श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बाल लीला और बचपन“।)
आप छोटे से बड़े हो सकते हैं, बालक से युवा हो सकते हैं, युवावस्था के पश्चात् वृद्ध भी हो सकते हैं, लेकिन वापस बालक नहीं बन सकते। विकास की यही मजबूरी है, विकास अब बड़ा हो गया है, बच्चा नहीं रह गया। बेचारा अबोध बालक विकास अपनी समस्त बाल लीलाएं, बाल क्रीड़ाएं भूल चुका है। विकास पहले वयस्क हुआ, और आज विकास बाबू बूढ़े हो गए हैं।
कहते हैं, बूढे और बच्चे एक जैसे होते हैं। लेकिन हमने तो सिर्फ बाल लीला का ही आनंद लिया है, क्या वृद्धावस्था क्रीड़ा और बाल लीला की उम्र है। एक अबोध बालक का कोई अतीत नहीं होता, उसकी स्लेट कोरी की कोरी है, वह नित्य, मुक्त है, उसका भविष्य अभी परमात्मा लिख रहा है, वह स्वयं आज आनंद मूर्ति है, साक्षात बाल कृष्ण है, अयोध्या में जन्मे कौशल्या के राम हैं। ।
ईश्वर की भी लीला देखिए, ज़रा जर्जर जरा, यानी किसी के बुढ़ापे की ओर देखिए, जहां सफेद बाल है, चेहरे पर झुर्रियां हैं, बीमारियों का अंदेशा है, अब विकास की कोई संभावना नहीं। इस अवस्था में लोग ईश्वर से क्या मांगते हैं, ययाति ने तो वापस जवानी ही मांगी थी। बेचारा भोला शायर निदा फ़ाज़ली वापस अपना बचपन मांगता है, खेल खिलौने और नानी की कहानी मांगता है।
कोई लौटे दे मेरे बीते हुए दिन ! बीते हुए दिन, वो मेरे प्यारे प्यारे दिन। लेकिन, जो चला गया, उसे भूल जा। कल, आज और कल की साइकिल के पैडल उल्टे मारने से, साइकिल पीछे नहीं चली जाती। ।
हम भी मनुष्य जीवन की तुलना केवल फलों के राजा आम से कर सकते हैं। आम की भी दो ही अवस्थाएं होती हैं, कच्ची कैरी अथवा अमिया और पका हुआ हापुस आम।
आम के आम, और गुठली के दाम, है ना हमारी भी सदाबहार अमराई। दूधों नहाओ और पूतों फलो वाला आशीर्वाद।
हम भी बूढ़े नहीं, हापुस, खुशबू वाले आम हैं, हमारी भी बड़ी कीमत है, आम की बहार जैसी ही तो है हमारी भी जिंदगी की बहार। आंधी तूफान, महामारी और कोराेना बहार को खिजां में बदल देती है। यही आम दस्तूर है। ।
विकास बाबू, अब आप क्या करोगे, अतीत में जाने से तो रहे, जवान भी होने से रहे, तो क्यों न जीवन कुछ चटपटा, रसीला और मसालेदार हो जाए। कभी आमरस, तो कभी आम का अचार और आम का ही पापड़। और हां, देखिए आप तो अब बच्चे भी नहीं बन सकते तो क्या करें।
बड़ा व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का दोहराया हुआ विचार है, क्यूं न किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए। अजी आप क्या किसी को हंसाओगे, एक बच्चा ही तो कल का लाफिंग बुद्धा है।
वही आज का परमानंद है।
बस किसी अबोध बालक की बाल लोलाओं में अपने आपको पूरी तरह डुबो दीजिए, वह आपसे कुछ नहीं मांगेगा, लेकिन उसके पास साक्षात परमानंद सहोदर है। बच्चा हमारा आपका नहीं होता, सगा सौतेला नहीं होता, बाल रूप में स्वयं साक्षात परम परमेश्वर होता है। बच्चे में है भगवान। ।
अरे अष्ट छाप के कवि सूरदास तो प्रज्ञा चक्षु थे, फिर भी उनका बालकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हमें चमत्कृत और भाव विभोर कर देता है। वे कृष्ण के प्रति बाल सखा भाव ला सकते हैं, तो क्या हम किसी साधारण शिशु के प्रति कृष्ण का भाव नहीं ला सकते। सभी बाल गोपाल ही तो बाल गोपाल हैं, कृष्ण गोपाल हैं ..!!
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© श्री प्रदीप शर्मा
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