श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिवा-स्वप्न (फैंटेसी) “।)
मैं तो एक ख्वाब हूं, इस ख्वाब से तू प्यार ना कर ! गोपियों के तो मन दस बीस नहीं थे, लेकिन जब हम सो जाते हैं, तब भी स्वप्न में हमारा मन जागता रहता है, लेकिन क्योंकि हम सोये हुए रहते हैं, इसलिए यह मन अवचेतन मन कहलाता है। हमारे चेतन होते ही यह अवचेतन मन सो जाता है।
अब उनका क्या, जो उठते जागते भी सपने देखा करते हैं। आप इन्हें दिवा स्वप्न भी कह सकते हैं और खयाली पुलाव भी। मन की गति को कोई नाप नहीं पाया।
कल्पना लोक में विचरने के लिए यह स्वतंत्र है। जहां रवि की नहीं पहुंच, वहां पहले से ही मौजूद,पहुंचे हुए कवि। अगर आपको शुगर है तो खयाली पकवान में तबीयत से शकर डालें, आपका बाल भी बांका नहीं होगा।।
हमारा भारतीय दर्शन नैतिकता, आत्म संयम, अनुशासन, तितिक्षा,ब्रह्मचर्य, यम नियम और चिंतन, मनन, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान पर आधारित है जब कि पाश्चात्य संस्कृति फ्रायड के मनोविज्ञान को अधिक महत्व देती है। ओशो भारतीय दर्शन और फ्रायड का कॉकटेल है, जहां
काम, क्रोध के विकारों को दबाया नहीं जाता, उनका विरेचन (catharsis)किया जाता है। हमारी विश्व गुरु की छवि राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर,विवेकानंद से होती हुई, महर्षि रमण,ओशो, कृष्णमूर्ति,मार्केटिंग योग गुरु बाबा रामदेव, श्रीश्री रविशंकर और जग्गी वासुदेव के हाथों में आज भी सुरक्षित है।
बाल मन बड़ा कोमल होता है। कच्ची मिट्टी का एक ऐसा खिलौना होता है बचपन, जिसे जैसा चाहा स्वरूप दिया जा सकता है। गुड्डे गुड़िया का खेल ही तो होता है बचपन, जहां कल्पना लोक में परियों का संसार, घोड़े पर राजकुमार और एक सुंदर राजकुमारी भी होती है। एडवेंचर्स ऑफ रॉबिनहुड भी होते हैं और गुलिवर्स ट्रैवल भी। कल के सिंदबाद के जहाजी लुटेरे आज एंड्रॉयड की दुनिया के ब्ल्यू व्हेल जैसे खतरनाक खेल हो गए हैं। बच्चे तो बच्चे बड़े बूढ़े भी सेक्स टॉयज से खेलने लगे हैं। मन्नू भंडारी का आपका बंटी अब और वयस्क हो चला है।।
हिंसा, युद्ध और आधुनिक हथियार आज की युवा पीढ़ी को बहुत लुभा रहे हैं। बच्चों की पोगो की दुनिया ने आजकल एलियंस के सपने देखना शुरू कर दिए हैं। स्टार वॉर और स्टीफन हॉकिंग पर बच्चे बहस करते हैं। कल का शक्तिमान आज का स्टीफन रोबोट है, सूर्यवंशम है। कितने सपने देख रही है आज की बच्चों की दुनिया, कल इनका भविष्य कितना उज्ज्वल और यथार्थपरक होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
फैंटेसी में बिंब भी है, और प्रतीक भी। वहां प्रश्न है, जिज्ञासा है, शंका तो है, लेकिन समाधान नहीं। यह फैंटेसी हर युग में,हर उम्र में विद्यमान रही है,हमारे अंदर का देवासुर संग्राम है फैंटेसी। अच्छे बुरे सपने हैं फैंटेसी। किसी को कभी ना बताई गई बातें हैं फैंटेसी,अपने आप से छुपाई गई सच्चाई है फैंटेसी। आईने की तरह साफ है फैंटेसी, लेकिन आईने से मुंह छुपाना है फैंटेसी। ऐसी है फैंटेसी, कैसी कैसी है फैंटेसी।।
अगर दाग अच्छे हैं, तो फैंटेसी भी बुरी नहीं ! क्या है यह फैंटेसी, यथार्थ और कल्पना के बीच का एक पर्दा, जिसके आरपार देखा तो जा सकता है, लेकिन कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। तारे ही नहीं, फिल्मी सितारे भी जमीं पर। देवानंद और राजेश खन्ना में ऐसा क्या था, जो लड़कियां उनकी दीवानी थी। दक्षिण भारत में तो फिल्मी अभिनेताओं की तस्वीर लोग घरों में लगाते थे। युवा पीढ़ी के कमरों में, कहीं ब्रूस ली की तस्वीर तो कहीं जेम्स बॉन्ड की। क्या कहें इसे फैंटेसी अथवा पागलपन।
यह फैंटेसी समाज के लिए घातक और अभिशाप तब बन जाती है जब यह नैतिकता की वर्जनाओं को तोड़ती हुई अपराध जगत में प्रवेश कर जाती है। फैंटेसी बाल अपराध की जनक भी है और मानसिक विक्षिप्तता की भी। फैंटेसी मनोविज्ञान है, मनोरंजन,मनोविनोद ही बना रहे,भले ही मन में लड्डू फूटते रहें, लेकिन कभी अपराध मनोविज्ञान का हिस्सा ना बने।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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