सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आजकल वे हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना स्वीकार किया है जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं । उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार : व्ही शांताराम पर आलेख ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 ☆
☆ व्ही शांताराम…1 ☆
शांताराम राजाराम वनकुर्डे जिन्हें व्ही शांताराम या शांताराम बापू या अन्ना साहब के नाम से भी जाना जाता है का जन्म 18 नवम्बर 1901 को कोल्हापुर रियासत के ख़ास कोल्हापुर में हुआ था। वे हिंदी-मराठी फ़िल्म निर्माता, और अभिनेता के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने ड़ा कोटनिस की अमर कहानी, झनक-झनक पायल बाजे, दो आँखें बारह हाथ, नवरंग, दुनिया न माने, और पिंजरा जैसी अमर फ़िल्म बनाईं थीं।
डॉ. कोटनीस की अमर कहानी हिंदी-उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी में निर्मित 1946 की भारतीय फिल्म है। इसकी पटकथा ख़्वाजा अहमद अब्बास ने लिखी है और इसके निर्देशक वी शांताराम थे। अंग्रेजी संस्करण का शीर्षक “द जर्नी ऑफ डॉ. कोटनीस” था। दोनों ही संस्करणों में वी शांताराम डॉ॰कोटनीस की भूमिका में थे। फिल्म एक भारतीय चिकित्सक द्वारकानाथ कोटनीस के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में जापानी आक्रमण के दौरान चीन में अपनी सेवाएँ दी थीं।
फिल्म ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी “एंड वन डिड नॉट कम बैक” पर आधारित थी, जो खुद भी डॉ.द्वारकानाथ कोटनीस के बहादुर जीवन पर आधारित है। डा. कोटनीस को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान येनान प्रांत में जापानी आक्रमण के खिलाफ लड़ने वाले सैनिकों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए चीन भेजा गया था। चीन में रहते हुए उन्होंने जयश्री द्वारा अभिनीत एक चीनी लड़की चिंग लान से मुलाकात की। उनकी मुख्य उपलब्धि एक विपुल प्लेग का इलाज ढूँढना थी, लेकिन बाद में वे स्वयं इससे ग्रस्त हो गए। वे एक जापानी पलटन द्वारा पकड़े भी गए, किंतु वहाँ से भाग निकले। आखिरकार बीमारी ने उनकी जान ले ली।
व्ही शांताराम कोल्हापुर में बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फ़िल्म कम्पनी में फुटकर काम करते थे। उन्हें 1921 में मूक फ़िल्म “सुरेखा हरण” में सबसे पहले काम करने का अवसर मिला। उन्होंने महसूस किया कि फ़िल्म सामाजिक बदलाव का सशक्त माध्यम हो सकता है। उन्होंने एक तरफ़ मानवता और मानव के भीतर अंतर्निहित अच्छाइयों को सामने लाते हुए अन्याय और बुराइयों का प्रतिकार प्रस्तुत किया, वहीं संगीत के प्रभाव से मनोरंजन का संसार रचा। सात दशक तक उनकी फ़िल्म संसार में सक्रियता रही। उनमें संगीत की समझ थी इसलिए वे संगीतकारों से विचारविमर्श करके कलाकारों से कई बार रिहर्सल करवाते थे। चार्ली चैप्लिन ने उनकी मराठी फ़िल्म मानूस की प्रशंसा की थी
उन्होंने विष्णुपंत दामले, के.आर. धैबर, एस. फट्टेलाल और एस. बी. कुलकर्णी के साथ मिलकर 1929 में प्रभात फ़िल्म कम्पनी बनाई जिसने नेताजी पालेकर फ़िल्म का निर्माण किया और 1932 में “अयोध्याचे राजा” फ़िल्म बनाई। उन्होंने 1942 में प्रभात फ़िल्म कम्पनी छोड़कर राजकमल कलामंदिर की स्थापना की, जो कि अपने समय का सबसे श्रेष्ठ स्टूडियो था।
शांताराम की सृजनात्मकता उनके प्रेम प्रसंगों और उनकी तीन शादियों से जुड़ी थी। उन्होंने 1921 में पहली शादी अपने से 12 साल छोटी विमला बाई से की थी। उनका पहला विवाह उनके बाद के दो विवाहों के वाबजूद पूरे जीवन चला, पहली शादी से उनके चार बच्चे हुए। प्रभात, सरोज, मधुरा और चारूशीला। मधुरा का विवाह प्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित जसराज से हुआ था।
शांताराम की एक नायिका जयश्री कमूलकर थी, जिनके साथ उन्होंने कई मराठी फ़िल्म और एक हिंदी फ़िल्म शकुंतला की थी, दोनों ने प्रेम में पड़ कर 22 अक्टूबर 1941 को शादी कर ली। जयश्री से उनको तीन बच्चे हुए, मराठी फ़िल्म निर्माता किरण शांताराम, राजश्री (फ़िल्म हीरोईन) और तेजश्री। शांताराम ने राजश्री को बतौर हीरोईन और जितेंद्र को हीरो के रूप में साथ-साथ “गीत गाया पत्थरों में” अवसर दिया था।
दो आँखे बारह हाथ, झनक-झनक पायल बाजे, जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली, सेहरा और नवरंग की नायिका संध्या के साथ काम करते-करते शांताराम और संध्या में प्रेम हो गया तो 1956 में उन्होंने शादी कर ली।
जब “झनक-झनक पायल बाजे” और “दो आँखे बारह हाथ” बन रही थी तब शांताराम के पास के सभी आर्थिक संसाधन चुक गए इसलिए उन्होंने विमला बाई और जयश्री से उनके ज़ेवर गिरवी रखकर बाज़ार से धन लेने माँगे। विमला बाई ने तुरंत अपने ज़ेवर निकालकर दे दिए, संध्या ने शांताराम की प्रेमिका और फ़िल्म की नायिका होने के नाते भी शांताराम के माँगे बिना अपने सभी ज़ेवर शांताराम को सौंप दिए लेकिन जयश्री ने अपने ज़ेवर दुबारा माँगने पर भी नहीं दिए। इस बात को लेकर शांताराम और जयश्री के सम्बंधों में खटास पड़ गई। जयश्री को जब बाद में संध्या द्वारा दिए गए ज़ेवरों के बारे में पता चला तो उसने कुछ ज़ेवर उसे देना चाहे लेकिन संध्या ने यह कहकर कि उसने ज़ेवर पहनना छोड़ दिया है, ज़ेवर लेने से मना कर दिया।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश