श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किवाड़, फाटक, दरवाजा“।)
आइए, पहले नौशाद साहब के इस खूबसूरत नगमे का जायजा लिया जाए ;
जरा मन की किवड़िया खोल,
सैंया तोरे द्वारे खड़े !
कोई हमारे द्वार पर खड़ा होगा तो पहले घंटी बजाएगा, फिर हम दरवाजा खोलेंगे। गांव में तब कहां बिजली थी, द्वार खटखटाना पड़ता था, तब जाकर कहीं किवाड़ खुलता था। लेकिन वही किवाड़ अगर मन का होगा, तो सोचिए, कितना छोटा होगा, बेचारा किवाड़ भी छोटा होते होते खिड़की की तरह किवड़िया हो गया होगा।
कल का किवाड़ ही हमारे आज का दरवाजा है। दर शब्द से दरवाजा बना है। दर द्वार को भी कहते हैं, जिसे मराठी में दार भी कहते हैं। एक प्रसिद्ध मराठी अभंग है, उघड़ दार देवा। इसी दर, दार, द्वार अथवा दरवाजे को अंग्रेजी में डोअर (door) कहते हैं। कितनी समानता है न, इन भाषाओं में भी। ।
शहरों में आजकल किवाड़ का प्रचलन नहीं है। किवाड़ में दो पाट, यानी पल्ले होते हैं, जिनके आसपास एक चौकोर लकड़ी की फ्रेम होती है, जिसे चौखट कहते हैं। दोनों पल्ले अथवा पलड़े सांकल कुंदों से जोड़े जाते हैं। पहले देहरी चढ़ना पड़ती थी, उसके बाद ही गृह प्रवेश होता था। थोड़ा राग द्वेष, कहा सुनी हुई, और कसम खा ली, मैं उसकी देहरी नहीं चढ़ने वाला। अब कोई देहरी अथवा ड्योढ़ी का चक्कर ही नहीं। मत चढ़ो चौखट, हमारी बला से।
आपने कभी सांकल की आवाज सुनी है, महलों और किलों में बड़े बड़े लकड़ी के दरवाजे रहते थे, और ये मोटी मोटी, लोहे की सांकल। बुलंद दरवाजे का नाम तो सुना ही होगा। हाथी भी उन दरवाजों को नहीं तोड़ सकते थे। ।
आजकल महानगरों में घर बहुत छोटे छोटे हो गए हैं।
एक आदर्श मकान में, आज भी थोड़ी बहुत बागवानी होती है और घर के बाहर भी एक गेट होता है जिससे घर की सुरक्षा भी होती है और ढोर, पशु, जानवर भी घर में प्रवेश नहीं करते। कहीं इसे मेन गेट कहते हैं, तो कहीं फाटक। रात को मेन गेट, यानी बाहर का फाटक बंद कर दिया, तो रात भर चैन की नींद सो सकते हैं।
फाटक के लिए किसी घर की आवश्यकता नहीं होती। रेलवे फाटक सिर्फ रेल के आने के समय ही बंद होता था। मेरे एक मित्र का नाम भी मि. फाटक ही था। जब भी मिलने आते, यही कहते, शर्मा जी दरवाजा खोलो, मैं गौरव फाटक। ।
द्वार की तो आज भी कमी नहीं, एक सुदामा नगर में आपको कई प्रवेश द्वार मिल जाएंगे। शादी विवाह में तो गार्डन, रिसॉर्ट के बाहर प्रवेश द्वार पर ही आपका स्वागत कर दिया जाता है। चार दिन, अथवा चार घंटे की चांदनी जो है।
एक तब का उत्साह था, उमंग थी, हमरे गांव कोई आएगा, प्यार की डोर से बंध जाएगा। और एक आज का दिन है। लगता है, फोन ने हमारी दूरियां बढ़ा दी हैं। बात भी सही है ;
जाना था हमसे दूर
बहाने बना लिए
अब तुमने कितनी दूर
ठिकाने बना लिए। ।
मजबूरियां भी बढ़ी हैं, और दूरियां भी। आप कहते ही रह जाएं, हमारे घर आना राजा जी, राजा जी को आजकल कहां फुरसत। शायद इसीलिए जगजीत सिंह को मजबूरी में कहना पड़ा होगा ;
कौन आएगा यहां
कोई न आया होगा।
मेरा दरवाजा
हवाओं ने हिलाया होगा। ।
© श्री प्रदीप शर्मा
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