श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विवेक के पन्ने”।)
अभी अभी # 168 ⇒ विवेक के पन्ने… श्री प्रदीप शर्मा
ज़िन्दगी एक डायरी है, जिसे आप चाहे लिखें, न लिखें ! कुछ पन्ने विधाता लिखता है, कुछ हमारे द्वारा लिखे जाते हैं। फिर भी कुछ पन्ने कोरे ही रह जाते हैं। मेरी डायरी में भी एक पन्ना विवेक का है, जिस पर आज तक कुछ नहीं लिखा गया। कभी तो श्रीगणेश करना ही है ! सोचा, आज से ही क्यों न कर दूँ।
बुद्धि और ज्ञान के प्रदाता, ऐसा कहा जाता है, मंगलमूर्ति श्रीगणेश हैं ! विवेक के बारे में जब बात करो, तो लोग विवेकानंद तक चले जाते हैं। जब किसी बुद्धिमान को समझा-समझाकर हार जाते हैं, तो मज़बूरन कहना पड़ता है, भाई !अपने विवेक से काम लो। ।
ऐसा कहा जाता है, बुद्धि का संबंध मन से है, और विवेक का अन्तर्मन से ! मन से तो हमेशा यही शिकायत रहती है, कि वह मनमानी करता है। इसीलिए कभी भी किसी बुद्धिमान व्यक्ति की मति फिर सकती है। विवेक का मामला थोड़ा अलग है। उस पर मन का नहीं अन्तर्मन का अंकुश जो है।
कभी कभी इंसान का विवेक भी काम नहीं आता। एक सज्जन किसी ज्ञानी के प्रवचन सुन घर लौटे ! ज्ञानी पुरुष की एक बात उन्होंने गाँठ बाँध ली थी ! हर काम विवेक से पूछकर किया करो अब तक वे स्वावलंबी थे। अपना काम स्वयं करते थे।
अब वे सारा काम विवेक से पूछकर करने लगे। विवेक पर भरोसा किया, और धोखा खाया, क्योंकि विवेक तो उनके लड़के का ही नाम था। ।
बुद्धि और मन से परे प्रज्ञा का निवास है और विवेक उसकी रखवाली करता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, और मत्सर का अन्तर्मन में प्रवेश वर्जित है। वैसे भी इनका कार्य-क्षेत्र मन तक ही सीमित है। केवल संयम ही हमें विवेक का मार्ग दिखला सकता है। और बिना मन को बस में किये संयम भी हाथ नहीं आता। योगानुशासन की यम-नियम ही बुनियाद हैं। हाथ-पाँव को तोड़ना-मरोड़ना कोई योग नहीं।
विवेक का पन्ना अति-वृहद है ! लेकिन यह स्थूल ज्ञान के शब्दों में नहीं समेटा जा सकता। जितना सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हम होते जाएँगे, विवेक के पन्ने अपने आप खुलते जाएँगे। आइए, मन से पार चलें।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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