श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पा ठ…“।)
पाठ को हम सबक भी कह सकते हैं। जिंदगी का पहला पाठ हम मां से ही सीखते हैं, क्योंकि हमारा पहला शब्द मां ही होता है। सीख का अंत नहीं, सबक की कोई सीमा नहीं, जो अखंड चले, वही वास्तविक पाठ है।
पठन पाठन ही तो पाठ है, जिसे सीखने के लिए हमें पाठशाला भी जाना पड़ता है। पाठ तो बहुत दूर की बात है, मास्टर जी पहले हमें पट्टी पढ़ाते थे।
एक, दो, तीन, चार, भैया बनो होशियार। पढ़ने लिखने के लिए पहले लिखना पड़ता था, जब हम लिखा हुआ पढ़ने लग जाते थे, तब हम पुस्तक में से पाठ पढ़ते थे। उसे ही सबक याद करना कहते थे। बिना पट्टी पढ़े, पाठ याद नहीं होता था। इसे ही अभ्यास कहते थे।।
पुस्तक में कई पाठ होते थे, जिसे हम बाद में lesson कहने लग गए। पढ़ने का अभ्यास बढ़ता चला गया, पाठ अध्याय होते चले गए, चैप्टर पर चैप्टर खुलते चले गए, हम सीखते चले गए। जिस तरह ज्ञान की कोई सीमा नहीं, सीखने का भी कभी अंत नहीं।
सीखने का असली अध्याय तब शुरू होता है, जब जीवन में स्वाध्याय प्रवेश करता है। जब पढ़े हुए को ही बार बार पढ़ा जाता है, तब वह पाठ कहलाता है। किसी भी धार्मिक ग्रंथ का नियमित पाठ पारायण कहलाता है। नित्य आरती और नित्य पाठ स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान के ही अंग हैं।।
कुछ ज्ञानी पुरुष इतने अनुभवी हो जाते हैं कि उन्हें तो कोई पाठ नहीं पढ़ा सकता, उल्टे वे ही दूसरों को पट्टी पढ़ाना शुरू कर देते हैं। हम पर परमात्मा और सदगुरु की इतनी कृपा हो कि हमारा विवेक जाग्रत हो और हम ऐसे लोगों से दूर रहें।
जिन्दगी इम्तहान भी लेती है और सबक भी सिखलाती है। कोई आश्चर्य नहीं, जीवन के किस मोड़ पर, जिंदगी की किताब का एक नया अध्याय खुल जाए, और हमें एक और नया पाठ पढ़ना पड़े। सीखने की भी कहीं कोई उम्र होती है।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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