श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दलित के घर भोजन।)  

? अभी अभी ⇒ दलित के घर भोजन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या आपने किसी दलित के घर जाकर भोजन किया है,क्या कृष्ण की तरह कभी आपने भी किसी दुर्योधन का मेवा त्याग विदुर के घर का साग खाया है । सुदामा तो खैर,कृष्ण के सखा थे,ब्राह्मण देवता होते हैं दलित नहीं,कृष्ण यह जानते थे,इसलिए उनके चरण भी अपने अंसुओं से धोए । सबसे ऊंची,प्रेम सगाई ।

हमने अपने जीवन में ऐसा कोई सत्कार्य नहीं किया जिसका छाती ठोंककर आज गुणगान किया जा सके । बस बचपन में जाने अनजाने हमने भी एक दलित के घर भोजन करने का महत कार्य संपन्न कर ही लिया । हम जानते हैं,हम कोई सेलिब्रिटी अथवा नामी गिरामी जनता के तुच्छ सेवक भी नहीं,हमारे पास इस सत्कार्य का कोई वीडियो अथवा प्रमाण भी नहीं,फिर भी हमारे लिखे को ही दस्तावेज़ समझा जावे, व वक्त जरूरत काम आवे ।।

यह तब की बात है,जब हम किसी सांदीपनी आश्रम में नहीं,हिंदी मिडिल स्कूल में पढ़ते थे । सरकारी स्कूल था,जिसे आज की भाषा में शासकीय कहा जाता है । पास में ही मराठी मिडिल स्कूल भी था,जहां कभी अभ्यास मंडल की ग्रीष्मकालीन व्याख्यानमाला गर्मी की छुट्टियों में आयोजित हुआ करती थी । आज वहां भले ही मराठी मिडिल स्कूल का अस्तित्व नहीं हो, अभ्यास मंडल जरूर जाल ऑडिटोरियम में सिमटकर रह गया है ।

तब सिर्फ हिंदी और मराठी मिडिल स्कूल ही नहीं,उर्दू और सिंधी मिडिल स्कूल भी होते थे। जैसा पढ़ाई का माध्यम,वैसा स्कूल ! कक्षा में हर छात्र का एक नाम होता था,और बस वही उसकी पहचान होती थी । अमीर गरीब की थोड़ी पहचान तो थी,लेकिन जाति पांति की नहीं । दलित जैसा शब्द हमारे शब्दकोश में तब नहीं था ।

बस यहीं से हमारी दोस्ती की दास्तान भी शुरू होती है ।।

जो कक्षा में,आपकी डेस्क पर आपके साथ बैठता है, वह आपका दोस्त बन जाता है । आज इच्छा होती है यह जानने की, हमारे वे दोस्त आज कहां हैं, कैसे हैं । दो दिन साथ रहकर जाने किधर गए । किसी का नाम याद है तो किसी का चेहरा ।धुंधली,लेकिन सुनहरी यादें ।

उस दोस्त का चेहरा आज तक याद है नाम शायद कहीं गुम गया । वहीं रिव्हर साइड रोड पर वह रहता था । स्कूल,घर और दोस्तों को आपस में जोड़ने वाली हमारे शहर की नदी पहले खान नदी कहलाती थी । आजकल इसके सौंदर्यीकरण के साथ ही इसका नामकरण भी कान्ह नदी कर दिया गया है । गरीब दलित हो गया और खान कान्ह ।।

खातीपुरा और रानीपुरा जहां मिलते हैं,वही रिव्हर साइड रोड है,जहां आज की इस कान्ह नदी पर एक कच्चा पुल था,जिसके आसपास की बस्ती तोड़ा कहलाती थी । नार्थ तोड़ा और साउथ तोड़ा । ठीक उसी तरह,जैसे अमीरों की बस्ती में नॉर्थ और साउथ ब्लॉक होते हैं। इसी तोड़े में मेरा यह दोस्त रहता था और जिसके आग्रह पर मैं आज से साठ वर्ष पूर्व उसकी झोपड़ी में प्रवेश कर चुका था।

कच्चा घर था,घर में सिर्फ उसकी मां और एक जलता हुआ चूल्हा था,जिस पर मोटी मोटी गर्म रोटी सेंकी जा रही थी । एक डेगची में गुड़ और आटे की बनी लाप्सी रखी थी । मैं संकोचवश उसके आग्रह को ठुकरा ना सका और एक पीतल की थाली में मैंने भी भोग लगा ही दिया ।।

हम इंसान हैं, कोई भगवान नहीं । हर व्यक्ति बुद्ध नहीं बन सकता । गरीबी अमीरी और जात पांत,ऊंच नीच की दीवार नहीं तोड़ सकता और ना ही संसार से पलायन कर सकता । जो हमें आज ईश्वर ने दिया है, वह सबको नहीं दिया ।आज भी वह दोस्त मेरी आंखों के सामने नजर आता है । उसकी मां और उसके हाथ की लाप्सी रोटी का सात्विक स्वाद ।

कुंती ने कृष्ण से यही तो मांगा था। अगर कष्ट में आपकी याद आती है,आप हमारे करीब होते हो,तो थोड़ा कष्ट ही सही,थोड़ा अभाव ही सही । जीवन में कुछ दोस्त ऐसे बने रहें,जिनके बीच हम सिर्फ इंसान बने रहें । कितनी दीवारें,कितने क्लब और सर्कल हमें मानवीय मूल्यों से जोड़ रहे हैं,अथवा तोड़ रहे हैं,हमसे बेहतर कौन जान सकता है ।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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