सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ 🌹 गुलाबों की खेती 🌹 ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

– कोटि कोटि दीप जलते हैं

सुबह की पलकों पर

स्वप्न पलते हैं

अनगिनत–‘-

कल्पना के नीड़ में,

हाथ उठते हैं प्रार्थनाओं के लिए

अनवरत——

ब्रह्माण्ड की तरंगें

गुलाबों में तब्दील होती रहती हैं ।

इतनी सारी खुशबुएं

फिर भी नहीं पहुंच पातीं

मौत के सौदागरों तक—-

जो बारुद की फसलें उगाते हैं

बेगुनाहों के लहू से

श्रृंगार करते हैं

दानवी लिप्सा का !

उन्हें कोई तो समझाए

गुलाबों की खेती बेहद मुनाफेवाली है !

थोड़ी सी मशक्कत

और अपने हाथ

महकने लगते हैं

समूची कायनात के साथ !!!!

 

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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