श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राजनीति और व्यंग्य“।)
अभी अभी # 207 ⇒ राजनीति और व्यंग्य… श्री प्रदीप शर्मा
राजनीति एक शास्त्र है और व्यंग्य एक सहित्यिक विधा ! जो कभी शास्त्र था, वह एक शस्त्र कब से बन गया, कुछ पता नहीं चला। वैसे तो अरस्तु को राजनीति शास्त्र का जनक माना जाता है, लेकिन भारत के संदर्भ में चाणक्य पर आकर सुई अटक जाती है। कौटिल्य शब्द से ही कूटनीति टपकती है, और कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र के बिना सभी शास्त्र अधूरे हैं।
विडंबना देखिये, अर्थशास्त्र पर अर्थ हावी हो गया, और राजनीति शास्त्र पर राजनीति। बुद्धि पर बुद्धिजीवी भारी पड़ गया और ज्ञान पर ज्ञानपीठ। और व्यंग्य जो शास्त्र नहीं था, हास्य की पगडंडियों से चलता चलता साहित्य की प्रमुख धारा में शामिल हो गया। अगर कल का राजनीति शास्त्र आज अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित है, तो व्यंग्य भी किसी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं।।
कितने दुःख का विषय है, राजनीति से व्यंग्य है, और तो और व्यंग्य में राजनीति भी है, लेकिन राजनीति में आज व्यंग्य का नितांत अभाव है। याद आते हैं वे दिन जब संसद में ज़ोरदार बहस होती थी, शायरी होती थी, नोंकझोंक होती थी, हंगामे भी होते थे, लेकिन किसी का अपमान नहीं होता था। शून्यकाल में बहस चलती थी। प्रश्नोत्तर काल में मंत्री महोदय पर विपक्ष द्वारा प्रश्नों की बौछार कर दी जाती थी। सत्ता से अधिक लोगों में विपक्ष के लिए सम्मान था।
यूँ कहने को तो व्यंग्य और राजनीति का चोली दामन का साथ है, लेकिन दोनों की आपस में बोलचाल तक बंद है। व्यंग्य बंद कमरे में फलता-फूलता है, राजनीति सड़क पर उतर आती है। व्यंग्य पर कोई कीचड़ नहीं उछाल सकता, लेकिन अगर किसी व्यंग्यकार ने राजनीति पर कीचड़ उछाला, तो यह आपे में नहीं रहती। राजनीति को नहीं दोष परसाई।।
राजनीति में पार्टी होती है, हर पार्टी का झंडा होता है, नेता होता है, पार्टी का कोई नाम होता है। व्यंग्य इस बारे में बहुत कमजोर है। उसके पास कोई नाम नहीं, नेता नहीं, झंडा नहीं, कोई नारा नहीं। वह विघ्नसन्तोषी है ! नेता, नारे, पार्टी और झंडे किसी को वह नहीं बख्शता। अतः उसे समाज में वह सम्मान प्राप्त नहीं होता जो राजनीति को होता है।
जनता नेता की दीवानी होती है, किसी व्यंग्यकार की नहीं। हमारा व्यंग्यकार कैसा हो, परसाई जैसा हो, कोई नहीं कहता।
गुटबाजी और अवसरवाद राजनीति और व्यंग्य में समान रूप से हावी है। वंशवाद के बारे में व्यंग्यकार पूरा कबीर है। कमाल के पूत होते हैं उसके ! एक व्यंग्यकार का लड़का कितना भी बड़ा हो जाए, अपने पिता के जूते में पाँव डालना पसंद नहीं करता। राजनीति में तो पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं।।
शेक्सपियर के शब्दों में राजनीति और व्यंग्य Strange bedfellows हैं। राजनीति का काम व्यंग्य के बिना आसानी से चल जाता है, लेकिन व्यंग्य को राजनीति की बैसाखी की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन व्यंग्यकार जब उसी बैसाखी से राजनीति की पिटाई कर देता है, तो बात बिगड़ जाती है। मेरी बिल्ली मुझ पर म्याऊँ ! लेकिन बिल्ली बड़ी चालाक है। वह किसी के टुकड़ों पर नहीं पलती। जहाँ भी मलाई मिलती है, मुँह मार लेती है।
ज़िन्दगी में हास परिहास हो, व्यंग्य विनोद हो ! राजनीति में कटुता समाप्त हो। सहमति-असहमति का नाम ही पक्ष-विपक्ष है। घर घर में विवाद होते हैं, कहासुनी होती है, स्वभावगत विरोध भी होते हैं। लेकिन जब गृहस्थी की गाड़ी आसानी से चल सकती है, तो राजनीति की क्यों नहीं। सत्ता और विपक्ष लोकतंत्र के दो पहिये हैं। दोनों समान रूप से मज़बूत हों। राजनीति में जब व्यंग्य का समावेश होगा, तब ही यह संभव है। आईना साथ रखें। किसी को आइना दिखाने के पहले अपना मुँह देखें।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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