सुश्री इन्दिरा किसलय
☆ लघुकथा ☆ “चीनी और मैंगो मैन…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆
— ‘सुनिए!बाजार जा रहे हैं। जरा 5 किलो चीनी लेते आना !’ — महिमा ने निशान्त से कहा।
— ‘क्या चीनी चीनी लगा रखा है। गुड़ खाओ गुड़।’
— ‘देखिए ये दिखने दिखाने का जमाना है। गुड़, गंवई है। भौंडा है। चीनी कैसी सुदर्शना, गोरी गोरी, चिकनी, चमकीली और दानेदार होती है।’
— ‘फिर चीनी। अरे बाबा शक्कर नहीं तो शर्करा कहो न।’
— ‘चीनी क्या कह गई आप तो लाल बंबोड़े जैसे काट खाने को दौड़ पड़े। शब्दों का काला जादू तुम भी सीख गये। जिसने ” चीनी कम” फिल्म बनाई उसे भी कुछ कहो। अब बढ़िया केले को “चीनीचंपा”और मूँगफली को “चीनीबादाम” न कहो तो मानूं। वैसे भी “शकर” फारसी शब्द है।’
— ‘अब तुम मुझे शब्दों का जुगराफिया समझाओगी ?’
— ‘तुम तो भनक गये। मैं तो बस इतना कह रही थी कि शब्दों में क्या रखा है ?’
— ‘क्या रखा है ! चतुष्पदी कुर्सियां और चतुर्मुखी मीडिया इसी की ताकत से लोकतंत्र के जनाजे को कंधा देने की तैयारी कर रहा है।’
— ‘निशांत तुम मेरे पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हो। दिन में सौ बार हाथ धोकर भी तुम्हारा जी नहीं भरा। मैं तो एक “आम इन्सान” (मैंगो मैन) हूं।’
— ‘आम आदमी ! सियासत ने उसे चूस चूसकर गुठली कूड़ेदान में फेंक दी है। हमें आम रहने देना भी उसे मंजूर नहीं।’
— ‘सच कहूं चीनी शब्द सुनते ही कलेजे में बहुत दर्द होता है महिमा ! मेरे 20फौजी जवानों के ताबूत आँखों के सामने आ जाते हैं।’ —-
© सुश्री इंदिरा किसलय
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈