श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिफाफा…“।)
अभी अभी # 223 ⇒ लिफाफा… श्री प्रदीप शर्मा
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खत का मजमून भांप लेते थे जो कभी लिफाफा देखकर, उन्हें आजकल कोई खत ही नहीं लिखता ! वैसे तो खाली लिफाफे का कोई वजूद नहीं, फिर भी लिफाफा आखिर लिफाफा ही होता है।
चिट्ठी वह, जिसमें मजमून हो, लिफाफा वह जिसमें कुछ शगुन हो। नकद को नजर जल्द लग जाती है, लिफाफे में इज्जत रह जाती है। लिफाफे की साइज नहीं, वजन देखा जाता है। कुछ बड़े बड़े नोटों ने जरूर बीच में लिफाफे की साइज बढ़ाने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन नोटबंदी ने सब कुछ संभाल लिया।।
याद आते हैं, बाबा आदम के जमाने के दस दस और सौ सौ रुपए के बड़े बड़े नोट, जो लिफाफों में फूले न समाए फिरते थे और आम आदमी बेचारा सवा, दो, पांच और ग्यारह रुपए के शगुन से ही शादियां निपटाया करता था।
दो और पांच रुपया आज सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन हमारे जमाने तक तो सरकार ने बीस और पचास रुपए के नोट छापकर हमें भी इस धर्मसंकट से मुक्त कर दिया था। शादी का निमंत्रण आने के पहले से ही ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन और एक सौ एक, के कड़क नोट लिफाफे में तैयार रख लिए जाते थे। अब किसको क्या मिला, यह मुकद्दर की नहीं, उसके और हमारे स्टेटस की बात है।।
अगर शादियों में जाना है, तो स्टेज पर तो जाना ही पड़ता है। खाली हाथ भी कभी कोई दूल्हा दुल्हन को आशीर्वाद देता है, ससुरे वीडियो तक बना लेते हैं आजकल। आपका आशीर्वाद ही उपहार है, और वे भी जानते हैं आशीर्वाद खाली हाथ नहीं दिया जाता। गुलदस्ता भी हार फूल ही तो है, उपहार तो बनता ही है आखिर।
सामने वाला तो आजकल दिल खोलकर शादी में खर्च करता है, लेकिन हमें भी तो कई शादियां निपटानी हैं। सोच समझकर लिफाफा बनाना पड़ता है। कब इक्कावन एक सौ एक हो गया और कब एक सौ एक, पांच सौ, कुछ पता ही नहीं चला। बीच में कोई सम्मानजनक आंकड़ा भी नहीं, जहां थोड़ा सुस्ता लिया जाय, भैया वाजबी लगा लो। २५१ के भी कुछ लिफाफे बने, लेकिन बात नहीं बनी। सामने वाला भी सोचने लगे, यहां भी फिफ्टी फिफ्टी। चार लोग आए, चार चार सौ की चार प्लेट खाकर चले गए।।
दर्पण भले ही झूठ ना बोले, लेकिन लिफाफा कभी मुंह ना खोले। दूल्हा दुल्हन के साथ स्टेज पर आशीर्वाद स्वरूप उपहार संग्रह करने वाली अक्सर बहन अथवा सहेली ही हुआ करती है। उपहारों और लिफाफों का ढेर लग जाता है, जिसे बाद में पारखी नजरों से पहले टटोला जाता है। और सबसे आखिर में लिफाफों की जांच पड़ताल होती है।
खुल जा सिम सिम! नाम नोट करो भाई, किसने क्या दिया है, वापस लौटाते वक्त खयाल रखना पड़ता है। तेरा तुझको अर्पण। लिफाफे नहीं हुए, कच्चे चिट्ठे हो गए। शर्मा जी और इक्यावन ? शर्म नहीं आई, महंगी आइसक्रीम खाते और पान चबाते। बस चले तो इनकी लड़की की शादी में खाली लिफाफा ही टिका दें। बड़े, बड़े बाबू बने फिरते हैं दफ्तर में।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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