श्री सदानंद आंबेकर
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी की एक भावप्रवण एवं प्रेरक लघुकथा “ भविष्य निधि – दीप दीपावली के”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – भविष्य निधि – दीप दीपावली के ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆
दिवाली के दिन पूर्वान्ह में गांव के प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में खड़ा एक अधेड़ चुपचाप शाला के भवन को देख रहा था। यह व्यक्ति जिले के हायर सेकेंडरी विद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य महेश पाठकजी थे।
शाला के भवन को देखते- देखते वे पुरानी स्मृतियों में खो गये। बचपन में छोटे से गांव की इसी शाला से उन्होंने पढ़ाई का श्रीगणेश किया था। उस समय से देखते देखते इसका भवन पुराना होकर गिरता ही चला गया था। जिले में रहते हुये उन्हें गांव आने पर इसे देखने का अवसर चलते फिरते मिलता रहता था। भवन जर्जर होने के कारण उसमें नियमित कक्षायें लगना भी धीरे धीरे कम होने लगी, स्थानीय शिक्षकों की इसी कारण रुचि भी घटने लगी पर सबसे अधिक हानि हुई उन छोटे-छोटे बच्चों की, जिनके विद्यारंभ का एकमात्र आधार यही शाला थी। बच्चे चाह कर भी पढ़ने नहीं आ सकते थे।
पाठक जी को यह बात बहुत कचोटती थी। इसके जीर्णाेद्धार के लिये पंचायत विभाग से बहुत जुगत भिड़ाई पर सरपंच के रुचि नहीं लेने के कारण काम हो नहीं पाया।
एक वर्ष पूर्व वे सेवानिवृत्त हो गये और अपने मूल निवास वाले गांव में पत्नी सहित लौट आये। एक दिन अचानक उन्हें अपनी समस्या का समाधान मिल गया। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी अतः अब घर में केवल वे दो ही जीव थे सो एक दिन अपने मन की बात पत्नी से कह ही दी। वह भी सीधी-सादी सी थी तो तत्काल स्वीकृति दे दी और अपने भविष्य निधि के संचित धन को उन्होंने इसमें लगा कर शाला में पांच पक्के कमरे बनवा कर ऊपर टिन की छत डलवा दी। एक कोने में शौचालय बनवा दिया। अपने सेवाकाल में परिचित व्यवसायी से उचित दामों में मेज कुर्सी भी बनवा कर लगवा दी। बच्चों के कक्षा की समस्या एकाएक सुलझ गई थी और अब शाला भी नियमित चल सकती थी।
आज उसी नये भवन की पहली दीपावली के लिये बच्चे सजावट कर रहे थे और खुशी से शोर मचाते हुये दौड़ते फिर रहे थे। सुबह की धूप में उन बच्चों की चमकती हुई आंखों को देख कर पाठक जी को ऐसा लगा मानो दीपावली की सांझ के दीपक उनके विद्यालय के आंगन अभी से जगमगा उठे हों।
© सदानंद आंबेकर
भोपाल, मध्यप्रदेश
बहुत सुंदर रचना। मन को छू लिया।