श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जीवन संगीत“।)
जीवन है मधुवन ! जिस वन में मधु भी हो और मधुर संगीत भी हो, कल्पना का तो कोई अंत नहीं, जीवन में झिलमिल सितारों का आंगन भी हो, रिमझिम बरसता सावन भी हो, तो क्यों न बृज की भूमि पर ही चला जाए। वहां मधुवन में राधिका भी है और गिरधर की मुरलिया भी। बाल गोपाल और छोटी छोटी गैया जहां हो तो क्या जीवन संगीतमय नहीं हो जाए।
सुना है, सुर के बिना, जीवन सूना है, और सुर के सात स्वर होते हैं, जब कि प्रेम तो सिर्फ ढाई अक्षर का ही होता आया है। मोहन की मुरली की तान छिड़ती है
तो कानों में मानो शहनाई गूंजने लगती है। सबसे ऊंची प्रेम सगाई। मीरा लोक लाज छोड़ती है, तो राधा के तो मानो प्राण ही उस मुरलिया में बसे हों।।
लेकिन हमारे जीवन में आज कहां गंगा, जमना और वृंदावन की गलियां हैं। हमारे जीवन में भी बाल लीला होती है, रास लीला होती है, हमारे भी बचपन के साथी थे। हम भी धूप और धूल में खेले हुए हैं। लेकिन नियति हमें भी हमारी ब्रज की भूमि से दूर धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र के महासमर में प्रविष्ट करवा ही देती है।
हम इस जीवन समर में बिना सारथी के अर्जुन हैं, बिना द्रोणाचार्य के एकलव्य हैं। हममें ही कभी दुर्योधन प्रकट हो जाता है तो कभी शकुनि। हमने भी धर्मराज बन यहां कई दांव खेले हैं, कई बार द्रोपदी हारी भी है तो कई बार उस नाथों के नाथ श्रीनाथ ने हमारी द्रोपदी की लाज भी बचाई है।।
जीवन में हमें भी सांदीपनी जैसे गुरु भी मिले हैं और कई सुदामा से मित्र भी, लेकिन बस अफसोस यही, हममें सदा कृष्ण तत्व का अभाव रहा। बचपन में हो सकता है, हमने भी माखन ना सही, बिस्किट के पैकेट से बिस्किट चुराया हो, दाऊ भैया की जेब से कभी पांच का नोट भी निकाला हो, लेकिन कृष्ण की तरह हम भी आज अपनी सभी बाल लीलाएं छोड़, बीवी बच्चों के साथ सुख में जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
हमारे जीवन में आज रस भी है और संगीत भी। पंडित जसराज, भीमसेन जोशी, पंडित कुमार गंधर्व, लता रफी और जगजीत कभी तानसेन की याद ताजा कर देते हैं तो कभी स्वामी हरिदास की।
एक अदना सा भजन गायक विनोद अग्रवाल, जब आंख मूंद कृष्ण को, हे गोविन्द हे गोपाल को अंसुअन जल से अश्रु भिगोकर हमें गोविंद की गली पहुंचाता है, तो काल की मर्यादाएं समाप्त हो जाती हैं। पिया मिलन की प्यास अधूरी नहीं रह जाती, प्यास पूरी हो जाती है, जब श्री हरी कीर्तन में भाव समाधि में प्रकट हो जाते हैं। यह गूंगे का गुड़ है। न बहरे को सुनाई देता है और न अंधे को दिखाई देता है।।
जीवन में सिर्फ देखा जाता है, कुछ दिखाया नहीं जाता। अनुभव, महसूस किया जाता है, उसका बखान नहीं किया जाता। जो प्रज्ञा चक्षु हैं केवल वे ही अधिकारी होते हैं उस लीला के महिमामंडन और गुणगान के। नर सत्संग से क्या से क्या हो जाए। डोंगरे महाराज की कथा जिसने सुनी, वह तर गया। समझिए भव सागर से उतर गया।
दुख दर्द तो जीवन में होंगे ही। जरा प्राचीन संतों के कष्ट देखें, महान व्यक्ति कांटों की राह पर ही जीवन में आगे बढ़े हैं फिर भी उन्होंने दुनिया को ज्ञान का संदेश ही दिया है, सत्य ने हमेशा उनका साथ दिया है। आज इनका संदेश भी शायद कुछ इस प्रकार का ही हो ;
तुम आज मेरे संग हंस लो
तुम आज मेरे संग गा लो।
और हंसते गाते, इस जीवन की
उलझी राह संवारो।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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