श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुक्तिबोध।)  

? अभी अभी # 114 ⇒ मुक्तिबोध? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

बोध जानकारी को कहते हैं, ज्ञान को कहते हैं। जो बंधन में जकड़ा है, जब तक उसे इस बात का अहसास नहीं हो, कि मुक्ति भी एक अवस्था है, जो स्वाभाविक और सनातन है, तब तक वह मुक्त होने की सोच भी नहीं सकता। कोल्हू का बैल हो अथवा तांगे में जुतने वाला घोड़ा, उनका प्रारब्ध नियत है, वे हमेशा जुतने के लिए तत्पर रहते हैं, सृष्टि के चक्र की तरह उनका भी एक जीवन चक्र होता है, जिसमें कोई अप्रत्याशित नहीं घटता, रोज सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यूं ही तमाम होती है। कहीं कोई घटना नहीं, उमंग नहीं, उत्साह नहीं, आशा निराशा, शिकवा शिकायत, मलाल नहीं। आप चाहें तो इसे समर्पित आत्म समर्पण भी कह सकते हैं। शायद इसी में उसकी मुक्ति लिखी हो।

अब हम एक आजाद पंछी को लेते हैं, जिसके जन्म से ही पर हैं, परवान है, ऊंची उड़ान है। उसकी मां उसे उड़ना सिखाती है, वह उड़ेगा नहीं तो जिंदा कैसे रहेगा, अपना पेट कैसे भरेगा। एक उड़ती चिड़िया कभी आपके पास नहीं फटकती, उसे केवल दाने की तलाश रहती है। यही दाना कभी कभी उसके लिए जी का जंजाल बन जाता है जब कोई बहेलिया उसे अपने जाल में फांस लेता है। वह मुक्त होने के लिए, आजाद होने के लिए बैचेन होती है फड़फड़ाती है, उसके प्राण छटपटाते हैं। ।

जीव की भी यही अवस्था है। कहीं वह कोल्हू का बैल है तो कहीं किसी के जाल में फंसा हुआ एक आजाद पंछी। कहीं नियति ने उसे बांध रखा है और कहीं वह अपने स्वभावगत संस्कारों के कारण संसार के जंजाल में उलझा पड़ा है। जब तक उसे आत्म बोध नहीं होता, तब तक मुक्तिबोध कैसे संभव है।

यह आत्म बोध और मुक्तिबोध आखिर क्या बला है और बोध क्यों जरूरी है। हम पढ़े लिखे समझदार, बुद्धिमान, आजाद खयाल उड़ते हुए पंछी हैं। हमारे भी अरमान हैं, उमंग है, आशा, उत्साह, सुनहरे सपने और महत्वाकांक्षा है, इसमें आत्मबोध और मुक्तिबोध का क्या काम। अनावश्यक रूप से जीवन को जटिल और दूभर क्यों करना। जिन्हें आत्मबोध हो गया क्या वे मुक्त हो गए। ।

तुलसीदास जी तो कह भी गए हैं, बड़े भाग, देवताओं को भी दुर्लभ, मानुस तन पायो ! हम भी खुश, धरती पर ही स्वर्ग पा लिया ! लेकिन नहीं, फिर कोई ज्ञान दे गया। यह संसार तो माया है। सच्चा सुख तो स्वर्ग में है जिसके लिए सच बोलना पड़ता है, माता पिता की और गाय की सेवा करनी पड़ती है। दान पुण्य करोगे तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

हम भी समझ गए। न तू जमीं के लिए है न आसमां के लिए। तेरा वजूद है, सिर्फ दास्तां के लिए। जितने पुण्य कमाए हैं, उतना ही स्वर्ग मिलेगा। पैसा खत्म तो खेल भी खत्म। मुक्ति का मार्ग केवल आत्म बोध है, मुक्ति बोध है। ।

क्या है यह मुक्ति की बीमारी, किससे मुक्त होना है हमें, अपने आपसे या अपने परिवार से, अथवा इस संसार से। क्या बिना आत्म बोध के मुक्तिबोध संभव नहीं। और अगर हमें मुक्तिबोध हो भी गया, तो इससे हमें क्या फ़ायदा। हम जीवन में वहीं कुछ इन्वेस्ट करते हैं, जहां कुछ फायदा हो। शेयर मार्केट वाले हैं, दूर की सोच रखते हैं। 

ये आत्मबोध और मुक्तिबोध के बारे में सुना बहुत है, सोचा भी है, थोड़ा बहुत इसमें भी इन्वेस्ट कर दें, शायद अगले जन्म में काम आ जाए। कोई अच्छी कंसल्टिंग एजेंसी हो, कोई भरोसे वाला दलाल हो, तो जो भी कंसल्टेशन, कमीशन अथवा दलाली होगी, हम देने के लिए तैयार हैं। आत्मबोध के बारे में जो ज्यादा नहीं पढ़ा, हां, थोड़ा बहुत मुक्तिबोध के बारे में जरूर पढ़ा है। वैसे हम बड़े जिज्ञासु, मुमुक्षु और ज्ञान पिपासु भी हैं, जहां हमारा फायदा होता है, उधर का रुख कर ही लेते हैं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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