराध के समय नाबालिग़ थे। लेकिन अभियोजन पक्ष ने वालिदान द्वारा स्कूल में भर्ती करते समय लिखाई गई तारीख़ का साक्ष्य पेश कर दिया, जिस पर आरोपियों के वालिदान के दस्तखत थे। मुराद और मुन्ना को बीस-बीस साल की बामशक़्क़त क़ैद की सज़ा सुनाई गई।
शब्बो पथरा गई थी। उसने खाना छोड़ दिया था। उसका दिमाग़ फिर गया था। “आजा-राजा आजा-राजा” चिल्लाते पड़ी रहती थी। चार महीने जी सकी वो, फिर वो भी अल्लाह को प्यारी हो गई। जिसने जीवन दिया, प्रेम दिया लेकिन जीने नहीं दिया। उसने या रिवायत ने या दीवारों ने या ख़ुदगर्ज़ी ने या कपट ने। पता नहीं कैसी दुनिया और कैसा समाज बनाया है इन इंसानों ने। सतपुड़ा के आँचल में पलते गोंड़, भील और कोरखू लोगों में ऐसी रवायत नहीं है। प्यार होता है। पता भी नहीं चलता। एक दूसरे के हो जाते हैं। ज़िंदगी मज़े से गुज़ार के गुज़रते हैं। किसी को ख़बर तक नहीं होती। मुन्ना और मुराद के बाप और मुन्ना की माँ इस सदमे को बर्दाश्त न कर सके। सज़ा की एलानी के साथ वो भी क़ब्रिस्तान की नज़र हुए। मुराद की एक बहन मग्गो बची थी। जिसे मुहल्ले वालों ने सम्भाला। एक चिंगारी सात ज़िंदगी समय से पहले भस्म कर गई। कुछ लोगों ने उस घटना को मज़हबी रंग देने की कोशिश की थी लेकिन दोनों मज़हब के समझदार बुज़ुर्गों ने मामले को सम्भाला। वैसे भी सोहागपुर में समवेत संस्कृति शुरू से ही विकसित हुई है। हिंदू-मुसलमान-ईसाई-सिक्ख सभी यहाँ मिलकर रहते और त्योहार मानते रहे हैं।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
बेहतरीन अभिव्यक्ति