श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लव इन शिमला“।)
हमने अंग्रेजों का जमाना तो नहीं देखा लेकिन उनके बनाए हिल स्टेशन जरूर देखे हैं। क्या दिन थे वो बचपन के, परीक्षा हुई और गर्मी की छुट्टियां शुरू! अच्छा काम नहीं करने का बहाना, हमें उससे क्या। हमें तो इस बहाने पढ़ाई और स्कूल से छुट्टी मिल जाया करती थी। जाए, जिसको जाना हो पहाड़ों पर, हिल स्टेशन पर, हम तो चले ननिहाल।
१९६० का साल रहा होगा, जब हमने पहली बार शिमला का नाम सुना। एक फिल्म आई थी जॉय मुखर्जी, साधना, शोभना समर्थ और दुर्गा खोटे अभिनीत, लव इन शिमला, लाल लाल गाल !
तब फिल्में भले ही नहीं देख पाते हों, पर रेडियो पर गाने तो सुनने में आ ही जाते थे, और स्कूल के आसपास ही एक नहीं, तीन तीन चलचित्र गृह, सिनेमा के पोस्टर देखने से तो कोई नहीं रोक सकता था। ।
तब हमारे लिए हिल स्टेशन आसपास के प्राकृतिक स्थल ही हुआ करते थे। पाताल पानी, तिन्छा फॉल और जानापाव तो साइकलों से ही निकल जाते थे। खेतों में गन्ने, हरे हरे छोड़ और मटर के दाने तथा फलबाग के जाम हमारे लिए किसी अशोक वाटिका से कम नहीं थे।
कश्मीर अगर पहली बार सन् १९७४ में देखा तो शिमला, देहरादून और मसूरी वर्ष १९८६ में। हिमाचल की ज्वाला जी, सोलन और कांगड़ा भी पहली बार ही जाने का योग आया। पहाड़, हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य ऐसा कि वहीं बस जाने का मन करे। ।
छोटी मोटी होटल में रात गुजारने में ही गरीबी में आटा गीला हो जाता था। कहां दून कल्चर और कहां हम मालवी जाजम वाले इंदौरी ! पहली बार शिमला का माल रोड देखा। आसपास पहाड़ों पर बंगले देखे, इच्छा जरूर हुई, काश हम भी यहां की शांति में बस पाते, इनमें से एक प्यारा बंगला हमारा भी होता। रोज सुबह माल रोड की सैर, मानो स्वर्गारोहण।
बस उसके बाद कभी शिमला मसूरी देहरादून नहीं जा पाए। मन में तसल्ली है, चारों धाम, बारहों ज्योतिर्लिंग कर लिए, अब तो बस मन चंगा और कठौती में गंगा। लेकिन जब भी प्रकृति और पहाड़ों का रौद्र रूप देखता हूं, दहल जाता हूं। ।
Things are not, what they seem! सिक्के के तो केवल दो पहलू होते हैं, जिंदगी के कई रूप रंग होते हैं। कितना विरोधाभास है इस जिंदगी में। एक तरफ विविध भारती पर हेमंत कुमार का गीत बज रहा है, जिंदगी कितनी खूबसूरत है, आइए आपकी जरूरत है, और दूसरी ओर उसी शिमला शहर की तबाही की तस्वीरें न्यूज़ चैनल पर दिखाई दे रही हैं।
एकाएक कानों और आंखों पर भरोसा नहीं होता, हम क्या सुन रहे हैं, और क्या देख रहे हैं। कल जहां बसती थी खुशियाँ, आज है मातम वहां, वक्त लाया था बहारें, वक्त लाया है खिजां, जैसे साहिर के शब्द भी इस त्रासदी को बयां नहीं कर सकते। ।
हम अक्सर पहाड़ जैसी जिंदगी की बातें करते हैं, और कुछ दिन आराम करने के लिए पहाड़ों की ही गोद में चले जाते हैं। आखिर प्रकृति ही तो हमारी गोद है। एक छोटा बच्चा जिस मां की गोद में खेलता है, बड़ा होकर वह मां का कितना खयाल रखता है। प्रश्न ही ऐसा है, हम निरुत्तर हो जाते हैं।
प्रकृति की गोद ही GOD है। जिस बच्चे को सिर्फ मां की गोद चाहिए, वह बड़ा होकर उसी गोद को शर्मिंदा करता है। नंगे पांव पैदल मंदिर जाने वाला इंसान आजकल कार से मंदिर जाता है, उसे पक्की सड़क चाहिए, वह मंदिर के पास ही बड़ी होटल बना लेता है, उसे पैसा जो कमाना है। पैसे पहाड़ पर नहीं उगते लेकिन वह पहाड़ पर पैसों के पेड़ लगा रहा है। मूर्ख है, जिस डाली पर बैठा है, उसे ही काट रहा है। ।
उसने काली, भद्र काली का भी विकराल रूप देखा है। जब प्रकृति रुष्ट होती है, तो सभी देवता रूठ जाते हैं। माता पिता आशीर्वाद नहीं, शाप देते हैं। अपनी ही करनी का फल हम भोग रहे हैं।
इस भ्रम में मत रहिए, कि हम तो यहां हजारों मील दूर पूरी तरह सुरक्षित हैं, शिव के तांडव से पूरी सृष्टि नहीं बच सकती। इस जर्रे जर्रे में वही शिव तत्व मौजूद है। यह तेरी, मेरी उसकी नहीं, हम सबकी खता है। हम सब ही दंड के भागी हैं। पूरी वसुधा की बात छोड़िए, फिलहाल जो बेहाल हैं, बरबाद हैं, उनकी फिक्र कीजिए।
करिए अरदास, रगड़िए नाक और पूछिए उस परवरदिगार से ;
ओ रूठे हुए भगवान
तुझको कैसे मनाऊॅं
तुझको कैसे मनाऊॅं।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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