इन्दिरा किसलय
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “स्नेहगंधा माटी मेरी” (काव्य संग्रह)– श्री केशव दिव्य ☆ चर्चाकार – सुश्री इन्दिरा किसलय ☆
पुस्तक – स्नेहगंधा माटी मेरी
कवि – श्री केशव दिव्य
प्रकाशक – बुक्सक्लिनिक पब्लिशिंग, बिलासपुर (छ ग)
मूल्य – 150/- रुपए
समीक्षक – सुश्री इन्दिरा किसलय
☆ स्नेहगंधा माटी मेरी – “संवेदना की अविकल छवि” – इन्दिरा किसलय ☆
अपनी माटी की गंध को पूरी ईमानदारी से शब्दों के हवाले करते हुये कवि केशव दिव्य कहने पर विवश कर देते हैं कि “कला, कला के लिये नहीं, जीवन के लिये होती है।”
छत्तीसगढ़ का अनिंद्य वन-वैभव, खेत, वादियां, मजदूर किसान, सभी के आँगन में पूरी निष्ठा से उतरी है उनकी संवेदना।आंचलिक सन्दर्भ, संज्ञाएं, दृश्य, भाषा बोलियां अपनी माटी से प्रतिश्रृत हैं।
नयी सदी के नवालोक में तकनीकी नवाचारों से लदी फँदी, बिंब बोझिल, बुद्धिवादी कविताओं की भीड़ में उनकी कविताएं नितान्त नैसर्गिक हैं।भाव एवं शिल्प दोनों दृष्टियों से द्रविड़ प्राणायाम नहीं करवातीं। वे सच्चे जनवादी के रूप में पाठकों के सम्मुख हैं।
कवि केशव दिव्य
ऐसा नहीं कि सर्वहारा की पीर ही व्यंजित हुई है, उसी के बरक्स समकाल के विकराल सवाल भी उनकी कविता को अग्निधर्मा बना रहे हैं। अगर भोगवादी व्यवस्था पर अंकुश न रहा तो “पृथ्वी नष्ट हो जायेगी।”
कोरोनाकाल में मजदूरों के विस्थापन से जैसे “हाथ कटे शहर” छटपटा रहे हैं। तंत्र की विद्रूपताएं निरंतर टीसती हैं—
“लकड़बग्घा उठाता है सवाल/
कहाँ गये जंगल के सारे हिरण/
तभी ली किसी ने चुटकी/जनाब/पहले अपने खून से सने मुँह को तो कर लें साफ//-“
इसके खिलाफ जैसे जंगल भी आक्रोशित है – “पलाश और सेमल की /अगुआई में/आज जंगल भी/तमतमाया हुआ लगता है//-“
“क्रिया की प्रतिक्रिया” कविता में पर्यावरण ध्वंस का चित्र उपस्थित करने के लिये कवि ने हाथी के रूपक से काम लिया है।
अर्धसत्य का पीछा करते हुये जनमन से, वे कहना चाहते हैं “पिता”–आज मुझे लगता है/काश तुम मुझे/कलम के साथ/हल की मूठ फावड़ा और कुदाल भी पकड़ाए होते//-
“सच पूछो तो” एवं “क्या नाम दूँ” जैसी नर्म कोमल कविताएं भी हैं। स्नेहगंधा शीर्षक कविता, शहर के आकर्षण से उपजे भटकाव से मुक्त कर अपनी माटी की ओर लौटा लाती है।
“चिड़िया”– सुन्दर कविता है। वह मात्र प्रकृति गीत गाती है। वह साम्प्रदायिक नहीं है।
शब्दों से छिनते हुये मानी कवि को अपार तकलीफ पहुँचाते हैं। उनकी आकाशगामी पुकार सर्वत्र व्याप्त है– “छलछद्म की कारा से मुक्त करो हमें।”
वैश्विक आतंक की विस्फोटक आवाजों के बीच उनकी कलम वेणु का स्वर रोपती है–
“सारी फिज़ाओं में/बारूद की गंध नहीं/ फूलों की खुशबू बिखरे //”
कृति में — सोनहा किरण, अंजोर, कुरिया, पसिया पानी, खोंप, गौंटिया जैसे इलाकाई शब्द, कविता के शिल्प को, माटी की अस्मिता से जोड़ते हैं।
कवि ने सारे प्रतीक प्रतिमान प्रकृति से चुने हैं।त्वदीय वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पए।
लू शुन कहते हैं– “कवि को अपने खून से लिखना चाहिए।”
संग्रह की कविताएं इसका प्रमाण स्वयं देती हैं।
कवि – श्री केशव दिव्य
समीक्षक – सुश्री इंदिरा किसलय
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈