श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…”)

? ग़ज़ल # 40 – “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सरेशाम से सुहानी ख़ुशबू आने लगती है

उन्हें ज़िंदगी की हर चीज़ भाने लगती है,

 

जिसे कमाने बचपन ओ जवानी खपी है,

बूढ़ी देह इसीलिए सबको भाने लगती है।

 

चिकनी खोपड़ी पर बचा नहीं एक भी बाल,

नई कंघी बरबस सिर पर आने लगती है।

 

मधुमेह है तो क्या एक गोली और ले लेंगे,

चाशनी में तर गरम जलेबी आने लगती है।

 

सुबह सैर की सख़्त हिदायत देते हैं डॉक्टर,

कमबख़्त नींद तो मगर तभी आने लगती है।

 

दोस्तों के साथ गप्पों का मज़ा अल्हदा है,

गुज़रे ज़माने की यादें ख़ूब मायने लगती है।

 

भूलने लगे थे जवाँ जिस्म के सभी पहाड़े,

तब कायनात फिरसे याद दिलाने लगती है।

 

ख़स्ता हाल हो चुके देह के सभी कल पुर्ज़े,

आशिक़ के सामने माशूका शरमाने लगती है।

 

अब तो तौबा कर लो मयकशी से ए आदम,

साक़ी मगर ज़ाम के फ़ायदे गिनाने लगती है।

 

जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी गुज़र जायेगी,

क़ज़ा की आहट “आतिश” को सताने लगती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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