श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संन्यासियों का राजयोग”।)

?अभी अभी # 155 ⇒ संन्यासियों का राजयोग? श्री प्रदीप शर्मा  ?

संन्यास मनुष्य जीवन की वह श्रेष्ठतम अवस्था है, जहां ज्ञान, विवेक और वैराग्य अपनी चरम अवस्था में पहुंच जाते हैं।

एक संन्यासी का कोई अतीत नहीं होता, कोई रिश्तेदार नहीं होता, अस्मिता अहंकार से परे उसके लिए मोक्ष के द्वार सदा खुले रहते हैं।

चार वर्णों के आश्रम में संन्यास का स्थान अंतिम है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ के बाद की अवस्था है संन्यास। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति को ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य माना गया है। अगर ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करते हुए संन्यास का भाव जागृत हो जाए तो अर्थ और काम से मुक्त हो साधक धर्म और मोक्ष का मार्ग भी अपना सकता है।।

इस जीव का क्या भरोसा ! इसमें कब कौन सा भाव जागृत हो जाए। मन को बैरागी होने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगता और हमने तो बैरागियों को भी माया के इस संसार में उलझते देखा है। संसार छोड़ संन्यास लेना एक बार फिर भी आसान है, लेकिन राजनीति से कभी कोई संन्यास नहीं लेता।

कर्म का क्षेत्र संन्यास से बहुत बड़ा है, और शायद इसीलिए देवता भी इस धरती पर अवतरित होते हैं, अपनी लीला का विस्तार करते हैं और जगत के कल्याण के पश्चात् पुनः अपनी लीला समेट लेते हैं। सुख और दुख की तरह कर्म और वैराग्य जीवन के दो विपरीत छोर हैं, और दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।।

संन्यास एक मन का एक ऐसा भाव है जिसमें विरक्ति और वैराग्य की प्रमुखता है। राजा जनक, महात्मा विदुर और उद्धव इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। लेकिन विधिवत संन्यास ग्रहण किए एक संन्यासी की बात अलग है।

निष्काम कर्म का भाव, और संसार के कल्याण का संकल्प जब प्रबल हो जाता है, और संसारी जीवों के दुख दर्द से मन की करुणा जाग उठती है, तो इधर तो कोई राजकुमार सिद्धार्थ राजसी सुखों का त्याग कर बुद्ध बन जाता है तो उधर कोई रामकृष्ण परमहंस का शिष्य स्वामी विवेकानंद सोई हुई हिंदू संस्कृति को जगाने सात समुन्दर पार चला जाता है।।

जब भी धर्म और नैतिकता का ह्रास हुआ है, देश का साधु कभी चुप नहीं बैठा है। चाहे संत कबीर हो गुरु गोविंदसिंह हो या शिवाजी के समर्थ गुरु रामदास।

धर्म ध्वजा फहराने का काम आजकल धार्मिक चैनल कर रहे हैं। सत्संग, प्रवचन और कथा का निरंतर प्रसारण चल रहा है। कई बाबाओं और पूंजीपतियों ने इन चैनलों को खरीद लिया है। कौन बाबा है और कौन पूंजीपति, कुछ समझ में नहीं आता।

इसे कहते हैं संन्यासियों का राजयोग। संत महंत तो छोड़िए, साध्वियों का भी राजयोग जागा है। उनका राजयोग आज भी कितना प्रबल है, आप अपने आप से ही पूछकर देख लीजिए।।

विधि के विधान से बड़ा कोई संविधान नहीं होता। आचार्य पहले भी राजाओं के मंत्री और सलाहकार होते थे, आज लोकतंत्र में तो मंत्री ही राजा है। विज्ञान और धर्म संसार में साथ साथ चले हैं। जब भी धर्म का पलड़ा कमजोर हुआ है, अधर्म ने सर उठाया है, हमें कोई हिटलर नजर आया है।

मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं। एक लोकसेवक का जन्म केवल मानवता की सेवा के लिए होता है। संतों की कृपा और आशीर्वाद हमारे राजनेताओं को सद्बुद्धि प्रदान करे। विश्व का कल्याण तो बाद में, पहले देश के जन जन का कल्याण तो हो। राजनीति में महात्मा तो कई हैं, लेकिन किसी संत का आज भी अभाव ही है। ऐसे में साबरमती के संत की याद आना स्वाभाविक ही है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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