श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश”।)

?अभी अभी # 195 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

निकले तेरी तलाश में,और खुद ही खो गए! खोने और गुम होने का खेल यह अक्सर बचपन में ही होता है। मेलों और भीड़ में बच्चे खो जाते थे।

मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चों की अदला बदली और खोने की दास्तान जरा ज्यादा ही फिल्मी और भावुक हो जाती थी। अमीर का बच्चा खलनायक निकल जाता था, और गरीब का बच्चा नायक। अस्पताल में बच्चों की अदला बदली अब इतनी आसान भी नहीं। डीएनए का नाटक जो शुरू हो गया है। फिर भी असली जिंदगी में गुम होने और खोने की घटनाएं आम हैं।

किसी की तलाश और खुद का खो जाना अगर कभी जीवन में एक साथ हो जाए,तो उसे आप क्या कहेंगे। यह तब की बात है,जब सड़कों पर चौपाया जानवर नजर आ आते थे। कोई गाय का बछड़ा जब अपनी मां से बिछड़ जाता था, तो उसकी पुकार दिल दहला देती थी। उधर और किसी जगह बेचारी गाय भी अपने बछड़े के लिए बदहवास सड़कों पर भटकती देखी जा सकती थी। बड़ा मार्मिक दृश्य होता था यह। इधर गाय का सतत रंभाना और उधर बछड़े का म्हां,म्हां पुकारते हुए इधर उधर भटकना।।

आज की तारीख में कोई इंसान अपनी मर्जी से नहीं गुम सकता। वह किसी परेशानी के चलते,बिना बताए घर से गायब अवश्य हो सकता है। मां बाप की मार के डर से,अथवा पढ़ाई के डर से कई बच्चे घर से बिना बताए भाग जाते थे।

बेचारे परिवार के लोग परेशान, कहां कहां ढूंढे,किस किससे पूछें।

सभी रिश्तेदारों और यार दोस्तों से पूछ लिया जाता था। तब कहां फोन अथवा मोबाइल की सुविधा थी।

थक हारकर,अखबारों में तस्वीर सहित गुमशुदा की तलाश का विज्ञापन दिया जाता था। प्रिय गुड्डू,तुम जहां कहीं भी हो, फ़ौरन चले आओ। मां ने तीन दिन से खाना नहीं खाया है,दादीजी की हालत भी नाजुक है,उधर बहन ने रो रोकर बुरा हाल कर लिया है।तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की जरूरत हो तो बताना। बस बेटा,जल्दी वापस घर चले आओ। लाने वाले अथवा बताने वाले को कुछ इनाम स्वरूप पारिश्रमिक देने की घोषणा भी की जाती थी।।

सबसे सुखद क्षण वह होता था,जब गाय के बछड़े को अपनी मां मिल जाती थी और माता पिता का खोया अथवा घर छोड़कर भाग बालक वापस घर चला आता था। अंत भला सो सब भला।

कहीं कहीं भाग्य और परिस्थिति बड़ी विचित्र और विपरीत ही दृश्य उपस्थित करती है। ऐसे बच्चों को बहला फुसलाकर गलत कामों में लगा देना,अमीर बच्चों के लिए पैसों की मांग करना,तो कहीं किसी दुर्घटना में बच्चे की जान गंवा देना भी उतना ही आम है।।

आज के बच्चों पर पढ़ाई का विशेष दबाव देखा जा रहा है। एक तरफ ऑनलाइन पढ़ाई और दूसरी ओर मोबाइल का अंधाधुंध शौक। हर बच्चा तो जीनियस नहीं हो सकता,पांचों उंगलियां कहां बराबर होती है,लेकिन पालक के भी अरमान होते हैं। बच्चों की आपस की प्रतिस्पर्धा भी कभी कभी बहुत भारी पड़ सकती है।

दूर गांव के बच्चे पढ़ने लिखने के लिए शहरों में आते हैं। कुछ यहां की चकाचौंध में खो जाते हैं,तो कुछ अपने मां बाप का नाम रोशन करते हैं। एक तरह से खोने और पाने का खेल ही तो है आजकल बच्चों का जीवन।।

बेचारे बड़े तो अपने अतीत और बच्चों के सुखद भविष्य के सपनों में ही खोए रहते हैं,लेकिन कहीं बच्चों का बचपना कहीं गुम ना हो जाए,कहीं खो ना जाए। अनुकूल वातावरण नहीं पाकर आज की पीढ़ी अपने साथ न्याय नहीं कर पाती। आज स्वार्थ,खुदगर्जी और प्रतिस्पर्धा की दौड़ में कहीं बच्चा ,मेले की तरह भीड़ में गुम ना जाए,भटक ना जाए,यह जिम्मेदारी आज समाज से ज्यादा माता पिता की है।

जिसका जो गुम गया,वो उसे मिल जाए,जो गुमराह हैं,उन्हें सही राह नजर आ जाए,जिसको जिसकी तलाश है, उसे वह मिल जाए। यहां उन्हें समय व्यर्थ नहीं खोना है,कई रास्ते हैं,कई मंजिलें हैं। सबको अपनी मंजिल मिले। आमीन ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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