श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ ‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब।) 

  दस्तावेज़ # 10 – ‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

मुझे तो लगता है कि आशुतोष गोवारिकर को ‘लगान’ फिल्म की पटकथा लिखने की प्रेरणा, जबलपुर के रांझी क्रिकेट क्लब से मिली होगी। फिल्म तो 2001 में बनी, यह क्लब उसके कई साल पहले स्थापित हो चुका था। यहां बहुत पहले से भुवन, भूरा, लाखन, गोली, देवा और कचरा जैसे पात्र, टीम में शामिल रहे हैं। वही उमंग, वही जज़्बा, बीच-बीच में थोड़ा असमंजस, लेकिन कुछ कर गुज़रने की ख्वाहिश इनके दिलों में भी रही है। न कोई साधन, न परंपरा, न राह दिखने वाला कोई इशारा। बस, कुछ करके दिखाना है।

ब्रिटिश काल से, जबलपुर आयुध और सेना का बहुत बड़ा केंद्र रहा है। दूर तक फैले, हरे-भरे मैदान, क्रिकेट के लिए अनुकूल थे। यहां पुराने समय से ही खूब क्रिकेट खेला जाता था। मुझे याद है, बहुत पहले, कैंटोनमेंट के गैरिसन ग्राउंड में सोबर्स, हॉल और ग्रिफिथ वाली वेस्ट इंडीज़ की टीम प्रदर्शन मैच खेलने आई थी। उनकी पेस बॉलिंग हैरतअंगेज़ थी। गेंदबाज बाउंड्री लाइन से दौड़ते हुए आते थे। गेंद दिखाई ही नहीं देती थी।

शहर से दूर, ऑर्डनेंस फैक्टरी के नज़दीक, छोटा-सा उपनगर रांझी, 1965-70-75 के समय उन्नींदा-सा रहता था। न कोई आवागमन के साधन, न कोई सुख-सुविधा। कुछ बच्चे रबर की गेंद से और कुछ बड़े लड़के कॉर्क की गेंद से क्रिकेट खेलते दिख जाते थे। इतवार के दिन छोटे-मोटे मैच भी हो जाते थे।

अजित वाडेकर की कप्तानी में, भारतीय क्रिकेट टीम 1971-72-73 में, पहली बार वेस्ट इंडीज़ और इंग्लैंड से उनकी धरती पर सिरीज़ जीतकर लौटी। टीम में गावस्कर, विश्वनाथ, इंजीनियर के साथ-साथ बेदी, प्रसन्ना, वेंकटराघवन और चंद्रशेखर भी थे। तत्पश्चात, कपिल देव के जांबाज़ों की टीम 1983 का इतिहास रचने के लिए तैयार हो रही थी। देशभर में ही क्रिकेट के प्रति उत्साह की लहर दौड़ रही थी।

रांझी में भी हलचल होना स्वाभाविक था। युवा क्रिकेट प्रेमी मोहन, सुभाष, विनोद, विजय, पटेल और जॉली ने चंदा इकट्ठा किया और सदर में सरदार गंडा सिंह की स्पोर्ट्स शॉप से बैट, स्टंप्स, पैड्स, ग्लव्स और कुछ गेंद लेकर आए। तब मैं बहुत छोटा था। मैदान के बाहर बैठकर सामान की रखवाली करता था और किसी न किसी दिन खेलने के सपने देखा करता था। विनोद लंब की खब्बू स्पिन गेंदबाज़ी देखकर बहुत आनंद आता था। यह पीढ़ी जल्दी ही दुनियादारी में लग गई। इसकी वजह से, एक खालीपन सा आ गया।

कुछ समय बाद, हम बल्ला थामने लायक हो गए थे। किसी ने बताया कि राइट टाऊन स्टेडियम में एन एम पटेल टूर्नामेंट होने जा रहा है, एंट्री ले लो। तब तक न टीम बनी थी, न हमारे पास क्रिकेट की किट थी, और न ही प्रैक्टिस हो पाई थी। बस ठान लिया कि मैदान में उतरना है। गुंडी (अजय सूरी) ने कमान संभाली और टीम तैयार होने लगी – चेतन, गुरमीत, गुंडी, जगत, बब्बी, अशोक, प्रदीप, बुल्ली (सुशील), थॉमस डेविड, अनिल वर्मा, काले (हरमिंदर), नीलू, और कभी एकाध और।

सरदार मेला सिंह का क्रिकेट के प्रति गहरा लगाव था। उनकी कोठी का प्रांगण रांझी क्रिकेट क्लब का अघोषित हेडक्वार्टर बन गया। वहीं लॉन में प्रैक्टिस शुरू हुई। ईंट से टिकी कुर्सी बनी स्टंप्स और मेला सिंह अंकल ने रंदा घिसकर टेंपररी बैट तैयार किया। गेंद रबर की। पहले हफ्ते में ही उनके घर के सब शीशे टूट चुके थे। जिस दिन अंकल खुश होते थे तो बाकायदा ड्रिंक्स ब्रेक में चाय नसीब होती थी। मेरे पास डॉन ब्रैडमैन की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ क्रिकेट’ की प्रति थी। हम यदाकदा उससे कुछ सीखने का प्रयास करते।

हमारे पास किट नहीं थी। फिर, खेलेंगे कैसे? तय हुआ कि यहां-वहां से जो भी सेकंड हैंड मिल जाए, इकट्ठा कर लो। पैड मिले तो काफी पुराने और जर्जर थे। उनकी हालत ऐसी थी कि पैड नहीं, बल्कि पैड का एक्स-रे दिखाई देते थे। दोनों पैरों के एक-एक बक्कल टूटे हुए थे। गुरमीत ने कीपिंग ग्लव्स ढूंढ लिए। चंदा करके हम बैट भी ले आए। बैट को तेल पिलाना शुरू किया और कपड़े में लिपटी पुरानी बॉल से स्ट्रोक बनाया। दो पुराने एब्डोमन गार्ड भी मिल गए, जिनमें सिर्फ प्लास्टिक वाला हिस्सा बचा रह गया था, कमर से बांधने वाली इलास्टिक बेल्ट उनमें नहीं थी। गार्ड को उसके नियत स्थान पर फंसाना पड़ता था। थोड़ी लज्जा भी आती थी। एक बैट्समैन आउट होकर वापस आ रहा है और दूसरा अंदर जा रहा है। बीच मैदान में, पूरे पब्लिक व्यू में, गार्ड और पैड का आदान-प्रदान होता था। कुछ सामान दूसरी टीम से उधार भी मांग लेते थे।

टूर्नामेंट में अन्य टीमें मजबूत और प्रोफेशनल थीं – एम एच क्लब (मोहनलाल हरगोविंददास), टोरनैडो, ऑर्डनेंस फैक्टरी, व्हीकल फैक्ट्री, गन कैरेज फैक्ट्री, गवर्नमेंट साइंस कॉलेज, और बाद में जहांगीराबाद। उनके खिलाड़ी दक्ष और अनुभवी थे – श्रवण पटेल (इंग्लैंड में प्रशिक्षित), सिद्धार्थ पटेल, आजाद पटेल, मुकेश पटेल, गोपाल राव, अशोक राव, पंडित, अलेक्ज़ेंडर थॉमस, साल्वे, पम्मू, और अन्य।

एन एम पटेल टूर्नामेंट का हमारा पहला फिक्सचर, व्हीकल फैक्टरी से तय था। उनकी टीम सशक्त थी और खिलाड़ी अनुभवी थे। हमारा कोई इतिहास नहीं था, बस वर्तमान था, और हम भविष्य का निर्माण करने निकले थे। मैदान में उतरे तो किसी के कपड़े सफेद थे, किसी के क्रीम, किसी के बादामी। क्रिकेट शूज़ एक दो खिलाड़ियों के ही पैरों में थे। लेकिन खेल शुरू होते ही हमने पूरी तरह फोकस किया। उस दिन गोपाल की लेफ्ट आर्म स्पिन और मेरी मीडियम पेस गेंदबाजी चल निकली। सबको आश्चर्य हुआ जब हमने उन्हें बहुत कम स्कोर में निकाल लिया। हमारी बैटिंग की बारी आई तो चेतन ने ओपनिंग बल्लेबाजी करते हुए, ऑफ स्टंप के बाहर की गेंदों पर बेहतरीन फ्लैश लगाए। गुरमीत ने एक छोर संभाले रखा और गुंडी ने, मिडिल ऑर्डर में, कप्तान की पारी खेली। हमें भारी जीत हासिल हुई और अगली सुबह ‘नवभारत’ अखबार में हमारा और रांझी क्रिकेट क्लब का नाम आया। बहुत अच्छा लगा।

क्रिकेट जीवन को जीने की कला है। वह हमें जीत और हार को, खिलाड़ी भावना के साथ, समभाव से स्वीकार करना सिखाती है। अगला मैच हमारा गवर्नमेंट साइंस कॉलेज से था। हम हार गए और टूर्नामेंट से बाहर हो गए। फिर भी, हमारी टीम की थोड़ी-बहुत साख तो बन ही गई थी और हमें समय-समय पर मैच खेलने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। हम बाकायदा खेलने जाते, अच्छा प्रदर्शन करते, और जो दिन हमारा होता उस दिन शहर की किसी भी टीम को पराजित कर देते। अजय सूरी (गुंडी) के हम विशेष रूप से कृतज्ञ हैं कि शून्य से शुरू कर, वो टीम को बहुत आगे तक ले गए। शांत व्यवहार, होठों पर सदैव मुस्कान, धैर्य, और हम सब पर अटूट विश्वास था उनका। उन्हें मालूम था, एक-दो मैच हारेंगे, फिर जीतेंगे भी। हमारी टीम के कई खिलाड़ियों में बहुत प्रतिभा थी। हमारे पास अपना ग्राउंड होता, कुछ साधन होते, और कोई मार्गदर्शक होता तो हम क्या नहीं कर सकते थे!

तब तक हमने हनुमंत सिंह, सलीम दुर्रानी, जगदाले और गट्टानी को अनेक बार रणजी में खेलते देखा था। 1977-78 के आसपास, राइट टाउन स्टेडियम में, चंदू सरवटे बेनिफिट मैच हुआ तो बहुत सारे खिलाड़ियों को खेलते देखा – गावस्कर, बेदी, संदीप पाटिल, मोहिंदर अमरनाथ, सुरिंदर अमरनाथ, मदन लाल, अशोक मांकड, धीरज परसाना, और अनेक अन्य। उस मैच में, हमारा अपना, सी एन सुब्रमण्यम भी खेला, जो शहर का बहुत ही होनहार खिलाड़ी था लेकिन किन्हीं कारणों से शिखर तक नहीं पहुंच सका। अब केवल उसकी स्मृतियां शेष हैं। जबलपुर में पुराने समय से ही खूब क्रिकेट खेला जाता है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ियों का पहुंचना क्यों नहीं हो पाता?

लोग बताते हैं अब रांझी में बहुत कुछ बदल गया है। पहले हमें मैच के लिए नई गेंद लेने के लिए अंधेरदेव या सदर जाना पड़ता था। अब रांझी में स्पोर्ट्स का सारा सामान मिल जाता है। उत्सुकता है जानने की कि आजकल वहां क्रिकेट का क्या हाल है, कौन-कौन खेल रहा है, कौन से क्लब हैं, किन टूर्नामेंट्स में भाग लेते हैं और क्रिकेट प्रशिक्षण की क्या व्यवस्था है?

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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