श्री राजेन्द्र निगम

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेंद्र निगम जी ने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में  स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14  पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री यशवंत ठक्कर  जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद मायका।)

☆  कथा-कहानी –  मायका – गुजराती लेखक – श्री यशवंत ठक्कर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆

‘मेहुल, क्या आज ऑफिस से कुछ जल्दी आ सकते हो ?’ स्वाति ने पूछा |

‘क्यों ?’

‘आज रात आठ बजे टाउन-हाल में कवि सम्मलेन है | उसमें कई अच्छे-अच्छे कवि आनेवाले हैं | तुम यदि आओ तो चलते हैं |’

हर वक्त जब भी कविता, नाटक या साहित्य  का जिक्र होता, तो मेहुल को हँसी आ जाती | इस वक्त भी वह आ गई | वह हँसते-हँसते बोला ; ‘कवि साले कल्पना की दुनिया से कभी बाहर ही नहीं आते | उन्हें कुछ दूसरा भी कुछ काम-धंधा है या नहीं |’

‘मेहुल, यदि न जाना हो, तो मुझे कुछ आपत्ति नहीं है | लेकिन ऐसे किसी का अपमान करना ठीक नहीं है |’

‘लो, तुम तो नाराज हो गई | तुम तो ऐसे बात कर रही हो, मानो मैंने तुम्हारे मायकों  वालों की तौहीन कर दी हो |’

हर बार की तरह स्वाति चुप हो गई | लेकिन वह मन ही मन मेहुल से सवाल किए बगैर रह नहीं सकी | ‘मेहुल, यह मेरे मायके वालों के अपमान करने जैसा नहीं है | मायका अर्थात क्या सिर्फ मेरे माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि ही ? जिन कवियों की कविताओं ने मुझे प्रेम करना सिखाया, सपने देखना सिखाया, अकेले-अकेले मुस्कराना सिखाया, अकेले-अकेले रोना सिखाया, वे कवि क्या मेरे  मायके के नहीं हैं ? आज मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ, उसमें मेरे माता-पिता व मेरे शिक्षकों के साथ इन कवियों का भी अहम योगदान है | यह मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ ? इसे समझने के लिए जब तुम्हारे पास यदि हृदय ही नहीं हो तब !’

स्वाति मेहुल के लिए टिफिन तैयार करने के काम में व्यस्त हो गई | मेहुल ऑफिस जाने की तैयारी में लग गया | लेकिन वातावरण में उदासी का रंग छा गया |

ऑफिस जाते समय मेहुल ने वातावरण को हल्का बनाने के इरादे से कहा, ‘सॉरी स्वाति, तुम तो जानती ही हो कि मैं पहले से ही कुछ प्रेक्टिकल हूँ और मुझे ऐसे कल्पना के घोड़े दौड़ाना अच्छा नहीं लगता | मुझे काम भी बहुत रहता है | जवाबदारी भी बहुत है | हमें अंश के भविष्य के बारे में भी विचार करना है | उसे किसी अच्छे होस्टल में रखना है | अच्छी पढ़ाई के बाद उसे विदेश भेजना है | ऐसे में साहित्य का राग ही अलापना नहीं है |’

स्वाति का मौन टूटा नहीं |

मेहुल ने वातावरण को हलका बनाने का प्रयास जारी रखा | ‘स्वाति, तुम्हें कविता, नाटक व कहानियाँ आदि का शौक है, लेकिन ये सब तो टीवी में आते ही हैं न ? अब तो नेट पर भी यह सब मिल जाता है |’

‘मेहुल, नेट पर तो रोटी-सब्जी भी होती है, लेकिन उससे पेट तो नहीं भरता | टीवी में हरे-भरे पेड़ भी बहुत होते हैं, लेकिन हमें उनसे छाँह तो नहीं मिलती | टीवी की बरसात हमें भिगोती नहीं है | ठीक है, कोई बात नहीं | कवि-सम्मलेन कोई बहुत बड़ी बात नहीं है | न जाएँगे, तब भी चलेगा | हमारी जवाबदारियाँ पहले हैं |’

स्वाति ने हँसने की कोशिश की, लेकिन उसकी रुआँसी आँखें मेहुल की नजरों से छिप न सकीं |

‘तुम्हें खुश रखने के लिए मैं कितनी जी तोड़ मेहनत करता हूँ, फिर भी तुम्हारी आँखों में आँसू ! तुम्हें क्या चाहिए, यह मुझे समझ नहीं आता |’ मेहुल की आवाज कुछ तेज हो गई |

‘मुझे मेरा गुम  हुआ मेहुल चाहिए | जो छोटी-छोटी बातों से खुश हो जाता था |’ स्वाति किसी तरह कुछ बोल सकी |

‘छोटी-छोटी बातें !’ मेहुल  हँसा और ऑफिस जाने लिए निकल गया |

अकेली रह गई स्वाति और वह जी भर कर रोती रही | वह सोचने लगी | ‘ऐसी जिंदगी, अब जी नहीं सकते, लगता है यह तो अब रोज मानो कॉपी-पेस्ट होती जा रही है | इसमें से अब नया कुछ भी बनने से रहा | जो बनना था, वह बन गया | अब तो जो रोज बनता है, वह सब एक जैसा | कविता, नाटक, संगीत, प्रवास इन सब के बगैर जिंदगी रुक नहीं जाती है, लेकिन इन सब के होने से जिंदगी को एक गति मिलती है | लेकिन इन सब को समझने के लिए मेहुल के पास वक्त  नहीं है | शयद उसकी जिंदगी तेजी से भाग रही ट्रेन जैसी है और मेरी जिंदगी यार्ड में पड़े किसी डिब्बे जैसी !’

काम पूरा कर वह बिस्तर पर लेटी और बिस्तर पर पड़े-पड़े यही सोचती रही | उसकी आँखें बोझिल होने लगीं |

जब मोबाईल की रिंग बजी, तब उसकी आँखें खुलीं | फोन मेहुल का था | बात शुरू करने के पहले स्वाति ने अपनी नजर घड़ी की ओर घुमाई | चार बजने वाले थे |

‘हलो, स्वाति, क्या कर रही हो ?’

‘बस अभी उठी हूँ |’

‘कह रहा हूँ कि तुम रिक्शा कर छह बजे शहर में आ जाना | मैं लेने आऊँगा, तो देर हो जाएगी | हम लक्ष्मी-हॉल पर इकट्ठे हो जाएँगे |’

‘लेकिन क्यों ? कुछ खरीदना है ? मेरे पास बहुत कपड़े हैं और अब…’

‘मैं इकट्ठे होने की बात कर रहा हूँ, खरीदी करने की नहीं | मैं फोन रख रहा हूँ | काम में हूँ | आने का भूलना नहीं |’

‘ठीक है |’ स्वाति ने जवाब दिया या देना पड़ा |

स्वाति सोचने लगी, ‘अब मुझे मनाने के इरादे से एकाध साड़ी या ड्रेस दिलाने की बात करेंगे | लेकिन उसका क्या अर्थ है ? छोटी-छोटी खुशियों में अब उसकी कोई दिलचस्पी नहीं | उसकी गणना अलग ही तरह की है | लेकिन आज तो इंकार ही कर देना है | मुझे कपड़े और गहने इकट्ठे नहीं करने हैं |’

वह लक्ष्मी-हॉल पहुँची और वहाँ मेहुल अपनी बाईक पार्क कर उसकी प्रतीक्षा करता हुआ खड़ा था |

‘मेहुल, कुछ खरीदी करना है ?’ स्वाति साड़ी की दुकान की ओर नजर घुमाते हुए बोली |

‘हाँ ‘

‘क्या खरीदना है ?’

‘यह’ फुटपाथ पर बैठी एक बाई सिर को सुशोभित करनेवाले बोर बेच रही थी, मेहुल ने उसकी ओर हाथ से इंगित किया |

‘ओह ! इसकी तो मुझे वास्तव में बहुत जरूरत है |’ स्वाति मानो उस ओर दौड़ गई | वह बोर पसंद करने में मशगूल हो गई |

मेहुल स्वाति को मानो समझ रहा हो, ऐसे उसकी ओर देखने लगा |

‘दस रूपए दो न |’ स्वाति मेहुल की ओर देख कर बोली |

‘क्रेडिट कार्ड नहीं चलेगा ?’ मेहुल ने मजाक में पूछा | मेहुल ने एक लंबे अरसे के बाद इस प्रकार की मजाक की थी | स्वाति को अच्छा लगा |

बोर खरीदने के बाद मेहुल ने स्वाति से कपड़े खरीदने की बात की, लेकिन स्वाति ने इंकार कर दिया |

‘तो चलो, बाजार का एक चक्कर लगाते हैं | शायद बोर जैसी ही कुछ और भी चीज मिल जाए |’ मेहुल ने मजाक की |

स्वाति याद करने की कोशिश करने लागी कि वह आखिर में इस बाजार में कब आई थी| निश्चित दिन तो याद नहीं आया, लेकिन करीब पंद्रह वर्ष पहले के दिन याद आ गए, जब मेहुल का धंधा कुछ-कुछ जमने लगा था | कमाई कम थी, इसलिए खरीदी करने के लिए इस बाजार में आना पड़ता था |

बाजार आज भी चीजों व लोगों से भरा हुआ था | गरीब व माध्यम वर्ग के लोग कपड़े, चप्पल, कटलरी, खिलौने जैसी वस्तुएँ खरीद रहे थे | व्यापारी अपनी चीजें बेचने के लिए जाजम आदि बिछा कर बैठे हुए थे | उनमें से तो कई के लिए चार-छह वर्ग फिट जगह भी कमाई के लिए पर्याप्त थी | वे ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उनमें जो भी कौशल थी, उसका वे उपयोग कर रहे थे | ग्राहक भाव लम करने के लिए रकझक कर रहे थे | व्यापारियों की चिल्लाहट, भोंपू व सीटियों का संगीत, जोर से बज रहे गीत, ‘जगह दो… जगह दो’ व ‘गाय आई… गाय आई’ जैसी चीखें, ये सब  उस बाजार के वातावरण को जीवंत बना रहे थे |

स्वाति को एक लंबे समय के बाद ऐसे जीवंत वातावरण का अनुभव हो रहा था | उसे कोई पुराना सगा-संबंधी मिल गया हो, उस तरह का आनंद मिल रहा था | वस्तुएँ खरीद रहे ग्राहकों की आँखों में दिखाई दे रही आशा, उमंग, लाचारी जैसे भाव उसे अपने स्वयं के लगे | वर्षों पहले वह इसी प्रकार के भाव के साथ इस बाजर में अक्सर आती थी |

दोनों कपड़ों के एक ठेले से कुछ दूर खड़े रह गए | उन्होंने देखा कि एक बाई उसके बेटे के लिए कपड़े खरीदने के लिए आई थी | उसने ठेलेवाले के पास से लड़के के माप के एक जोड़ी कपडे लेकर लड़के को पहनाए | लड़का भी नए कपड़े पहन कर बहुत खुश था, अब मात्र रकम का भुगतान करना ही शेष था और इसलिए वह बाई भाव के लिए व्यापारी के साथ रकझक कर रही थी |

‘मेहुल, तुम्हें याद है ? अंश का पहला जन्मदिन था और तब हम उसके कपड़े लेने के लिए इसी बाजार में आए थे |’ स्वाति ने बालक की ओर प्रेम भरी नजरों से देखते हुए पूछा |

‘हाँ, लेकिन तब हमारी मजबूरी थी | कमाई कम थी न ?’

‘कमाई कम थी, लेकिन जिंदगी छोटी-छोटी खुशियों से छलकती रहती थी ! मैं भी इस बाई की तरह व्यापारियों के साथ रकझक करती थी और कीमत कम करवाने के बाद बहुत खुश हो जाती थी |’

लेकिन आज उस बाई और उसके लड़के के नसीब में शायद ऐसी खुशी नहीं थी | बहुत रकझक के बाद ठेलेवाले व्यापारी ने जो भाव कहा था, उस भाव का वहन करने की सामर्थ्य बाई में नहीं थी | उसके पास बीस रूपए कम थे | बीस रूपए कम लेकर वह कपड़ा देने के लिए गिडगिडा रही थी, लेकिन व्यापारी ने भी उसकी मजबूरी दर्शाई वह बोला, ‘बहनजी, इससे अब एक रुपया भी कम नहीं होगा | मेरे घर भी, मेरा परिवार है, मुझे वह भी देखना है न ?’

अंत में उस बाई के पास एक ही उपाय शेष रहा कि वह लड़के के शरीर पर से कपड़ा उतार कर व्यापारी को लौटा दे | वह जब वैसा करने लगी, तो लड़के ने बिलख कर रोना शुरू कर दिया | देखते-देखते बालक की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी | बच्चा अपनी भाषा में दलील करने लगा कि, ‘माँ, तुम मुझे यहाँ नए कपड़े दिलाने लाई हो तो फिर क्यों नहीं दिला रही हो ?’ बाई ने उसे समझाया, ‘बेटे, मान जाओ, ये कपड़े अच्छे नहीं हैं, तुम्हारे लिए इससे भी अच्छे कपड़े लाएँगे |’ लेकिन लड़के को वह बात गले नहीं उतर रही थी | उसका झगड़ा चालू ही था | बालहठ के समक्ष बाई धर्म-संकट में आ चुकी थी | वह बालक के शरीर पर से जोर लगाकर कपड़े को उतारने की कोशिश कर रही थी और बालक के पास जितनी ताकत थी, उससे वह कपड़े को पकड़े हुए था |

अब मेहुल से नहीं रहा गया | वह तुरंत ठेलेवाले के पास पहुँचा | उसने व्यापारी से, बाई न सुन सके, उतनी धीमी आवाज में पूछा, “कितने कम पड़ रहे हैं ?’

‘साहब, बीस रूपए | मैं जितना कम कर सकता था, उतने कम किए, लेकिन अब कम नहीं कर सकता हूँ | नहीं तो मैं बालक को रोने नहीं देता |’

‘तुम उन्हें कपड़ा दे दो | वे जाए, उसके बाद मैं बीस रूपए देता हूँ | उन्हें कहना नहीं कि बाकी की रकम मैं दे रहा हूँ, नहीं तो खराब लगेगा |’ मेहुल ने यह धीमे से कहा और स्वाति के पास आ गया |

‘’रहने दो | ठीक है, पहने रहने दो |’ व्यापारी ने बाई को कहा | ‘लाओ, बीस रूपए कम हैं, तो ठीक है, चलेंगे |’

बाई ने उसके पास जो थी, वह रकम व्यापारी के हाथ पर रख दी |

‘अब खुश ?’ व्यापारी ने लड़के से प्रेम से पूछा | बालक ने निर्दोष नजर से अपनी प्रसन्नता व्यक्त की |

बाई व्यापारी को आशीर्वाद देती-देती और बच्चे के गालों पर से आँसू पोंछती-पोंछती गई |

बाई और उसका लड़का कुछ दूर पहुँचे और तब मेहुल ने उस व्यापारी को बीस रूपए का भुगतान कर दिया |

‘आज मुझे मेरा गुम हुआ मेहुल वापिस मिल गया है |’ खुश होते हुए स्वाति बोली |

‘स्वाति, आज मैंने ऑफिस में गुम हुए मेहुल को ढूँढने के सिवा और कुछ काम नहीं किया | चार बजे वह मुझे मिला और मैंने तुम्हें तुरंत फोन किया |’ मेहुल ने कहा |

स्वाति ने मेहुल का हाथ पकड़ लिया | ‘चलो, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए, जो चाहिए था, वह मिल गया |’

‘अरे ! यहाँ तक आए हैं तो भला राजस्थानी कचोरी खाए बगैर कैसे जाएँगे ?’

राजस्थानी कचोरी खाने के बाद उन्होंने उस हॉटल में आइसक्रीम खाई, जिस हॉटल में उन्होंने अंश को पहली बार आइसक्रीम खिलाई थी |

बाजार में एक चक्कर लगाकर वे दोनों बाईक के पास फिर आए |

मेहुल ने स्वाति को बिठाया और बाईक को दौड़ाया | उसने घर की ओर का रास्ता नहीं लिया, इसलिए स्वाति ने पूछ ही लिया, ‘क्यों इस ओर ? घर नहीं चलना है ?’

‘नहीं, अभी एक ठिकाना और बाकी है |’ मेहुल ने जवाब दिया |

‘कहाँ ?’

‘नजदीक ही है ?’

उस नजदीक की जगह के बारे में स्वाति कुछ अनुमान लगाती रही | लेकिन उसके वे सब अनुमान गलत निकले, जब उस जगह पर मेहुल ने बाईक खड़ी की |

‘यहाँ जाना है |’ उसने जगह की ओर उंगली से इशारा करते हुए बताया |

काव्य-रसिकों का स्वागत करता हुआ टाउन-हॉल स्वाति को उसके मायके जैसा ही लगा |

 ♦ ♦ ♦ ♦

मूल गुजराती लेखक – श्री यशवंत ठक्कर

संपर्क – जूना पावर हाउस सोसायटी, रोटरी भवन के पीछे, जेलरोड, मेहसाणा, 384002 – मो.

हिंदी भावानुवाद  – श्री राजेन्द्र निगम,

संपर्क – 10-11 श्री नारायण पैलेस, शेल पेट्रोल पंप के पास, झायडस हास्पिटल रोड, थलतेज, अहमदाबाद -380059 मो. 9374978556

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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