श्री जगत सिंह बिष्ट
(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “जीवन का राग”।)
☆ दस्तावेज़ # 28 – जीवन का राग ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
एक ज़माना था जब ज़िन्दगी घड़ी की सुईयों से नहीं, सुरों की लय से चलती थी। वह समय कुछ यूं बीतता था जैसे कोई हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का आलाप—धीरे, शांत, मन को छूता हुआ। फिर जैसे-जैसे दिन चढ़ता, लय और ताल भी बदलती— विलंबित से द्रुत की ओर, ठहराव से गति की ओर।
तब दिन की शुरुआत होती थी राग अहीर भैरव और नट भैरव से, जिन्हें सरोद पर बड़े सलीके से प्रस्तुत करते थे उस्ताद अली अकबर खां साहब। उनके सुर कानों में नहीं, आत्मा में उतरते थे—मानो उजाले की पहली किरण दिल को छू जाए।
थोड़ी देर बाद, पंडित रविशंकर का सितार, जिसमें मिश्र पीलू राग के सुर झूमते थे। दोपहर अपने आप शांति ओढ़ लेती थी।
शाम को बांसुरी की बारी आती थी—पन्नालाल घोष की, और राग दरबारी की। उसमें एक शाही ठहराव था, एक गहराई, जो भीतर तक उतर जाती थी।
और जब दुनिया सो जाती थी, तब आता था राग सोहनी का जादू, संतूर पर पंडित शिवकुमार शर्मा के सुरों में। जैसे चांदनी रात में जल की सतह पर हल्की-हल्की लहरें नाच रही हों।
A Treasure Trove of Indian Classical Music – 1
मेरे पास एक अनमोल खज़ाना था—ग्रामोफोन रिकॉर्ड्स का। हर रिकॉर्ड जैसे कोई पुरातन मूर्ति। उन्हें छूना, देखना, बजाना—ये सब किसी साधना से कम नहीं था। डिस्क का घूमना, उसमें से उठता हुआ संगीत… समय मानो थम जाता था।
जब भी मैं चाहता—विलायत खां, बिस्मिल्लाह खां, वी जी जोग, इमरत हुसैन खां, अब्दुल हलीम जाफर खां, अमजद अली खां, हरि प्रसाद चौरसिया और बृजभूषण काबरा—सब मेरे लिए प्रस्तुत होते।
आज भी वह संग्रह मेरे पास है… लेकिन अब समय बदल गया है। भीतर कहीं एक हूक उठती है—काश, समय को पीछे ले जा पाता।
काश, एक बार फिर सुन पाता निर्मला देवी, हीरा देवी मिश्रा, गिरजा देवी, परवीन सुल्ताना, लक्ष्मी शंकर और शोभा गुर्टू की ठुमरियां—जिनमें श्रृंगार, विरह और राग की अनुभूति बसती थी।
शामें फिर से संगीतमय हो जातीं अगर मैं सुन पाता—पंडित जसराज, भीमसेन जोशी, किशोरी अमोनकर, प्रभा अत्रे और उस्ताद नासिर अमीनुद्दीन डागर की– स्वर साधना।
और सप्ताह के अंत में दोस्तों संग आयोजित करता महफिलें जिनमें होती—मेहदी हसन, बेग़म अख्तर, ग़ुलाम अली, मुन्नी बेगम, भूपिंदर, पंकज उधास, सलमा आगा, और जगजीत-चित्रा सिंह की– ग़ज़लों की मिठास।
कुछ यादें निर्गुण भजन गाने वाले कुमार गंधर्व की हैं—अलौकिक, पारलौकिक। कुछ मीरा के भजनों की हैं—वाणी जयराम की आवाज़ में, पंडित रविशंकर की धुनों पर। और फिर—‘दमादम मस्त कलंदर’—नूरजहां, रेशमा, रुना लैला, ग़ुलाम नबी और सईं अख्तर की आवाज़ों में। आत्मा क्यों न झूम उठे!
कभी-कभी मन करता है कि फिर से सुनूं—जे पी घोष का ड्रम्स ऑफ इंडिया, विजय राघव राव का फैंटेसी ऑफ इंडियन ड्रम्स, नय्यारा सिंग्स फैज़, और इक़बाल सिद्दीक़ी व वंदना बाजपेयी का जाम ओ मीना।
मन करता है मन्ना डे की आवाज़ में बच्चन की मधुशाला फिर से गूंजे, मुकेश की आवाज़ में सुंदरकांड, पंडित जसराज की सूर पदावली, मक़बूल अहमद साबरी का घुंघरू टूट गए, और प्रीति सागर की फन टाइम राइम्स, जो अपने बेटे को सुनाता था—सब लौट आएं।
कभी-कभी ‘संगम’ और ‘उमराव जान’ की प्रेमपूर्ण धुनें भी बुलाने लगती हैं।
दो रिकॉर्ड्स तो आत्मा में बस गए हैं— वेस्ट मीट्स ईस्ट (यहूदी मेनुहिन और रविशंकर), और साउथ मीट्स नॉर्थ (लालगुड़ी जयरामन और अमजद अली खां)। ये सिर्फ संगीत नहीं थे, ये संस्कृतियों का संगम थे।
मैं फ़िर से सुनना चाहता हूं: सावन भादों – मेलोडी ऑफ द रेंस – और बड़े ग़ुलाम अली खां की ठुमरी “आए न बालम”। सितारा देवी के साथ कथक की धुनों पर मैं फ़िर से थिरकना चाहता हूं और वैजयंतीमाला के साथ भरतनाट्यम की सौंदर्य यात्रा पर निकलने को मन करता है।
पूछता हूं मैं खुद से—क्या दुनिया में कोई और कला है जो इतनी सुसंगत, इतनी लयबद्ध, इतनी परिपूर्ण, इतनी आत्मशुद्धि देने वाली हो? क्या कोई संगीत इतना दिव्य हो सकता है?
अगर हम कुछ कर सकते हैं, तो वह यह है कि हम रुकें, सुनें, और फिर से जुड़ें—उस शास्त्रीय संगीत से जो आज भी जीवित है, हमारे भीतर। अपने जीवन को फिर से एक तानपुरे की तरह मिलाएं—कोमल, स्थिर, और पवित्र।
शायद तब… संगीत फिर लौट आए।
♥♥♥♥
© जगत सिंह बिष्ट
Laughter Yoga Master Trainer
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈