श्री सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है।
ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है तीसरी प्रेमकथा – गढ़चिरौली की रूपा। )
☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #3 – गढ़चिरौली की रूपा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
कैलाश मेश्राम की स्टेट बैंक के भोपाल स्थित स्थानीय कार्यालय में पदस्थी के दौरान सुरेश से हुई मुलाक़ात मित्रता में बदल गई। कुछ समय बाद कैलाश की पदोन्नति सहायक महाप्रबंधक की श्रेणी में होने के साथ उनका तबादला अंकेक्षण (Audit) विभाग में हो गया। दोनों पर्यटन के शौक़ीन थे इसलिए कैलाश जहाँ भी आडिट करने जाते वहाँ उनको घूमने-फिरने बुलाते। अनेकों बार कार्यक्रम बनता परंतु किन्ही कारणों से परवान न चढ़ता था। नवम्बर 2020 के पहले हफ़्ते में कैलाश को आडिट हेतु पंद्रह दिन गढ़चिरौली में रहना था। उन्होंने उनको गढ़चिरौली भ्रमण हेतु आमंत्रित किया।
सुरेश ने गढ़चिरौली के वनीय वैभव, गोंडी-तेलुगु-मराठी लोगों की मिलीजुली जीवंत संस्कृति, बाबा आमटे के पुत्र प्रकाश आमटे एवं उनकी पत्नी मंदाकिनी आमटे द्वारा पलकोटा, वेडिया और इंद्रावती नदियों के त्रिवेणी संगम पर स्थापित लोक बिरादरी सेवा आश्रम, अल्लापल्ली के प्रसिद्ध सागौन वन क्षेत्र और मार्क्सवादी नक्सल आतंकवाद के मायके के नाम से मशहूर कमलापुर वनक्षेत्र के बारे में सुन रखा था। गढ़चिरौली भ्रमण की बड़ी पुरानी इच्छा कुलबुला उठी। वह 09 नवम्बर 2020 को कार के टैंक में सिरे तक पेट्रोल भराकर सुबह छः बजे भोपाल से गढ़चिरौली के लिए निकल गया।
उसने ठंडी हवा के झोंकों से बतियाते हुए जैसे ही अब्दुल्लागंज पार किया विंध्याचल पर्वत के सुहाने दृश्य और ताज़ी हवा के झोंकों ने मन मोह लिया लेकिन वह प्रसन्नता अधिक देर नहीं टिकी रह सकी क्योंकि आगे आठ-दस किलोमीटर लम्बा धूल भरा ट्रैफ़िक जाम उसका स्वागत करने को तैयार था। वाहन फ़र्स्ट ग़ैर में घिसटते-घिसटते एक घंटे का रास्ता तीन घंटों में पूरा कर इटारसी पार करके केसला और पथरौटा से गुज़र कर शाहपुर पहुँचने ही वाला था कि सतपुड़ा की लुभावनी हरीतिमा को छूकर आए हवा के झोंकों ने उसकी तबियत खुश कर दी। पता चला कि बैतूल ज़िला लग चुका है। हरे भरे पहाड़ों से घिरे एक ढ़ाबे पर मुँह-हाथ धोकर घर से लाया टिफ़िन ख़ाली करके पेट में भरा और वहाँ पड़ी खटिया पर पटिया को सिरहाना बनाकर लेट गया। लेटते ही दिमाग़ में बैतूल ज़िले की भौगोलिक संरचना और बसावट के विचार तरंगित होने लगे।
बैतूल समुद्र तल से 2,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित वनों और जैव विविधता से समृद्ध क्षेत्र है, जिस कारण यहाँ जलवायु पूरे वर्ष सुखद व मनमोहक बनी रहती है। यह सतपुड़ा रेंज के मैदानी इलाकों में स्थित होने से धूल भरे शहर के जीवन से अलग एक सुखद, शांतिपूर्ण भ्रमण हेतु उपयुक्त स्थान है। बैतूल ज़िला मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 180 किलोमीटर दूर छिंदवाड़ा, नागपुर, खंडवा, होशंगाबाद, हरदा जिलों की गोद में सतपुड़ा पर्वत के दक्षिणी पठार से नागपुर की तरफ़ फैले मैदान तक फैला हुआ है। उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, बैतूल क्षेत्र बदनूर का इलाक़ा के नाम से जाना जाता था। इस स्थान और ज़िले का वर्तमान नाम इसके दक्षिण में लगभग 5 किमी की दूरी पर बसे एक छोटे से शहर बैतूल-बाजार के कारण पड़ा है। लेकिन बैतूल शब्द कहाँ से आया? बैतूल का शाब्दिक अर्थ होता है “बिना बाढ़” का। इस क्षेत्र के चारों तरफ़ कपास की खेती बहुतायत से होती थी। किसानों ने यहाँ भी कपास लगाना शुरू किया लेकिन यहाँ की ज़मीन पथरीली और जलवायु नम होने से यहाँ कपास का पौधा बढ़ता (तूल) नहीं था। जैसे “बातों को तूल न देना” याने न बढ़ाना एक मुहावरा है। वैसे ही कपास के पौधों का न बढ़ना बैतूल हो गया। वहाँ आदिवासियों की छोटी हाट लगती थी जिसे बैतूल बाज़ार पुकारा जाने लगा। उन्नीसवी सदी में उड़ीसा और छत्तीसगढ़ फ़तह करके लौटते वक्त चौथ-सरदेशमुखी वसूली हेतु बिरार का इलाक़ा शिवाजी के वंशज राघोजी भोसले को सौंपा गया था। मराठा साम्राज्य विखंडन होने पर अंग्रेजों ने बैतूल को राजस्व तालुक़ा बना दिया। 1822 में जिला मुख्यालय को वर्तमान स्थान पर स्थानांतरित कर दिया गया, तभी से स्थानीय बोली में बदनूर इलाक़ा बैतूल के नाम से जाना जाने लगा।
अमरावती जिले में हाटीघाट और चिकलदा पहाड़ियों के किनारे ताप्ती की सहायक नदियाँ मोरंड और गंजल बैतूल ज़िले की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा निर्धारित करती हैं। मोरंड नदी और ढोढरा मोहर रेलवे स्टेशन के आगे से तवा नदी ज़िले की उत्तरी सीमा बनाती हैं। पूर्वी सीमा छोटी नदियों और पहाड़ियों से गुलज़ार हैं। जिनमें से खुरपुरा और रोटिया नाला बरसात के दिनों में बादलों से ढँके अनेकों प्रपातों का निर्माण करते हैं। गोंड, कोरकु, भरिया, कुर्मी, कुनबी, मेहरा और चमार इस ज़िले के मुख्य निवासी हैं। क़रीब आधा घंटा आराम के बाद पुनः यात्रा शुरू करके शाम को पाँच बजे के आसपास नागपुर शहर के मकान दिखने लगे। इतिहास की इन अठखेलियों से विचरते हुए भोपाल से नागपुर की 350 किलोमीटर यात्रा पूरी हो चुकी थी। नागपुर से चंद्रपुर 160 किलोमीटर और चंद्रपुर से गढ़चिरौली 80 किलोमीटर यानि कुल 590 किलोमीटर अच्छी-बुरी सड़क से यात्रा तय करके रात्रि नौ बजे गढ़चिरोली गेस्ट हाऊस में जाकर गरम पानी से नहाकर खाना खाया और ग्यारह बजे पलंग पर लिहाफ़ में घुसते ही नींद ने आ दबोचा।
उन्होंने अगला पूरा दिन गढ़चिरोली भ्रमण में बिताया। दूसरे दिन सुबह उठकर गढ़चिरौली ज़िले की अहेरी तहसील में स्थित सघन सागौन वन की सैर को निकल गए। गढ़चिरौली जिला महाराष्ट्र के उत्तरी-पूर्वी कोने में स्थित है। यह पश्चिम में चंद्रपुर, उत्तर में गोंदिया, पूर्व में छत्तीसगढ़ राज्य के दुर्ग, राजनांदगाँव, बस्तर और जगदलपुर ज़िले और दक्षिण पश्चिम में तेलंगाना राज्य के करीमनगर और आदिलाबाद जिलों से घिरा है। गढ़चिरौली आदिवासी ज़िला है। मुख्य निवासी गोंड और माडिया आदिवासी समुदाय के लोग है। यहाँ 1972 में बंगाली समुदाय के शरणार्थी पुनर्वास करके बसाए गए हैं।
प्राचीन काल में इस क्षेत्र पर राष्ट्रकूट, चालुक्य, देवगिरि के यादव और बाद में गढ़चिरौली के गोंडों का शासन था। 13 वीं शताब्दी में खांडक बल्लाल शाह ने चंद्रपुर की स्थापना की और इसे अपनी राजधानी बनाया। चंद्रपुर बाद में मराठा शासन में आया। 1853 में, बरार जिसमें चंद्रपुर (जिसे चंदा कहा जाता था) का हिस्सा भी था, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया था। 1854 में चंद्रपुर सेंट्रल प्राविन्स एंड बेरार का एक स्वतंत्र जिला बन गया। लॉर्ड कर्ज़न की राज्य पुनर्गठन योजना के अंतर्गत 1905 में अंग्रेजों ने चंद्रपुर और ब्रम्हपुरी से एक-एक जमींदारी संपत्ति का हस्तांतरण करके गढ़चिरौली तहसील बनाई। यह 1956 तक सेंट्रल प्रांत का हिस्सा था, जब राज्यों के पुनर्गठन के साथ, चंद्रपुर को बॉम्बे राज्य में स्थानांतरित कर दिया गया था। 1960 में, जब महाराष्ट्र बनाया गया, चंद्रपुर नए राज्य का एक जिला बन गया। गढ़चिरौली जिले का गठन 26 अगस्त 1982 को चंद्रपुर से गढ़चिरौली और सिरोंचा तहसीलों को अलग करके किया गया था। गढ़चिरौली में नक्सलवाद की जड़ें जमी हैं। जिसमें छापामार लड़ाके पहाड़ियों और घने जंगलों में रहते हैं और इसे रेड कॉरिडोर के हिस्से के रूप में नामित किया गया है।
गढ़चिरौली से तेलंगाना राज्य की सीमा पर दक्षिण दिशा में अल्लापल्ली नाम का वन आच्छादित गाँव है। अल्लापल्ली आमतौर पर गोंडवाना गांव है, लेकिन अब, कई लोग शिक्षा, व्यवसाय और जीविका कमाने के उद्देश्य से वहां आ बसे हैं। अल्लापल्ली के जंगल विश्व प्रसिद्ध सागौन की लकड़ी के ख़ज़ाने हैं। अल्लापल्ली से परमिली-भामरागढ़ रोड पर 07 किलोमीटर दूर 100 साल पहले वैज्ञानिक प्रबंधन के तहत मूल जंगल के रूप में संरक्षित ‘ग्लोरी ऑफ अल्लापल्ली’ वन पारिस्थितिकी के एक जीवित संग्रहालय के रूप में प्रसिद्ध है। जहाँ पर 500 वर्ष पुराने सागौन के 120 फ़ुट ऊँचे पेड़ मौजूद हैं। जिसे आज सागौन कहा जाता है वह साग का पेड़ है, एक जगह पर बहुत अधिक संख्या में साग के पेड़ होने से उसे सागवन पुकारा जाने लगा, वही सागवन कालांतर में सागौन हो गया।
पहले अल्लापल्ली हैदराबाद के निज़ाम के नियंत्रण में था। बाज़ीराव ने मराठवाड़ा को जीतकर नियंत्रण में लिया तब इस इलाक़े को नागपुर के राघोजी भोसले के अधीन रख दिया। इसलिए अल्लापल्ली तहसील की जनसंख्या मुख्यतः तेलुगु भाषी है लेकिन गावों में गोड़ों की बसावट है। वर्तमान में अल्लापल्ली महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले की तहसील ऐटापल्ली का एक ब्लॉक है।
फ़ारेस्ट रेंज आफ़िसर गणेश लाँड़गे ने बताया कि जिस गेस्ट हाऊस में हम रुके हैं वह अंग्रेजों द्वारा 1910 में बनाया गया था। अल्लापल्ली से 130 किलोमीटर दक्षिण दिशा में हत्थी केम्प बनाया गया है। लकड़ी उठाने और ढ़ोने के लिए कुछ हाथी आसाम के काज़ीरंगा पार्क से लाए गए थे। मशीनीकरण से बेरोज़गार हाथियों को सेवानिवृत्त करके एक पहाड़ी इलाक़े में रखा गया है। जहाँ उन्हें सप्ताह में दो बार चावल गुड घी और केलों का भोजन कराने हेतु एक तालाब के बीच बने हत्थी केम्प में लाया जाता है। उनके पैरों में लोहे की मोटी ज़ंजीर बांधी गई है जिनके घिसटने से भूमि पर बनने वाले निशानों से वनरक्षक उनकी गतिविधियों पर नज़र रखते हैं और भोजन के दिन उन्हें हाँका लगाकर हत्थी केम्प लाते हैं। सबसे वयोवृद्ध हथिनी का नाम रूपा है, उसकी उम्र अस्सी साल बतायी जाती है। अल्लापल्ली की पुरानी हथिनी बसंती वहाँ के सबसे पुराने हाथी महालिंगा के संसर्ग से बच्चा नहीं दे रही थी इसलिए रूपा को हाथियों की संख्या बढ़ाने हेतु नागझिरा से अल्लापल्ली लाया गया। रूपा के पहुँचने से बसंती के कान खड़े हो गए। उसने महालिंगा पर कड़ी नज़र रखना शुरू कर दिया। दूसरी तरफ़ बसंती रूपा को चिंघाड़ कर चुनौतीपूर्ण धमकी देने लगी। एक दिन महालिंगा नज़र बचाकर रूपा के नज़दीक पहुँच सूँड़ से प्रेम का इज़हार करने लगा तो बसंती क्रोध से उफनते हुए रूपा पर टूट पड़ी। उसे धमकाकर घने जंगल में पहुँचा कर ही दम लिया। इस घटना के बाद वन अधिकारियों ने रूपा को तालाब की दूसरी तरफ़ आधे किलोमीटर लम्बी ज़ंजीरों से बांधकर वहीं उसके भोजन का इंतज़ाम कर दिया ताकि बसंती के दाम्पत्य जीवन में व्यवधान उत्पन्न न हो।
रूपा को अल्लापल्ली जंगल में बच्चे पैदा करके हाथियों की वंशवृद्धि का उद्देश्य पूरा न होते देख वन अधिकारियों ने केरल और आसाम से पशु विशेषज्ञ बुलाकर बसंती को एक साल तक कुछ इंजेक्शन दिए तो वह गर्भवती हुई और उसने बीस महीनों के बाद एक बच्चा जना, जिसका नाम प्रसिद्ध फ़िल्मी खलनायक अजीत के नाम पर रखा गया। बदली हुई परिस्थितियों में यह विचार करके कि शायद माँ बनने के बाद बसंती अब महालिंगा से रूपा को गर्भवती होने देगी। रूपा को उसके नज़दीक लाने की कोशिश की लेकिन बसंती ने अपनी मातृ सत्तात्मक पकड़ ज़रा सी भी ढ़ीली नहीं की। रूपा फिर एक बार मायूस हुई। कुछ सालों बाद अजीत जवान हो गया। रूपा की निगाह अजीत पर पड़ी। उसे भरोसा था कि बसंती अपने बच्चे अजीत के समागम से प्रजनन नहीं करेगी तो अजीत अंततोगत्वा उससे संसर्ग करेगा क्योंकि उस इलाक़े में उसके अलावा कोई और मादा नहीं है। बसंती को रूपा के इरादे भाँपते देर न लगी। अजीत भी अकसर भागकर रूपा के आसपास मँडराने लगा। जब अजीत उठाव पर आया तो बसंती ने उसके संसर्ग से एक और बच्चा दिया जिसका नाम एक अन्य फ़िल्मी विलेन रंजीत के नाम पर रखा गया। रूपा फिर एकबार मायूस हुई। बसंती का पुराना साथी महालिंगा उम्रदराज़ होकर मरा तब रूपा बसंती के परिवार को सांत्वना जताने आई परंतु बसंती ने उसे आते देख मुँह फेर लिया। अब रूपा ने हालात से समझौता करके जीना सीख लिया है, वह अकेली रहती है। हत्थी केम्प पहले आकर और भोजन करके चली जाती है। बसंती सपरिवार दूर खड़ी उसके चले जाने का इंतज़ार करती है। उसके जाने के बाद अपने परिवार को लेकर भोजन कराने आती है। मनुष्यों की तरह पशुओं में भी सौंतिया डाह के संघर्ष होते हैं।
हत्थी केम्प से लौटते समय मस्तिष्क में विचार आया कि पुरानी बाइबिल में लिखी अब्राहम, साराह और हागार की कहानी के पात्र महालिंगा, बसंती और रूपा के रूप में देखकर वापस लौट रहे हैं। अब्राहम पत्नी साराह और सेविका हागार के साथ दजला-फ़रात के मैदान में बसे कन्नान में रहते थे। साराह को बच्चे नहीं हो रहे थे इसलिए उसने अब्राहम से परिवार बढ़ाने के लिए सेविका हागार से बच्चा पैदा करने को कहा। अब्राहम और हागार से इस्माइल का जन्म हुआ। उसके बाद अब्राहम और साराह का भी एक बच्चा इशाक नाम का हो गया। सुंदर सेविका हागार का बच्चा बड़ा होने से साराह में सौंतिया डाह विकसित हुआ तो वह हागार और इस्माइल पर अत्याचार करने लगी। हागार पीड़ित होकर इस्माइल को लेकर अरब देश में मक्का पहुँची जहाँ इस्माइल के वंश में मुहम्मद का जन्म हुआ था जिन्होंने इस्लाम धर्म चलाया।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈