श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जयपुर वाली बुआ जी”।)
अभी अभी # 179 ⇒ जयपुर वाली बुआ जी… श्री प्रदीप शर्मा
जीवन में कई प्रसंग ऐसे आते हैं, जब घर रिश्तों से भर जाता है। जैसे जैसे रिश्ते खत्म होने लगते है, घर खाली होने लग जाता है। रिश्ते कभी मरते नहीं, लेकिन रिश्तेदार तो अमर नहीं हो सकते न।
ये पारिवारिक प्रसंग ही तो होते हैं, जब बेटियां मायके जाती हैं और बेटों को कभी अपना ननिहाल तो कभी अपना ससुराल खींच लाता है। वहां रिश्ते ही नाम होते हैं। अभी कानपुर वाली चाचीजी नहीं आई, मथुरा वाले फूफा जी नहीं दिख रहे। मत लो नाम उनका, अभी टपक पड़ेंगे। ।
हम भी जब ससुराल जाते थे, तो हमारे रिश्ते को भी नाम दिया जाता था। हम किसी के जीजाजी बन जाते थे तो किसी के कंवर साहब। ऐसे में अगर कहीं से अपना नाम सुनने में आ जाए, तो बड़ा अच्छा लगता था। कोई तो है यहां ऐसा, जो अपने को नाम से भी जानता है।
रिश्ते तो सभी अपने होते हैं, लेकिन अपनों में भी रिश्ते निकल आते हैं। रिश्ते में वे किसी की बुआ थी, तो किसी की बहन, लेकिन मेरे लिए उनका परिचय जयपुर वाली बुआ जी का ही काफी था। जयपुर में उनका भरा पूरा परिवार था। राजगढ़ उनका मायका और मेरा ससुराल था। अधिकतर उनसे मेरी भेंट मेरे ससुराल में ही होती थी। ।
रिश्ते के अलावा उनकी एक पहचान और थी, लोग
उन्हें पान वाली बुआ भी कहते थे। पान उनकी पहचान नहीं, जीवन शैली बन चुकी थी। सुबह कड़क, मीठी, कम दूध की चाय के पश्चात् जमीन पर ही उनकी पान की दुकान सज जाती थी। हम बड़े कुतूहल और उत्सुकता से उनके जादू के पिटारे को निहारा करते थे। गीले टाट के टुकड़े में करीने से रखे हुए हरे हरे पान के पत्ते, खुलता हुआ पानदान, जिसमें कत्था, चूना, लौंग, सुपारी, इलायची
और गुलकंद के अलावा भी बहुत कुछ होता था। कई पोटलियां और नजर आती थी वहां, जिनमें डॉक्टरों की निर्देशित नियमित दवाओं के पैकेट्स भी शामिल होते थे। जीवन की वह एक ऐसी सुबह होती थी, जो शाम तक उन्हें तरो ताजा रखती थी।
वे पान खाती ही नहीं, बनाकर सबको खिलाती भी थी। एकमात्र मैं ऐसा टीटोटलर था, जो पान भी नहीं खाता था। लेकिन बुआ जी के पास सबके लिए कुछ ना कुछ अवश्य होता था। मैने भले ही उनकी सेवा नहीं की हो, लेकिन मुझे पांच बादाम और पांच मनक्का रोजाना इनाम स्वरूप अवश्य मिलते थे। सत्संग से बड़ी कोई सेवा नहीं, शायद इसीलिए मुझे मेवा नसीब होता था। ।
जब तक वे वहां रहती, उनका आत्म विश्वास और जिंदादिली का आलम यह रहता था, मानो उनके आसपास जिंदगी मुस्कुरा रही हो। अपने आराध्य श्रीनाथ जी की सेवा, स्मरण ही उनके जीवन का मूल मंत्र था। उनके पान में एक विशेष बात होती थी, वे पिपरमेंट की जगह भीमसेनी कपूर का उपयोग करती थी। भीमसेनी कपूर को बरास भी कहते हैं, जो नाथद्वारे के प्रसाद में भी मिलाया जाता है। इससे एक तो प्रसाद अधिक दिन तक टिका रहता है और कहते हैं, इसकी शुगरफ्री तासीर भी होती है।
लेकिन सब दिन कहां समान होते हैं। आज तो बस जयपुर वाली बुआ जी की मधुर यादें ही शेष हैं। जब वे अधिक बीमार थीं, तब एक बार जयपुर एक विवाह में जाना हुआ, कोशिश थी, बुआ जी से मिलेंगे, लेकिन हम तो सोचते ही रह गए और बुआ जी ने हमें, अपनी सुशील बहू को भेजकर होटल से बुला लिया। ” बुआ जी आपसे मिलना चाहती हैं। “
बस वही हमारी अंतिम भेंट, अंतिम मिलन था। वे लेटी हुई थी, पान की दुकान नदारद थी, लेकिन आंखों में वही चमक और श्रीनाथ जी में विश्वास ! उन्हें उठाकर बैठाया गया, उन्होंने अपनी पोटली में से पांच बादाम और पांच मनक्का निकाले और मेरे हाथ में धर दिए। ईश्वर कहां खुद इस धरती पर अवतरित होता है, शायद उसे जरूरत ही नहीं पड़ती। उनकी पूरी कृपा हम पर इसी तरह बरसती रहती है। हमारे बुजुर्गों के आशीर्वाद से बड़ा कोई मेवा नहीं, किसी मंदिर का प्रसाद नहीं। जयपुर वाली बुआ जी को समर्पित यह स्मरणाञ्जलि ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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