श्री सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है।
ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है पहली बेहतरीन कहानी – ग़ालिब का दोस्त। )
☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ – ग़ालिब का दोस्त ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
मशहूर शायर और फ़िल्मकार गुलज़ार साहब ने मिर्ज़ा ग़ालिब की वीरान हवेली को उनका स्मारक बनाया है। उन्होंने इस हवेली का पता शायराना अन्दाज़ में कुछ यूँ बयाँ किया हैं।
बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ, सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे,
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह-वाह, चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे,
एक बकरी के मिम्याने की आवाज़ और धुँदलाई हुई शाम के बे-नूर अँधेरे साए दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ। चूड़ी-वालान कै कटरे की बड़ी-बी जैसे अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले,
इसी बे-नूर अँधेरी सी गली-क़ासिम से एक तरतीब चराग़ों की शुरूअ होती है, एक क़ुरआन-ए-सुख़न का सफ़हा खुलता है, असदुल्लाह-ख़ाँ-ग़ालिब का पता मिलता है।
जब ग़ालिब ज़िंदा थे उस ज़माने की बात है। उनके उसी घर के दरवाज़े के सामने एक घोड़ागाड़ी आकर रुकी। उसमें से बंसीधर उतरे, आगे से कोचवान बिद्दु मियाँ हाँकनी को बग़ल में खोंसकर कूदा। बंसीधर यात्रा की थकान को अंगड़ाई से उतार रहे थे तभी घर का मुआयना करते हुए बिद्दु मियाँ ने हैरानी से पूछा – “लाला जी, आपके दोस्त असद इस घर में रहते हैं क्या?”
बंसीधर ने उपेक्षा पूर्वक “हाँ, यही रहते हैं।” कहते हुए, उसे घोड़ागाड़ी से सब्ज़ियों का टोकरा उतारने को कहा। बिद्दु मियाँ टोकरा उतारते हुए भी घर को तिरछी निगाह से देखते बोला “यह मकान उनके आगरा वाले “कलाँ महल” की तुलना में बहुत छोटा नहीं लगता?”
बंसीधर – “क्या तुम मिर्ज़ा को आगरा से जानते हो”
बिद्दु मियाँ – “हाँ लाला जी, जब आप दोनों मिलकर राजा बलवंत सिंह की पतंग काटते थे, तब हम दोस्तों के साथ मँज्जा लूटने का लुत्फ़ उठाया करते थे।”
तब तक मिर्ज़ा के घर की नौकरानी वफ़ादार दरवाज़ा खोलकर बंसीधर के नज़दीक पहुँच दुआ सलाम करके खड़ी हो गई तो बंसीधर ने पूछा- क्या मिर्ज़ा घर पर हैं? वफ़ादार ने बताया वे गुसलखाने में मशगूल हैं। बंसीधर ने हिदायत दी “ठीक है, यह टोकरा अंदर रखवा लो और हमारी भाभी जान को हमारे आने की खबर कर दो।”
थोड़ी देर में मिर्ज़ा की बेग़म उमराव जान उदासी के झीने नक़ाब के पीछे से दरवाज़े पर आकर बोलीं – “आदाब, लाला जी भाई”
बंसीधर – “आदाब भाभी जान, आप कैसी हैं?”
बेग़म – “अल्लाह का करम है, भाई साहब।”
बंसीधर – “और असद कैसा है, क्या वह दिल्ली से दिलजोई में इतना भी भूल गया कि आगरा में उसको दिल से चाहने वाला बचपन का एक दोस्त भी रहता है।”
बेग़म – “नहीं ऐसा नहीं है भाई साहब, अभी कल ही वे बचपन के क़िस्से सुनाकर आपको बहुत याद कर रहे थे।”
बंसीधर – “और बताइए, असद की क़िले में दाख़िले और दरबार में हाज़िरी की कोई जुगत बनी क्या?”
बेग़म ने कोई जबाव नहीं दिया, वे चुपचाप दरवाज़े पर चमगादड़ से लटके फटेहाल पर्दे के किनारे को देखती खड़ी रहीं। बंशीधर ने पूछा “क्या बात है, भाभी जान, आपकी चुप्पी नाख़ुशी के साये में लिपटी है।”
बेग़म – “आप अपने दोस्त के अक्खड़ मिज़ाज और ज़िद से वाक़िफ़ ही हैं, उन्हें क़र्ज़ लेकर ज़िंदगी गुज़ारने में कोई परेशानी नहीं लेकिन किसी के नीचे काम करने में दिक्कत है। इतना काफ़ी नहीं था तो ऊपर से जुए और शराब की लत के खर्चे। क्या यह सब ठीक है?”
बंशीधर अपने दोस्त की आदतों को जानते थे, वे ज़मीन में आँखें गड़ाये खड़े रहे।
बेग़म थोड़ी देर रुककर बोलीं – “आप उनके बचपन के दोस्त हैं, दिल के मलाल आपसे भी न कहें तो किससे कहें, जब तक हमारे अब्बा मियाँ ज़िंदा थे, ज़्यादा दिक्कत नहीं थी।”
तभी मिर्ज़ा ग़ालिब पहले माले का दरवाज़ा खोलकर नमूदार हुए और बालकनी से नीचे झांकते हुए मुस्करा कर बोले : “बंशी, तुम फ़रियादी को सुन चुके हो तो इस आरोपी को ये बताओ कहाँ थे, इतने दिनों ?”
बंसीधर – “अच्छा, तुम तो जैसे रोज़ आगरा मिलने आते रहे हो। मैं तो चार महीनों में दो बार आ चुका हूँ।”
असद : “और हर बार यह सब लौकी भाजी क्यों भर लाते हो, भाई।”
बंसीधर: “तुम्हारे दिमाग़ की तर्ज़ पर साल के बारह महीनों तो आम नहीं बौराता न।”
बेग़म दोनों दोस्तों को घुलते देख पर्दे के पीछे गुम हो गईं। मिर्ज़ा ने बंशीधर को ऊपर आने का इशारा किया। बंशीधर सीढ़ी चढ़कर मिर्ज़ा से गले मिले। एक दूसरे के कंधों को पकड़ कर देर तक एक दूसरे को देखते रहे। दिलों की प्यास बरास्ते नज़र बुझाकर दोनों दीवान के दो छोर पकड़ मसनदों के सहारे एक दूसरे की तरफ़ मुँह करके बैठ गए। तब तक घर का नौकर कल्लू एक तश्तरी में भुने काजू-पिश्ता और रूह अफ़जा शरबत से भरे दो गिलास रख गया। शरबत की चुस्कियों के बीच यारों में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा।
बंशीधर – “यार असद, भाभी जान की बात पर ध्यान क्यों नहीं देते? वो सही कह रहीं हैं। थोड़ा समय घर के लिए भी निकाला करो, यार।”
असद – “बंशी, हमारा पहला बच्चा गर्भ में ही ख़त्म हो गया और दूसरा पैदाइश के कुछ ही महीनों में हमें छोड़ गया। वह ख़ुदा को मानने वाली जनानी है। हमेशा गोद भरने की अरदास में लगी रहती है। उसका मुरझाया चेहरा मुझ से नहीं देखा जाता है। उसकी आँखों में उठता ग़म का समंदर मेरे अंदर तूफ़ान खड़ा कर देता है।”
बंशीधर – “और तुम्हारी कमाई का कोई ज़रिया बना कि नहीं?”
असद – “कहीं नौकरी का कोई ज़रिया बनता नहीं दिखता। फ़िरंगी क़िले के ओहदेदारों तक की तनख़्वाह और बादशाह तक का वज़ीफ़ा कम करते जा रहे हैं इसलिए क़िले पर भी कोई उम्मीद बर नज़र नहीं आती। फिरंगियों से मिलने वाली पेंशन रुकी या कहो अंग्रेज़ी हुकूमत के खातों में जमा हो रही है।”
बंशीधर – “यार, फिर तुम्हारा समय कैसे कटता है?”
असद – “यार, दिन का कुछ समय चाँदनी चौक पर हाजी मीर की दीनी-इल्मी-अदबी किताबों की दुकान पर सफ़े पलट कर बिताता हूँ, लौटते समय कुछ जुआरियों के अड्डों पर दाव लगते और चाल चलते देखता हूँ। तुम तो जानते हो कि मैं बचपन से ही दाव बड़े बेहतरीन लगाता हूँ। एक दिन मेरा भी दाव ज़रूर लगेगा, तब मैं सारी रक़म समेट बेगम का दामन भरकर उनकी बलैयाँ लूँगा।”
बंशीधर – “यार, मैंने सोचा था कि जब तुम्हारे ससुर का देहांत हुआ था तब तुम दिल्ली छोड़कर आगरा का रुख़ करोगे, वहाँ कुछ न कुछ व्यवस्था हो जाती। लेकिन तुम दिल्ली में ही रम गए।”
मिर्ज़ा मसनद पर गर्दन टिकाए कुछ देर सोचते रहे फिर बोले:-
“है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ‘असद’,
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खाएँगे क्या?”
(अब तो इस शहर से प्रेम करने वाले दुःख की इंतिहा पल रही है। माना कि दिल्ली में रहकर क्या खाएँगे?)
थोड़ी देर बाद ख़ादिम कल्लू दीवान के सामने दस्तरखान बिछा कर दोपहर का खाना ले आया। रोटियों के ढ़ेर के साथ मटनकरी, कबाब, दाल और पीले रंग में पके चावल खाते-खाते दोनों दोस्त एक घंटा बतियाते रहे, फिर बंशीधर दीवान पर और मिर्ज़ा सामने के कमरे में आराम फ़रमाते ऊँची आवाज़ में बातें करते नींद के झोंके में समा गए।
शाम पाँच बजे दोनों दोस्त उठे। तह किए कपड़े निकाले, इत्र फुलेल से रंग-ओ-बू हो घर से निकल कर गली क़ासिम पर चलते हुए बल्लीमाराँ रास्ते से दाहिनी तरफ़ चाँदनी चौक तरफ़ मुड़ गए। आसमान में हल्की धुँध के साये को मुँह चिढ़ाती रंग बिरंगी पतंगे इठला रही थीं। जामा मस्जिद की मीनारों से मगरिब की अज़ान बुलंद हो रही थी। चलते-चलते सामने मुग़लिया शान का प्रतीक लालक़िला दिखने लगा। मिर्ज़ा को लालक़िला निहारते देख बंशीधर बोले, इसी क़िले की महफ़िल में पहुँचना तुम्हारा ख़्वाब है न, असद।
असद ने हाँ में सर हिलाकर अपनी छड़ी से ज़मीन को सहलाया। दोनों दोस्त चाँदनी चौक पर गर्मागरम केसरिया जलेबियों का रस यारी की चाशनी में लिपटी ऊँगलियों को चाटते रहे, फिर बग़ल वाले दही-बड़े वाले से पाँच-पाँच मुलायम गुल्ले गले के नीचे उतार, यारों का सफ़र वापस क़ासिम गली की तरफ़ मुड़ गया।
दूसरे दिन सुबह कोचवान बिद्दु मियाँ घोड़ागाड़ी सहित मिर्ज़ा के दरवाज़े पर हाज़िर था। दोनों दोस्त नाश्ता निपटाकर मोटे किवाड़ों के कोने खिसकाकर बाहर आए।
असद दोनों हाथ बंशीधर के कंधों पर रखकर बोले – “यार, ऐसे ही आ ज़ाया करो लाला।”
बंशीधर : “यार, आगरा भी कोई समंदर किनारे नहीं है, मैं तो छै महीनों में तशरीफ़ ले ही आता हूँ। तुमको तो एक अरसा हुआ आगरा में नमूदार हुए। एक मुद्दत हुई तुम्हें मेह्मां किए हुए। हाँ, तुम्हारी यह रक़म तुम्हारे छोटे भाई को पहुँचा दूँगा।”
असद – “हाँ! उसे भी देखे एक अरसा हो चला है। यहाँ दिल्ली में गुज़ारे का ज़रिया ज़म जाए, तो आगरा आऊँगा।”
बंशीधर – “असद, एक बात कहूँ बुरा न मानना। ईश्वर की कृपा से मेरी माली हालत बहुत अच्छी है। मैं कुछ रक़म लाया हूँ। तुम्हारा इंतज़ाम होने तक रख लो, बाद में लौटा देना।”
असद – “छोड़ यार, तुझसे पतंग-हिचका-धागे के वास्ते बचपन में रुपए उधार लिए थे, वे अभी तक मयसूद न जाने कितने चढ़ चुके होंगे। इतना मत कर कि वक्त-ए-रूखसत जनाजा इतना भारी हो जाए कि पालकी बरदार उसे उठा भी सकें, और फिर बाज़ार के सूदख़ोरों का धंधा चौपट करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।”
बंशीधर – “जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, बात तुम्हारी ख़ुद्दारी की है, मैं जानता हूँ, तुम बचपन से ऐसे ही हो।”
गले मिलकर दोनों दोस्त बिदा हुए। आँखों से ओझल होने तक एक दूसरे को देखते रहे।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
शानदार अभिव्यक्ति