श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ संजय दृष्टि – मानस प्रश्नोत्तरी ☆
*प्रश्न:* चिंतित हूँ कि कुछ नया उपज नहीं रहा।
*उत्तर:* साधना के लिए अपनी सारी ऊर्जा को बीजरूप में केन्द्रित करना होता है। केन्द्र को धरती के गर्भ में प्रवेश करना होता है। अँधेरा सहना होता है। बाहर उजाला देने के लिए भीतर प्रज्ज्वलित होना होता है। तब जाकर प्रस्फुटित होती है अपने विखंडन और नई सृष्टि के गठन की प्रक्रिया।…हम बीज होना नहीं चाहते, हम अँधेरा सहना नहीं चाहते, खाद-पानी जुटाने का श्रम करना नहीं चाहते, हम केवल हरा होना चाहते हैं।…अपना सुख-चैन तजे बिना पूरी नहीं होती हरा होने और हरा बने रहने की प्रक्रिया।
…स्मरण रहे, यों ही नहीं होता सृजन!
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
हरापन और हरा रहना कठिन कार्य है। सृजनशीलता की प्रक्रिया भी कठिन ही है।कठोर साधना की आवश्यकता होती है।सुंदर मनन!
सच है,सृजनप्रक्रिया आसान नहीं होती ।
वृक्ष की छाया चाहिए तो पहले पौधा जरूरी है। पौधे के लिए बीज को जमीन के अंदर गाड़ना होता है।
बिना बीज भी कहीं पौधे पनपते हैं ।
बहुत ही सार्थक चिंतन????
सुंदर अभिव्यक्ति-सुख चैन खोए बिना रचना प्रक्रिया सफल नहीं होती।